लोहिया जयंती: विभाजन को व्हाट्सऐप से समझने के दौर में बौद्धिक सत्याग्रह!

मामला यह नहीं हो सकता है कि, “नेहरू ने अपने लिए भारत बना लिया और जिन्ना को पाकिस्तान दे दिया।” हालांकि, बहुमत मिलने की मनमानी के मुकाबले अंग्रेजों से आजादी दिलाने वाले के अधिकार पर भी बात हो सकती है पर अब तो वह पुराना मामला हो गया है। यह तो समझने की बात है कि उस समय की स्थितियों में और क्या विकल्प थे या हो सकते हैं। पर इतिहास लिखने वालों को दोषी ठहराने वाले हावर्ड विरोधियों का हार्डवर्क इससे अलग क्या हो सकता है। ऐसे में इसे इतिहास को भ्रष्ट करने वाले दौर में एक बौद्धिक सत्याग्रह ही मानें

समाजवादी पुरोधा डॉ.राममनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को उत्तर प्रदेश के अकबरपुर में हुआ था। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को इसी दिन 1931 को फाँसी दी गयी थी जिसके बाद वे अपने जन्मदिन पर कोई उत्सव नहीं मनाते थे। भारत विभाजन को लेकर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक उन परिस्थितियों को समझने में मदद करती है जिसकी वजह से यह त्रासदी रोकी न जा सकी। पेश है इस महत्वपूर्ण पुस्तक की भूमिका के अनुवाद के साथ वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह की टिप्पणी-संपादक

 

राम मनोहर लोहिया की किताब, ‘गिल्टी मेन ऑफ इंडियाज पार्टिशन’ का हिन्दी अनुवाद, ‘भारत विभाजन के गुनाहगार’ नाम से उपलब्ध है। 1990 में अंग्रेजी की मूल पुस्तक का पुनर्मुद्रण हुआ था और तब उसकी भूमिका लिखी थी, एम.अरुमुगम ने। पेश है उस भूमिका के खास अंश। बंटवारे के बारे में व्हाट्सऐप्प पर आई जानकारी से राय बनाने वाले लोग नहीं जानते हैं कि ऐसे विषयों पर उस समय मौजूद लोगों की राय भी अलग थी, स्पष्ट नहीं थी और कइयों की सहमति के बाद ही यह सब हुआ होगा।

फिर भी गांधी-नेहरू को दोषी ठहराने वाले लोग भले इस मामले में दूर से भी शामिल नहीं थे (क्योंकि पैदा ही नहीं हुए थे) और पढ़ने लिखने के बारे में अपनी राय सार्वजनिक कर चुके हैं, फिर भी वे एक ‘राय’ रखते हैं। इतिहासकारों को दोष देते हैं और चाहते हैं कि सब लोग उनसे सहमत हों। वैसे तो सहमत होना, नहीं होना इतना आसान भी नहीं है पर क्या कैसे और क्यों हुआ इसे बिना पढ़े जानना-समझना लगभग असंभव है। लेकिन अपेक्षा और कोशिश दोनों दम खम के साथ मौजूद है। सच्चाई का अंदाजा इस भूमिका से लगता है।

जहां तक इससे संबंधित दुष्प्रचार की बात है, अंग्रेजी का “गिल्टी मेन ऑफ इंडियाज पार्टिशन”, “भारत के बंटवारे के दोषी” न होकर “भारत के विभाजन का गुनाहगार” हो गया। बेशक, अनुवाद अक्सर निकटतम होता है बिल्कुल वही नहीं हो पाता है पर हत्या को वध लिखना और दोषी को गुनाहगार लिखना शब्दों का गलत चयन नहीं संपादन का खेल ज्यादा लगता है। संभव है, यह उस समय की मानसिकता हो पर वह इतिहास तो नहीं हो सकता। जो भी हो, भूमिका का यह अंश आपको बताएगा कि भारत विभाजन या बंटवारे को व्हाट्सऐप्प फॉर्वार्ड से नहीं समझा जा सकता है।

पुस्तक की लंबी सी भूमिका के खास अंश इस प्रकार हैं, ….

इसका नाम “भारत के बंटवारे के दोषी” (अंग्रेजी की मूल पुस्तक में : गिल्टी मेन ऑफ इंडियाज पार्टिशन) एक हद तक पुस्तक के अपने भार के मुकाबले अपर्याप्त है। इसे इस तथ्य से आसानी से समझा जा सकता है कि लोहिया ने पुस्तक के परिचय में भारत के बंटवारे के जो आठ कारण बताए हैं उनमें बमुश्किल दो या तीन व्यक्तित्व से संबंधित हैं। इसलिए, दिए गए शीर्षक का कारण क्या है उसका जवाब दिया जाना चाहिए। वाकई यह (मौलाना) आजाद के इंडिया विन्स फ्रीडम का ‘ओवरटोन’ है। लोहिया इससे बीसवीं सदी की सबसे बड़ी त्रासदी में से एक, भारत के बंटवारे पर अपनी प्रतिक्रिया के लिए प्रेरित हुए। (इस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद का जो नाम है उसे अंग्रेजी किया जाए तो क्रिमिनल्, ऑफ इंडियाज डिविजन हो सकता था या होना चाहिए था। पर नहीं है तो अनुवाद भी वैसे ही हो सकता था। लेकिन …)

स्पष्ट है कि आजाद की पुस्तक आत्मकथा रूपी है और बेशक समकालीन इतिहास की है। पर निश्चित रूप से इसमें कई विषयों पर अनुमान हैं। विवाद का मुख्य मुद्दा 14 जून 1947 की एआईसीसी की बैठक से संबंधित है। संबंधित प्रस्ताव पर चर्चा इसी में होनी थी। लोहिया का विवरण अहम महत्त्व का है क्योंकि वे तीन आमंत्रितों में से एक थे। इनमें महात्मा गांधी और जेपी (जय प्रकाश नारायण) शामिल थे। लोहिया की पुस्तक, ‘गिल्टी मेन ऑफ इंडियाज पार्टिशन’ के प्रकाशित होने के करीब तीन दशक बाद राजमोहन गांधी अब (एक्सप्रेस मैगजीन, रविवार 30 अगस्त 1979 देखें) गांधी जी की भूमिका पर आजाद की नाराजगीपूर्ण टिप्पणी का मुकाबला करने के लिए बैठक के संबंध में लोहिया के बयान का उल्लेख कर रहे हैं। यह सब तब हुआ जब गुप्त ठिकाने से भेजे गए बाकी बचे 30 पेज हाल में प्रकाशित हुए हैं।

बंटवारे के प्रस्ताव पर गांधी जी की मौन सहमति के लिए आजाद द्वारा गांधी जी पर आरोप लगाए जाने के उलट उन्होंने इस तथ्य पर अफसोस जताया कि नेहरू और पटेल ने माउंटबेटन से अपने वादे के बारे में उन्हें नहीं बताया। वे एक प्रस्ताव लेकर आए जिससे उनके अनुयायियों को इस घातक योजना से अलग होने का मौका मिलता। इस घटना का विस्तृत विवरण लोहिया के “एनिकडोट्स ऑफ महात्मा गांधी” (1952) में पाया जा सकता है। (देखिए मार्क्स, गांधी और समाजवाद, पृष्ठ 163-166)।

इस बैठक में नेहरू जी ने यह हिम्मत दिखाई कि उन्होंने गांधी जी और लोहिया के खिलाफ कहा कि, “ऐसे लोगों को भाई कहने का क्या मतलब है जो एक-दूसरे का गला घोंटने पर उतारू हैं?” इसपर लोहिया ने यह कहा कि : अमेरिका में गृहयुद्ध हुआ था। इसमें दोनों पक्षों के तीन-चार लाख या उससे भी ज्यादा लोग मारे गए। पर ऐसा नहीं हुआ कि वे भाई नहीं रहे।

माउंटबेटन के बनाए बंटवारे की योजना का विरोध करने वाले वे अकेले व्यक्ति थे यह बात पूरी पारदर्शिता के साथ स्पष्ट करने के लिए मौलाना आजाद एक विवरण देते हैं जिसके मुताबिक बल्लभ भाई पटेल पहले व्यक्ति थे जिसे माउंटबैटन ने अपनी सूची में शामिल किया था। इसके बाद नेहरू के पक्ष में प्रचार शुरू हुआ जिसमें लेडी माउंटबेटन की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। और आखिरकार गांधी जी ने पटेल की लाइन ले ली थी। आजाद की पुस्तक के हिसाब से बंटवारे की योजना का पुरजोर विरोध करने वाला और कोई नहीं, वे अकेले व्यक्ति थे।

इसीलिए, कोई ताज्जुब नहीं है कि लोहिया पूरी कहानी को गैरदिलचस्प झूठ कहते हैं। लोहिया आजाद के दावे का खोखलापन यह कहकर खोलते हैं कि : इस बैठक में उन्होंने न सिर्फ चुप्पी साधे रखा बल्कि बंटवारे के बाद के भारत में पूरे एक दशक और उससे भी ज्यादा समय तक मंत्री के पद पर बने रहे।

लोहिया लेडी माउंटबेटन की भूमिका का खंडन करते हैं और यह इस हद तक है कि इस तरह के खुलासों से राजनैतिक प्रक्रिया की गहराई में जो कुछ होता है वह ढंक जाता है। इस तरह वे नेहरू की छवि को गलत ढंग से हुए नुकसान का खुलासा करते हैं और साथ ही इस आशय का सुझाव भी देते हैं जो नेहरू को सीधे दोषी होने से आरोपमुक्त भी करता है। लोहिया माउंटबेटन की भूमिका को भी सही स्थान पर रखते हैं।

लोहिया के शब्दों में : नीति निर्माता के रूप में लॉर्ड माउंटबेटन की भूमिका बताने में मौलाना आजाद ने निश्चित रूप से गलती की थी। लॉर्ड माउंटबेटन दरअसल अपने ऊपर वालों द्वारा अपने लिए बनाई गई नीतियों को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए जाने जाते थे। लोहिया द्वारा माउंटबेटन के इस आकलन की पुष्टि प्रोफेसर जिगलर की पुस्तक माउंटबेटन : एन ऑफिशियल बायोग्राफी (1985) में भी की गई है जिसमें लेखक ने यह टिप्पणी की है, “उनके बौद्धिक संसाधन सीमित थे।”

कांग्रेस नेतृत्व की पदलोलुपता और इसके साथ भारत के बंटवारे के कारण के रूप में सांप्रदायिक दंगों के उद्देश्य का वर्णन करने में लोहिया एकदम स्पष्ट हैं। कमजोर होते पुराने नेतृत्व के संबंध लोहिया की राय लियोनार्ड मोसली से नेहरू की बातचीत में भी सामने आती है : सच्चाई यह है कि हम थके हुए लोग थे और हमारी उम्र भी बढ़ रही थी। हममें से कुछ ही लोग दुबारा जेल जाने का खतरा झेल सकते थे और अगर हम, जैसी हमारी इच्छा थी, एकीकृत भारत के लिए अड़े रहते, तो स्पष्ट है कि हमें जेल जाना पड़ता। हमने पंजाब में लगी आग देखी और हर रोज हत्याओं के बारे में सुना। बंटवारे की योजना में इससे निकलने के एक रास्ते की पेशकश थी और हमने इसे स्वीकार किया। हमें उम्मीद थी कि बंटवारा अस्थायी होगा और पाकिस्तान का हमारे पास वापस आना तय है।

पाकिस्तान के वापस आने की आसान योजना को छोड़ भी दें तो क्या बंटवारे की योजना का मतलब उस स्थिति से निकलने का एक रास्ता भर था या पंडित जी ऐसे ही रास्ते की तलाश में थे। हमारे पास नेहरू का ही जवाब है। बहुत पहले 1940 में ही जब पाकिस्तान रिजोल्यूशन पास हुआ था तो नेहरू की प्रतिक्रिया थी : ‘अगर लोग ऐसी चीजें चाहते थे जैसी मुस्लिम लीग ने लाहौर में सुझाई है तो एक बात स्पष्ट थी। वे और उनके जैसे लोग भारत में एक साथ नहीं रह सकते थे। वे इसका पूरा खामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहेंगे पर वे ऐसे लोगों के साथ रहने के लिए तैयार नहीं होंगे।’ (लीडर, 15 अप्रैल 1940)

नेहरू की सोच का यह पहलू गांधीजी के नोआखली के दिनों में स्पष्ट राहत के रूप में सामने आया। नेहरू की इस अलग सोच के बारे में लोहिया ने 10 दिसंबर 1957 के जेल से लिखे अपने पत्र में कहा है : गुस्से में उन्होंने मुझसे यहां तक कहा कि हिन्दू हिन्दू है और मुसलमान मुसलमान। दूसरे शब्दों में, नेहरू जिन्ना के दो देशों के सिद्धांत के लिए योग्य उम्मीदवार थे।

लखनऊ जेल से लिखे 1957 के अपने पत्र में लोहिया कहते हैं, “इसमें कोई शक नहीं है कि जिन्ना की जिद देश को तोड़ने के लिए जिम्मेदार थी। पर इसके साथ श्री नेहरू की मौकापरस्ती और उनका पाखंड भी जिम्मेदार था। 1936 के चुनावों के लिए उन्होंने श्री खालिक जमान से उनके साथ मिलकर वादा किया था। पर जब सफलता उम्मीद से ज्यादा हो गई तो वे अपने वादे से मुकर गए और अपने पुराने मित्र से भी।

इस पुस्तक में लोहिया लिखते हैं : असल में संसदीय और प्रशासनिक भागीदारी का यह सीमित क्षेत्र लोगों को इतना बड़ा नजर आया है कि उनकी नजर खराब हो गई है या कम से कम इतनी बिगड़ गई है कि सुरक्षित सीमा में नहीं है। लोहिया के इस कथन का पूरा महत्त्व जिन्ना के कैरियर के राजनैतिक ट्रैक में आए परिवर्तन से समझा जा सकता है। जिन्ना के शुरू के वर्षों के बारे में गोखले ने कहा था : उनमें सच्ची चीज है। और सभी सांप्रदायिक पूर्वग्रहों से आजादी उन्हें हिन्दू मुस्लिम एकता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि बनाएगी।

यह विडंबना ही है कि चुने गए प्रतिनिधि की किस्मत में पाकिस्तान का निर्माता होना लिखा था। मुस्लिम लीग के भाग्य का फेर और 30 के दशक के उत्तरार्ध में नेहरू की राजनीतिक चालों का नतीजा यह रहा कि मुस्लिम मतदाता भारतीय राष्ट्रवाद से अलग-थलग हो गए और सांप्रदायिक उन्माद की जकड़ में धकेल दिए गए। लोहिया हिन्दू-मुस्लिम संबंध के ऐतिहासिक अनुभव की ओर ध्यान खींचते हैं और इसे नाराजगी व खुशी के उतार-चढ़ाव के रूप में देखते हैं। वे इसे महज दो धार्मिक समूहों की एकता का सवाल नहीं मानेंगे। वे बहुत स्पष्ट रूप से कहते हैं कि इसे आम जनता और नेतृत्व की पहचान होना चाहिए। हालांकि, साथ ही वे इस बात की भी पुष्टि करते हैं कि नाराजगी बंटवारे का मूल कारण है। चूंकि बंटवारा सिर्फ प्रभाव है इसलिए लोहिया अपने-आप हल निकलने के आसान नजरिए को नहीं मानते हैं। यह कटुता को अपने आप खत्म नहीं कर सकता है। वे इस तथ्य पर चिन्ता जताते हैं कि हिन्दुओं से मुसलमानों की नाराजगी स्वतंत्रता के समय से चली आ रही है।

अलगाववादी प्रवृत्ति पर हमला करने के लिए गांधी जी ने सुझाव दिया था कि मुस्लिम लीग भारत सरकार पर काबिज हो जाए। यह सुझाव न तो अव्यावहारिक था और न ही आलंकारिक। यह कमजोर होते कांग्रेस नेतृत्व को पसंद नहीं था। इससे लोहिया अपनी इस राय का सबूत पाएंगे कि उद्देश्यपूर्ण और ज्यादा युवा लोग देश को बंटवारे की त्रासदी से बचा सकते थे। लोगों को चाहिए कि जनता की कार्रवाई और सोच में परिवर्तन लाने के लिए काम करें। यह एक महत्त्वपूर्ण संदेश है जो “भारत के बंटवारे के दोषी” में दिया गया है।

लोहिया ने कार्रवाई के गांधी जी के तरीके से इस बात को अलग कर दिया है कि क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए काम करने वालों को तत्काल परिणाम को ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए। और विश्वास के बल पर लंबे संघर्ष के लिए तैयार रहना चाहिए। यहां यह उल्लेखनीय है कि लोहिया ने गांधी जी के काम के तरीके की वैधता पर भी विचार किया है। वे हमें यह याद दिलाते हैं कि अहिंसा या गांधीजी के नेतृत्व पर वे कोई प्रतिकूल निर्णय नहीं सुनाना चाहते हैं।

पुस्तक के समापन खंड में सामाजिक पूछताछ के छात्रों के लिए दो दिलचस्प बिन्दु उठाए गए हैं। इनमें एक है, किसी एक चरण के इतिहास के अध्ययन में प्रक्रिया पर ध्यान दिया जाना चाहिए सिर्फ परिणाम पर नहीं। दूसरे, लोहिया कहते हैं कि समाज का सच्चा विज्ञान क्रांतिवाद से जुड़ा हुआ है। ऐतिहासिक पड़ताल का मकसद हमारे सामूहिक प्रयास के प्रति वृहत्तर जागरूकता लाना है। इसीलिए, “भारत के बंटवारे के दोषी” में लोहिया का अध्ययन शिकायत करने के नजरिए से नहीं है। इसका उद्देश्य मुख्यरूप से भारत के लोगों को पूर्वप्रभावी विश्लेषण के आधार पर आत्मनिरीक्षण का मौका देना है।

इतिहास के किसी खास चरण का अगर करीबी से विश्लेषण किया जाए तो व्यक्तित्व के संदर्भ से बचा नहीं जा सकता है। संयोग से इस समकालीन इतिहास के स्कोप में हमारा सामना नेहरू से लोहिया की नाराजगी से हो रहा है। लोहिया के ज्यादातर विरोधी अक्सर यह सपाट सी टिप्पणी कर देते हैं कि लोहिया नेहरू विरोधी थे। इस पुस्तक से ऐसे लोग 1942 से लेकर दंगाग्रस्त दिल्ली में गांधी जी के नेतृत्व में लोहिया द्वारा आयोजित बैठक के बारे में जानेंगे जिसमें नेहरू लोहिया के साथ आरोप-प्रत्यारोप में उलझ गए खासकर खुद को महासचिव बनाने का नेहरू का प्रस्ताव और इस संबंध में हुई चर्चा का संदर्भ लोकतंत्र के सिद्धांतों क संदर्भ में दोनों लोगों की विविध स्थितियों का खुलासा करता है।

लोहिया यह सुझाव देते हैं कि भारत के इतिहास में हिन्दू मुस्लिम चर्चा के 800 वर्षों को निष्पक्ष रूप से समझने के लिए एक तटस्थ तरीका अपनाया जाए। देसी शासकों की हर बार होने वाली हार, वे चाहे हिन्दू या मुस्लिम – के संदर्भ में भारतीय जाति प्रणाली की महत्ता पर उनके विचार काफी कुछ सोचने के लिए प्रेरित करते हैं और नए सिरे से अध्ययन के लिए भी मजबूर भी करते हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि आपके हाथ में यह पुस्तक भारतीय इतिहास के एक अहम चरण का मूल्यवान संदर्भ है।”

कुल मिलाकर मामला यह नहीं हो सकता है कि, “नेहरू ने अपने लिए भारत बना लिया और जिन्ना को पाकिस्तान दे दिया।” हालांकि, बहुमत मिलने की मनमानी के मुकाबले अंग्रेजों से आजादी दिलाने वाले के अधिकार पर भी बात हो सकती है पर अब तो वह पुराना मामला हो गया है। यह तो समझने की बात है कि उस समय की स्थितियों में और क्या विकल्प थे या हो सकते हैं। पर इतिहास लिखने वालों को दोषी ठहराने वाले हावर्ड विरोधियों का हार्डवर्क इससे अलग क्या हो सकता है। ऐसे में इसे इतिहास को भ्रष्ट करने वाले दौर में एक बौद्धिक सत्याग्रह ही मानें।

 

संजय कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं। इस लेख में दर्ज भूमिका का अनुवाद उन्होंने सीधे अंग्रेज़ी किताब से किया है।

 

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