हम गाँधी को क्यों याद करें?

सर्व प्रथम यह सपष्ट कर दूँ, मैं गांधीवादी या गाँधी अनुयायी नहीं हूँ। पचास साल पहले जब थोड़ी बहुत राजनीतिक या विचारधारात्मक चेतना मुझमें आयी थी तब मैंने महात्मा गांधी के विचारों और कार्यशैली की आलोचना की थी। तब मैंने समझा था कि गाँधी जी पूंजीवाद के एक ईमानदार पक्षधर या नेता हैं। मार्क्सवादी नेता नम्बूदरिपाद ने भी कुछ ऐसा ही कहा था। उन्हें बुर्जुआज़ी व अंग्रेज़ों का हमदर्द समझा जाता था। वह दौर था चरम वामपंथवाद का। उसी दौर की पैदाइश है नक्सलवाद। ज़ाहिर है, इस विचारधारा से प्रभावित था भारतीय किशोर-युवा मन। मैं भी अपवाद कैसे हो सकता था? पिछले पांच दशकों के अनुभवों के आधार पर मैं गाँधी जी को समझने की कोशिश में हूँ। किसी अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा हूँ। इस आलेख की यही सीमा है।

इन पांच दशकों में गंगा- यमुना- गोदावरी- साबरमती नदियों में काफी पानी बह चुका है। परिवर्तन-विमर्शों का जल प्लावन हो चुका है। तब वैज्ञानिक मानस से लैस प्रत्येक व्यक्ति से तकाज़ा है कि बीसवीं सदी के इस महान योद्धा पर पुनर्दृष्टि की जाए। हालांकि, किसी एक लेख या पुस्तक के पोखर में महासागर को समेटना सूर्य-विजय के समान है। फिर भी, एक किंचित प्रयास तो किया जा सकता है। वैसे गाँधी जी की जीवन यात्रा कभी भी निरापद नहीं रही। यहाँ तक कि उनके जीवन का हिंसात्मक पटाक्षेप भी। यदि गाँधी जी एक व्यक्ति, समाजसुधारक, राजनेता या क्रांतिकारी रहे होते तो उनकी कर्म-यात्रा पर दृष्टिपात करना सहज-सरल रहा होता। लेकिन उनकी यात्रा आरम्भ से अंत तक बेहद जटिल, उतार-चढ़ावों से ग्रस्त, सत्य के साथ निरंतर नए नए प्रयोग और अपने विरोधियों के विरुद्ध अथक अहिंसा-सहिषुणता के शस्त्रों के इस्तेमाल से और अधिक पेचीदा बन गयी है। वे एक मौसम के भी हैं, और सभी मौसमों के भी प्रतिनिधि हैं; जहाँ वे स्वच्छता की बात करते हैं, चरखा चलाते हैं, नमक बनाते हैं, वहीं वे ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो’ का नारा भी देते हैं। किसी एक सांचे, वर्ग या विचारधारा में क़ैद नहीं किया जा सकता है। सारांश में, सरहद मुक्त मानव हैं गाँधी जी।

आज हम महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती मना रहे हैं। ऐसे समय उनकी विवेचनात्मक प्रासंगिकता को समझना और भी ज़रूरी है। आज ‘अतिवादियों’ का ज़माना है; चरम भौतिकवाद, पूंजीवाद, उपभोगवाद, व्यक्तिवाद, आत्ममोहग्रस्ततावाद, असहिषुणतावाद, कट्टरतावाद, ध्रुवीकरण, उग्र राष्ट्रवाद-युद्धोन्मादवाद जैसी प्रवृतियां चारों तरफ फैली हुयी हैं। भारत ही नहीं, पूरा विश्व इसकी चपेट में है। जनवरी 1948 में उनके हिंसात्मक अंत से लेकर अक्टूबर 2019 तक नेताओं और आमजन की चार-पांच पीढ़ियां आईं और जा चुकी हैं; जब उनकी मृत्यु हुई थी तब स्वतंत्रता संग्राम के मूल्य, नैतिकता और राज्य का कल्याणकारी चरित्र जीवित था; मिश्रित अर्थव्यवस्था थी; विषमतामुक्त भारत के नवनिर्माण का विराट स्वप्न था; संवेदनशीलता का वातावरण था और युवा पीढ़ी कुछ करना चाहती थी।

आज 21वीं सदी की बयार दूसरी है। इस समय की समकालीन पीढ़ी हाई-टेक है। उसकी महत्वाकांक्षाएं आसमान को छू रही हैं। अब भारत का ज्ञान-विज्ञान अंतरिक्ष में प्रवेश कर चुका है। अगले दो-तीन सालों में किसी भारतीय को चाँद की ज़मीन पर उतारने की हमारी तैयारी है। अब भारत का स्वप्न ‘विश्व की महाशक्ति’ बनने का है। दूसरे शब्दों में भारत के राष्ट्र राज्य को सुदृढ़ से सुदृढ़तम बना देना चाहते हैं। अतः सपनों के इस मायाजाल में वर्तमान पीढ़ी बापू को क्यों याद करे? क्यों याद करे गांधीजी के ‘राज्यहीन’ समाज को; क्यों याद करना चाहिए ‘अंतिम जन’ को? गाँधीजी मंथर गति के पक्षधर थे, आज का भारत ‘बुलेट रफ़्तार’ का है। गाँधी जी मशीनीकरण या मशीनों पर निर्भरता के विरुद्ध थे, आज का समय है ‘आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस’ या रोबोट का। अब अति विकसित राष्ट्रों में ‘मशीन का आदमी’ (रोबोट) के निर्माण की प्रतिस्पर्द्धा मची हुयी है, जबकि गाँधी जी मशीनों पर मनुष्यों के नियंत्रण के हिमायती थे। मनुष्य द्वारा निर्मित मशीन की स्वायत्ता के पक्षधर नहीं थे, लेकिन अब मशीन की स्वायत्ता या सम्प्रभुता ही सब कुछ है। अर्थात ‘मशीन का आदमी बनाम आदमी की मशीन’ की जंग छिड़ी हुयी है। इस जंग को गांधी जी किस तरह से लेते, इसे समझना इतना सरल नहीं है।

ऐसा नहीं है, गाँधी जी के जीवनकाल में उनके साथ असहमतियां नहीं थीं। उद्योगीकरण व पश्चिमीकरण को लेकर गाँधी और नेहरू के बीच मतभेद जगज़ाहिर हैं। यहाँ तक की सामजिक सुधार के मामले में वे काफी संयमित थे; जातिप्रथा के तीव्र समूल नाश के पक्षधर नहीं थे, बाबा साहब आंबेडकर के साथ उनका विवाद व समझौता भी जगजाहिर है; सामंती ज़मींदारों या सामंती शक्तियों के विरुद्ध कार्रवाई के प्रति संकोची थे, यही दृष्टि पूंजीपतियों के मामले में थी; श्रमिक यूनियनों के प्रति भी बहुत उदार नहीं थे; सैन्य विद्रोह के पक्ष में भी नहीं थे इसलिए उन्होंने विद्रोही सैनिक चंदन सिंह गढ़वाली को भी प्रोत्साहित नहीं किया और न ही 1946 में मुंबई में नेवल विद्रोह का समर्थन किया और न ही सशस्त्र क्रांतिकारियों ( भगतसिंह,चंद्रशेखर आदि) की गतिविधियों का समर्थन किया, सुभाषचंद्र बोस के साथ उनके मतभेदों से सभी परिचित हैं। वे शुद्ध अहिंसावादी थे इसलिए उन्होंने साम्यवादी क्रांतिकारियों ( एम्.एन , रॉय, डांगे, पीसी.जोशी, मुज़फ्फर अहमद , राजेश्वर राव , रणदिवे आदि) का कभी समर्थन नहीं किया।

वे मुसलमानों के प्रति नरम रहे। मुस्लिम नेताओं के साथ मिलकर ‘खिलाफत आंदोलन’ से जुड़े, जबकि मोहम्मद अली जिन्ना इसके खिलाफ थे। गाँधी जी ने राजनीति में धर्म का इस्तेमाल किया जबकि कांग्रेस के अन्य नेता इसके पक्ष में नहीं थे। गांधीजी को भारत विभाजन के लिए भी ज़िम्मेदार माना जाता है। एक दफा उन्होंने घोषणा की थी कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा, लेकिन वे अपने परम शिष्यों ( नेहरू व पटेल ) को अपनी बात मनवाने में असफल रहे। किसी ने उनकी एक नहीं सुनी और 1947 में देश का विभाजन हो गया। कातर दृष्टि से बापू विभाजन और तद्जनित विभीषिका को देखते रह गए। कोलकोता में उनका आमरण अनशन और नौआखाली आंदोलन की तपस्या निर्थक रही। उन पर अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण के आरोप जड़े जाते रहे जिसकी कीमत उन्हें अपने प्राणों की आहुति से चुकानी पड़ी।

गाँधी जी पर अधिनायकवादी, ज़िद्दी, अराजकतावादी, पाखंडी, दकियानूसी होने के आरोप भी मढ़े जाते रहे; बुनियादी मतभेद होने के कारण सुभाष बाबू को कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं बनने दिया; 1942 में चौरी चोरा में हिंसा के गाँधीजी ने अपना असहयोग आंदोलन वापस ले लिया जिसका तत्कालीन क्रांतिकारियों ने कड़ा विरोध किया; गाँधी जी के इस फैसले की वजह से कांग्रेस में विभाजन भी हो गया- नरम दल और गरम दल ( या उदारपंथी और अनुदारपंथी ) बन गए। कई ऐसे उदाहरण जिनसे उनकी हठधर्मिता जाहिर होती है। उन पर व्यंग्य भी कैसे जाते हैं; मज़बूरी का नाम महात्मा गाँधी, कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा भी सामने कर दो, लेकिन हिंसा से उसका प्रतिवाद न करो; गाँधी जी बुजदिल- कायर- पराजित योद्धा थे। अतः बापू को आज की बुलेट गतिमान पीढ़ी क्यों स्वीकार करे? इस पीढ़ी का आइकॉन वही हो सकता है जो हथेली पर सरसों लहलहाने और पल में अंतरिक्ष को नापने का चमत्कार दिखाने की क्षमता रखता हो। सारांश में, वर्तमान आख्यान के नायक- महानायक की परिभाषा पूरी तरह से बदल चुकी है। महात्मा गांधी पूर्व और आरम्भिक औद्योगिक काल के महानायकों में से थे, अब ज़माना है उत्तर औद्योगिक व आधुनिक कालों का जिसमें उत्तर सत्य राजनीति का वर्चस्व है यानी सत्य का असत्य, असत्य का सत्य में सुविधापूर्वक रूपांतरण ! इस फ्रेम में गाँधीजी कभी फिट नहीं हो सकेंगे।

( दो )

जब यह फ्रेम गाँधी जी के लिए है ही नहीं तब क्यों उनकी प्रासंगिकता पर चिंतन किया जाए। ऐसा चिंतन फिजूल की क़वायद ही होगी। यह सही है, कोई भी नायक-महानायक, चितंन, विचारधारा और क्रिया समय-समाज सापेक्ष होते हैं। इन्हें भौतिक विकास अवस्था के संदर्भों से काट कर नहीं देखा जा सकता। यदि ऐसा किया जाता है तो अवैज्ञानिक दृष्टि होगी। मनुष्य के भौतिक कृत्यों पर सापेक्षता का सिद्धाँत लागू होता है। मैं यहाँ आध्यात्मिक कृत्यों की बात नहीं कर रहा हूँ जिसके लिए मैं सक्षम नहीं हूँ। यहाँ मैं इतना स्पष्ट कर देना चाहता हूँ सापेक्षता के सम्बन्ध में यांत्रिक दृष्टि भी नहीं अपनाई जानी चाहिए क्योंकि यह रूढ़िवादिता होगी। सापेक्षता की परिधि में ही परिवर्तन व निरंतरता के धाराएं बहती रहती हैं। इस प्रक्रिया में ठहराव भी आता है और अनुभवजन्य सत्य शामिल होता है तो ठहराव विखडिंत होकर आगे भी बढ़ता है। परिस्थितियों- घटनाओं के साथ मुठभेड़ों से जन्मे सत्य निरंतरता व परिवर्तन को एक नयी गति प्रदान करते हैं। अनुभव व सत्यों के एक नया पुंज का निर्माण होता है जिसके प्रकाश में अपने कर्मपथ पर पथिक आगे बढ़ता है।

इस कर्मपथ के परिप्रेक्ष्य में मैं गांधीजी के साथ मित्रता करना चाहता हूँ। यदि महात्मा में ठहराव रहा होता तब वे कभी के ही अप्रासंगिक हो गए होते! आज भी भारत में गांधी जी को लेकर सबसे अधिक साहित्य, नाटक, विश्लेषणात्मक पुस्कतें, फ़िल्में आदि का सृजन क्यों हो रहा है? क्यों ‘लगे रहो मुन्ना भाई’, ‘मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस’, ‘हे राम’, ‘महात्मा’ जैसी फ़िल्में बनाई जा रही हैं? इन फिल्मों ने युवा मानस को उतना ही आकर्षित किया था जितना मेरी उम्र के लोगों को। हमारे देश में ही नहीं, विश्व भर उनकी उपस्थिति को देखा जा सकता है। यह लेखक अनेक देशों की यात्रायें कर चुका है। गांधी जी की उपस्थिति सर्वत्र मिली। कुछ समय पहले न्यूयॉर्क में एक अश्वेत महिला के यहाँ रुकने का मौक़ा मिला था। मैंने देखा उनके ड्राइंग रूम और बेड रूम में गांधी-उपदेश दीवारों से झूल रहे थे। बोस्टन के एक सितारा अस्पताल में श्वेत नर्स गांधीजी के सम्बन्ध में श्रद्धाभाव से काफी देर बात करती रही। इसे सुनकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। कुछ तो है जिससे गांधीजी की चरम भौतिक समृद्धि के महासागर में भी हस्ती मिट्टी नहीं है।

वास्तव में नायक- महानायक को किसी एक काल का बंदी नहीं बनाया जा सकता। यही चिंतन व विचारधारा के सम्बन्ध में सत्य है। यह सही है, नायक- महानायक स्वयं में परिपूर्ण नहीं होते हैं। उनमें कमियां रहती हैं तभी वे अपने समाज को संवेदनशीलता के साथ समझ सकते हैं। उसके सुख-दुःख को महसूस कर सकते हैं। यदि हमारे नायक- महानायक निरापद रहते तो वे ईश्वर बन जाते, देवता बन जाते। यह सही है, हम उनमें ‘देवत्व’ का भाव देखना चाहते हैं। स्वयं से अलग व ऊपर देखना चाहते हैं। गाँधी जी के प्रति भी हमारी यही दृष्टि रहती है। मूल प्रश्न यह है कि वे कितना समय सापेक्ष और वर्तमान में भविष्य का कितना व कैसे प्रतिनिधत्व करते हैं ?

मैं जितना समझ पाया हूँ, गाँधी के जीवन का सबसे सशक्त आयाम है उनका जीवन पर्यन्त ‘प्रयोगधर्मी’ बने रहना। यह तभी सम्भव है जब आप स्वयं का नित नया सृजन ‘इंवेंट’ करते रहें। स्वयं का आविष्कार और पुनराविष्कार की प्रक्रिया काफी दुरूह व चुनौतीपूर्ण रहती है। इस प्रक्रिया से गुजरना तभी संभव है जब आप यथास्थितिवाद से मुक्त रहें, स्वयं में कल + आज + कल का संगम देखें। शायद इसीलिए गांधी जी ने अपने किसी अनुभव व सत्य को अंतिम नहीं माना है क्योंकि प्रत्येक चुनौती ने एक नए सत्य का सृजन किया है। उदाहरण के लिए एक कट्टर वैष्णवी परिवार में जन्म और मानस का निर्माण; लेकिन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये जो पीर पराई जाणे रे’ में नई परिभाषा खोजी और आत्मसात किया सभी धर्म-समुदायों को; धर्म का अर्थ विस्तार व परिवर्तनकामी बनाना; हिन्दू अस्मिता का सार्विक धर्मनिरपेक्षता में रूपांतरण- अल्लाह- ईश्वर तेरो नाम। संक्षेप में, देश की दासता से मुक्ति के विराट स्वपन के ध्येय की प्राप्ति के लिए धर्म एक साधन रहा, न कि साध्य। धर्म का एक नया रूप सामने आता है। गाँधी जी में भारतीय ईथोस रचा- बसा था। वे जानते थे कि भारत की मुख्यधारा (जिसकी संरचना मूलतः सवर्ण) मानी जाती है, कभी भी अखिल भारतीय स्तर पर विद्रोह या क्रांति नहीं करेगा। दूसरे शब्दों में फ्रांस और रूस की क्रांति भारत में नहीं हो सकती है। यहाँ तक की अंग्रेजों के खिलाफ 1857 का स्वतंत्रता (या विद्रोह) तब हुआ जब सैनिकों के धार्मिक संस्कार जागृत हुए। चर्बी चढ़ी कारतूसों को वे अपने दाँतों से काट कर खोल रहे हैं, इतना मालूम होते ही सिपाही भड़क उठे और कोलकता से लेकर दिल्ली तक बगावत फ़ैल गयी।

बीती सदियों में ज्यादतर हिंसात्मक विद्रोह जनजातियों और पिछड़े वर्ग के किसानों द्वारा किये जाते रहे हैं। यहाँ तक कि मध्यकाल का ‘विद्रोही’ भक्ति आंदोलन (रविदास, कबीर आदि) में पिछड़ी जातियों के संत कवि शामिल थे। ऊंची जातियों के संत- कवि दरबार भक्ति या श्रृंगार भक्ति (बिहारी, केशव, घनानंद आदि) में लीन थे। दबी-कुचली जातियों में ही प्रतिरोध की चेतना थी। इस यथार्थ से महात्मा परिचित थे। धर्म और उसके सांस्कृतिक संस्कारों के माध्यम से ही भारतीय जनता में आज़ादी और आत्म-स्वाभिमान का अलख जगाया जा सकता है। मेरे कई मित्र इससे असहमत हो सकते हैं। उन्हें होना भी चाहिए। लेकिन याद रखें, बोल्शेविक क्रांति के सूत्रधार लेनिन ने स्वयं भारतीय नेता एम.एन . रॉय को सलाह दी थी कि वे गांधी का सहयोग करें क्योंकि भारतीय जनता उनके साथ है। बेशक, उस समय तक राष्ट्रीय औपनिवेशिक विरोधी आंदोलन के अग्रज नेता बन चुके थे महात्मा गाँधी। कह सकते हैं, टैक्टिकल दृष्टि से गाँधी ने धर्म और प्रतीकों- रूपकों और साहित्य का इस्तेमाल किया। इसके अनुकूल परिणाम भी निकले; किसान, निम्नमध्य वर्ग, मध्य वर्ग और अभिजात वर्ग सक्रीय हो उठे और उनके नेतृत्व में सड़कों पर उतरे व जेलें भरीं।

आलोचक, गांधीजी को अंगेज़ों का एजेंट भी कहते हैं। यहीं मैं कहना चाहता हूँ जिस व्यक्ति ने दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों की सेना में भर्ती करवाई थी (बोर युद्ध) और रानी के साम्राज्य की रक्षा के लिए सक्रिय हुए थे, उसी मोहनदास करमचंद गांधी नामक व्यक्ति ने 15 वर्ष बाद भारत से अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ने का आंदोलन भी चलाया, सत्याग्रह किया, जेल गए और अंततः कामयाब भी हुए। हालांकि, इसकी कीमत अंतहीन त्रासदी में आज तक चुकाई जा रही है। यह भी सही है कि व्यक्ति या इंसान के रूप में वे अंग्रेजो के खिलाफ नहीं थे, उनके शासन और जुल्मों सितम के खिलाफ थे। क्या यह सही नहीं कि उन्होंने अंग्रेजी वस्त्रों का बहिष्कार किया। देश में होली जलाई गयी। अभिजात वर्ग केलोग भी इसमें शामिल थे।

यदि वे कट्टर जातिवादी रहे होते तो अपने पुत्र का विवाह अंतर्जातीय- अंतर राज्यीय नहीं करते। यह सही है कि जातियों के श्रेणीतंत्र को वे नहीं तोड़ सके। बाबा साहब अम्बेडकर ने इसकी आलोचना भी की है। जातिप्रथा का विनाश जिस स्तर पर होना चाहिए था, आज तक नहीं हो सका है। बल्कि उसके नए नए संस्करण सामने आ रहे हैं। अपना वर्चस्व फिर से स्थापित करने के लिए ऊंची जातियां पुनः सक्रिय हो गयी हैं। लेकिन गाँधी ने जाति व्यवस्था में परिवर्तन का प्रयास नहीं किया था, यह कहना गलत होगा। क्या वे हरिजन बस्तियों में नहीं रहे? क्या हरिजनों में चेतना जगाने और राष्ट्रीय आंदोलन के साथ जोड़ने का प्रयास नहीं किया था? क्या गाँधी जी की सिफारिश पर ही उनके कट्टर विरोधी डॉ.आंबेडकर को संविधान की प्रारूप समिति (ड्राफ्टिंग समिति) का अध्यक्ष नहीं बनाया गया था, जिसकी वजह से आज उन्हें भारतीय संविधान के पिता के रूप में जाना जाता है। आदिवासियों की भूमिका के प्रति भी गाँधी जी उतने ही सचेत थे। आदिवासी नेता ठक्कर बापा उनके अनुयाई रहे। गाँधी जी ने उनके माध्यम से आदिवासियों में आज़ादी का शंख बजाने की कोशिश भी की।

( तीन )

यदि मैं मार्क्सवादी भाषा में कहूँ तो उस समय का मुख्य अंतर्विरोध था साम्राज़्यवाद और उसकी दासता से आज़ादी। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के मध्य तक यह अंतर्विरोध प्रमुख बना रहा। गांधी जी अपनी दृष्टि, आस्था और सिद्धांत से मार्गदर्शित हो कर इस मुख्य अंतर्विरोध का समाधान करना चाहते थे, और वो भी अहिंसा के माध्यम से। यद्यपि कई और प्रकार के भी अंतर्विरोध थे, जिन पर यहाँ चर्चा करना उचित नहीं होगा क्योंकि वे इस आलेख के दायरे से बाहर हैं। अलबत्ता मुख्य अंतर्विरोध के समाधान के तरीके पर चर्चा ज़रूर हो सकती है। इस अंतर्विरोध का समाधान वामपंथी व दूसरे क्रांतिकारी (बिस्मिल, अशफ़ाक़, भगतसिंह, चंद्रशेखर, सुभाषचंद्र बोस, खुदीराम बोस सहित अन्य सशस्त्र स्वतंत्रता सेनानी) बलपूर्वक करना चाहते थे, वहीँ गाँधीजी अहिंसात्मक लड़ाई के माध्यम से इसके समाधान की कोशिश में थे। आलोचकों की दृष्टि में गाँधी जी ने समाधान नहीं किया, बल्कि इसका ‘डी फ्यूज़न’ किया। वर्ग सहयोग किया; 15 अगस्त 1947 को सत्ता का हस्तांतरण किया गया था, न कि सच्ची आज़ादी मिली थी क्योंकि राज्य शासन का चरित्र यथावत रहा। यह भी एक नज़रिया है, लेकिन राजनीतिक यथार्थ यह है कि भारत आज एक संप्रभूता संपन्न राष्ट्र राज्य है, इसका अपना संविधान और संसद है।

साम्यवादियों और समाजवादियों के साथ परिवर्तन की प्रक्रिया पर अपने मतभेदों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की थी, “… मैं पक्का कम्युनिस्ट होने का दावा करता हूँ। अगरचे मैं धनवानों द्वारा दी गयी मोटरों या दूसरे सुभीतों से फायदा उठाता हूँ, मगर मैं उनके वश में नहीं हूँ। अगर आम जनता के हितों का वैसा तकाज़ा हुआ, तो बात की बात मैं उनको अपने से दूर हटा सकता हूँ।” इससे पहले गाँधी जी ने यह भी कहा था,“रूस का समाजवाद यानी जनता पर जबरदस्ती लादा जानेवाला साम्यवाद भारत को रुचेगा नहीं; भारत की प्रकृति के साथ उसका मेल बैठ नहीं बैठ सकता है। हाँ, यदि साम्यवाद बिना किसी हिंसा के आये तो हम उसका स्वागत करेंगे।” (मेरे सपनों का भारत , पृष्ठ 29 ) जैसा कि मैंने आरम्भ में कह दिया था कि भारतीय ईथोस या ‘प्रकृति’ मूलतः ‘मध्यममार्गी ‘ है, चरमवादी या पंथी नहीं है। सम्राट अशोक कलिंग विजय में हज़ारों लोगों का रक्त बहाने के पश्चात अपने राज्य में पशु-पक्षी की हत्या पर ही प्रतिबंध लगा देते हैं, अहिंसा को परमोधर्म के रूप में देखते हैं, भारत की मूल प्रकृति यह है। ‘दूध के उफान के समान’ है भारतीय मानस; इस देश में न चरम दक्षिण पंथ और न ही चरम वामपंथ लम्बे समय तक टिका रहा, भले ही इनको तात्कालिक सफलता मिल जाए !

ऐसा लगता है, यदि गांधीजी कुछ और वर्ष जीवित रहते तो देश की गरीबी व विषमता विनाश करने के लिए अपनी तमाम सुख- सुविधा को त्याग कर सड़कों पर उतरते और धनिकवर्गों के विरुद्ध खड़े हो जाते। नेहरू सरकार क्या कहेगी, इसकी परवाह नहीं करते। गाँधी जी की भविष्यवाणी कितनी सटीक निकली। उन्होंने 15 नवंबर 1928 में कहा था “…बोल्शेविक शासन अपने मौजूदा रूप में ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकता। मेरा दृढ़ विश्वास है कि हिंसा की नींव पर किसी भी स्थायी रचना का निर्माण नहीं हो सकता। लेकिन, वह जो भी हो, इसमें कोई संदेह नहीं कि बोल्शेविक आदर्श के पीछे असंख्य पुरुषों-स्त्रियों के- जिन्होंने उसकी सिद्धि के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है- शुद्धतम त्याग का बल है; और एक ऐसा आदर्श है, जिसके पीछे लेनिन जैसे महापुरुषों के त्याग का बल है, कभी व्यर्थ नहीं जा सकता” ( मेरे सपनों का भारत , पृष्ठ 29 )

इसलिए मेरे मत से महात्मा गाँधी को सतही ढंग से खारिज करना अवैज्ञानिकता होगी, पूर्वाग्रहग्रस्त दृष्टि होगी। गांधीजी के विराट व्यक्तित्व को इसकी सम्पूर्णता में देखना होगा, न कि इसके विखंडन में। मानवता के एक विराट फ्रेम में देखने की ज़रूरत है। राजनीति के दार्शनिक गांधी जी को अराजकतावादी मानते हैं। जहाँ कार्ल मार्क्स वर्गहीन समाज के बात करते हैं वहीं गांधीजी राज्य मुक्त समाज की बात करते हैं। दूसरे शब्दों में मनुष्य इतना उन्नत अवस्था में पहुँच जाए जहां उसे किसी नियंत्रण- नियमन की ज़रूर ही महसूस न हो। वर्ग समाज और राज्यहीन समाज, दोनों ही यूटोपिया हैं। इस समय तो। यह तभी सम्भव है जब समाज में सभी प्रकार के अंतर्विरोध समाप्त हो जाएँ या उनका वैज्ञानिक ढंग से समाधान कर दिया जाए और पूँजी की सत्ता मनुष्य पर काबिज़ न रहे। गाँधी जी ने अपने जीवन काल में ‘ट्रस्टीशिप’ की अवधारणा को सामने रखा था जोकि सफल नहीं हो सकी थी। कोई भी अपनी सम्पति को आसानी त्यागने के लिए तैयार नहीं है। भूदान आंदोलन के परिणाम से हम सभी परिचित हैं। इसलिए अंतर्विरोधों का समाधान या विखंडन राज्य के चरित्र पर ही निर्भर करता है। लेकिन जनबल के सामने राज्य बल व धनबलों को भी झुकते देखा है। गाँधी जी के इसी जनबल को पुनर्जीवित व सक्रिय करने की ज़रूरत है। इतिहास गवाह है, इसी जनबल के बल पर उन्होंने अंग्रज़ी साम्राज्य को झुकाया था। सवाल नेतृत्व का है।

( चार )

महात्मा को सिर्फ बीती सदी तक ही सीमित करना, उनके साथ न्याय करना नहीं होगा। यह सही है, उनका कर्म- रंगमंच 19वीं और 20 वीं सदी रही हैं। लेकिन वे किसी राष्ट्र या भू-भाग या नस्ल के बारे में तो स्वयं को सीमित नहीं रखते हैं। उनकी प्रासंगिकता कल-आज-कल के फलक पर समानरूप से फैली हुयी है। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि गांधी जी ने सिर्फ राजनीतिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक पक्षों को ही नहीं छुआ है बल्कि मानवता के सम्पूर्ण कर्म- ब्रह्माण्ड को अपनी दृष्टि में समेटा है। सर्वप्रथम, जब वे मशीन के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हैं तो वे इसका समूल नाश या तिरस्कार के पक्ष में नहीं हैं। मानव और मशीन के पारस्परिक सम्बन्ध और अवलंबन को किस प्रकार से परिभाषित किया जाए, इसे लेकर चिंतित रहे हैं। यदि आवश्यकता से आधी प्रयोग व निर्भरता से प्रकारांतर से मानव के अस्तित्व के लिए ही संकट पैदा हो जायेगा। गाँधी जी कहते हैं, “मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करने का नहीं है, बल्कि उनकी हद बाँधने का है।” ‘हद बाँधने का है’ में मानव- मशीन के पारस्परिक संबंधों को लेकर उनका दर्शन निहित है। ( हिन्द स्वराज्य ,पृष्ठ 14 ) इससे पहले वे कह चुके हैं कि “आज तो करोड़ों की गरदन पर कुछ लोगों के सवार हो जाने में यंत्र मददगार हो रहे हैं। यंत्रों के उपयोग के पीछे जो प्रेरक कारण हैं, वह श्रम की बचत नहीं है, बल्कि धन का लोभ है। आज की इस चालू अर्थव्यवस्था के खिलाफ मैं अपनी ताक़त लगा कर युद्ध चला रहा हूँ।” ( हिन्द स्वराज्य, पृष्ठ 14 )

21 वीं सदी आर्टिफिसियल इंटेलिजेन्स (कृत्रिम बुद्धि ) की सदी है। हालांकि, बीती सदी में ही ऑटोमेशन का युग शुरू हो चुका था। कंप्यूटर आ चुका था। ऑटोमेशन के कारण श्रमिक बेकार भी हुए थे, छटनियाँ की गयीं थीं। लेकिन आई. इन (आर्टिफीसियल इंटेलिजेन्स) ने तो आज ज्ञान, सूचना, श्रम, पूँजी और भविष्य के समूचे सन्दर्भ को ही बदल दिया है; रोबोट- सेना का निर्माण किया जा रहा है; रोबोट ऑपरेशन- सर्जेरी कर रहा है; टेलीविज़न पर समाचार वाचक बना हुआ है; अब चालक विहीन कार- मेट्रों चलने वाली हैं; आई इन से निर्मित उत्पादों को इस सदी के ‘रोबोट जिन्न’ कहा जा सकता है। अब रोबोट या इस जिन्न में संवेदनशीलता को पैदा करने के प्रयोग ज़ारी हैं। इसमें मनुष्य के नव रसों का भी समान रूप से संचार हो सके, वैज्ञानिक इसकी खोज में सक्रिय हैं। यदि रोबोट समांतर मानव का रूप ले लेता है तो रक्त -मांस या पांच तत्व से बने मूल मनुष्य की ज़रूरत ही नहीं रह जायेगी। मानव द्वारा निर्मित मशीन ही अपने मूल निर्माता को अपदस्थ कर देगी। मनुष्य का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। इसके साथ ही सृष्टि पर ही सवालिया निशान लग जाएगा। यहाँ मैं ईश्वर की बात नहीं कर रहा हूँ। वह तो बहुत पहले ही सवालों के घेरे में हैं। मैं दृश्यमान सृष्टि की बात कर रहा हूँ। यदि आई.इन से ही मनुष्य जन्म लेने लगेंगे तो स्त्री- पुरुष के सम्बन्ध भी बदलेंगे। राज्य का चरित्र बदलेगा। शासन शैली में परिवर्तन होगा। एक नितांत नए प्रकार के ‘राजनीतिक आर्थिकी’ को गढ़ा जाएगा। तब यह सवाल उठेगा ‘हमें मानव चाहिए या नहीं ?

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 


 

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