राफेल सौदे पर ‘उड़ते झूठ’: अनुत्तरित सवाल और सरकारी झूठ!

राफेल सौदे पर रवि नायर और परंजय गुहा ठकुराता की किताब, ‘फ्लाइंग लाईज?’ – बहुत मेहनत कर लिखी गई है और इसमें सौदे के सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। भारतीय वायु सेना की जरूरत और उसकी मांग से संबंधित जानकारी देने वाले पहले अध्याय का नाम है, ‘क्लियरिंग फॉर टेकऑफ’ यानी उड़ान के लिए क्लियरिंग। इसमें बताया गया है कि भारतीय वायु सेना ने 1999 में महसूस किया कि उसने अपने लड़ाकू विमानों की संख्या नहीं बढ़ाई और उन्हें बेहतर नहीं किया तो देश के आकाश की रक्षा के लिए आवश्यक विमानों का बेड़ा उसके पास नहीं होगा। उसके पास जो विमान थे उनकी सेवा अवधि खत्म होने के करीब थी और वे रिटायरमेंट की ओर बढ़ रहे थे। जरूरत भर विमान अभी तक नहीं खरीदे गए हैं। 

बीच में अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा सरकार और सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देने के बावजूद जो हुआ उसका भाजपा और उसके समर्थकों ने मजाक उड़ाया और कांग्रेस की सरकार चली गई तो जो हुआ और नहीं हुआ उसका कोई जिम्मेदार हो या नहीं हो, भारतीय वायु सेना के पास जरूरी विमान नहीं हैं। बाकी घुसकर मारूंगा, बादल के पीछे से हमले में 300 आतंकवादियों के मारे जाने और एक विमान पाकिस्तान में गिर जाने, पायलट को छोड़ दिए जाने जैसी घटनाओं के बीच जरूरत भर विमान का एक बहुत छोटा हिस्सा हाथ लगा है लेकिन कई गुना ज्यादा प्रचार के अलावा कुछ ठोस नहीं हुआ है। 

आलम यह है कि राफेल सौदे की बात चल रही थी तो सुब्रमण्यम स्वामी समेत तमाम लोगों ने कांग्रेस और सोनिया गांधी पर आरोप लगाए। कांग्रेस सरकार के रक्षा मंत्री एके एंटनी ने शिकायतों की जांच भी करवाई। और नतीजा यह हुआ कि 1987 के बोफर्स सौदे पर भी अभी तक चर्चा होती है। ज्यादातर मामलों में गलत काम करने का सबूत हमेशा गायब रहा है पर आरोप प्रत्यारोप का शोर हमेशा तेज रहा है। बोफर्स मामले से मुकाबला करें तो उसमें 64 करोड़ की दलाली दिए जाने का सबूत था। राफेल मामले में ऐसा कोई सबूत नहीं है लेकिन बाकी मामले कमजोर भी नहीं हैं। 

बोफर्स मामले की चर्चा हमेशा राजीव गांधी और सोनिया गांधी को बदनाम करने के लिए हुई और बाद के चुनावों में कांग्रेस को ही बदनाम करने के लिए सब एक हो गए। इसका नुकसान पांच साल बाद दिखा। उदाहरण के लिए टेक्नालॉजी ट्रांसफर करने की शर्त ऐसी है कि उत्पाद बेचने के लिए बोली लगाने वाली इकाई सौदे के बाद बोली लगवाने वाले को प्रापण करार के भाग के रूप में उत्पाद प्राप्त करने वाले को अपनी टेक्नालॉजी ट्रांसफर करनी होगी। अब ऐसी शर्त विकासशील या कम विकसित देशों में आम हो गई है। 2005 में यूपीए सरकार ने इसमें और संशोधन किया। इसके मद्देनजर उसकी तारीफ होनी चाहिए थी तो आलोचना हुई। दूसरी ओर, सरकार ने ऐसे तमाम नियम कानून का पालन करते हुए 126 विमान खरीदने की प्रक्रिया तय की। 

इस आधार पर किए गए निर्णय की प्रशंसा भी हुई। जून 2008 में तब के रक्षा मंत्री एके एंटनी ने इसके तीन मार्गदर्शक सिद्धांत बताए थे। सबसे पहले तो वायु सेना की जरूरत पूरी करना, आूपर्तिकर्ता का चुनाव करने की प्रक्रिया वाजिब, पारदर्शी हो तथा भारतीय रक्षा उद्योग को बढ़ने का मौका मिले। इसके 14 साल बाद इन तीन लक्ष्यों का हाल देखिए और तय कीजिए कि जो ईमानदार होने का दावा कर रहे थे उनने स्वच्छता अभियान को इतना महत्व क्यों दिया या स्मार्ट सिटी बनाने का प्रचार क्यों किया। 

दूसरी ओर, विमान खरीदने की घोषणा के बाद जो सब हुआ उसकी भी पड़ताल लेखकों ने की है और कांग्रेस का जवाब है, पारदर्शिता के दावे पर अमल है। शिकायत पर कार्रवाई की सूचना है, आरोपों के जवाब हैं और बताया गया है कि जो सौदा हो गया लग रह था वह पूरा होने से बहुत दूर था। इसके बाद दूसरे अध्याय की शुरुआत होती है। इसका नाम है, अनुत्तरित सवाल, आधिकारिक झूठ। इस अध्याय का पहला वाक्य है, भारत में कई अहम वित्तीय घोटालों के आरोपों की पृष्ठभूमि में अप्रैल-मई में आम चुनाव हुए और दो बार से चल रही यूपीए की सरकार चुनाव हार गई तथा राजग की नई सरकार बनी। 

इस सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 8 अगस्त 2014 को एक लिखित सवाल के जवाब में कहा कि न्यूनतम मूल्य की पेशकश करने वाली फ्रांस की कंपनी से सौदा करने की प्रक्रिया जारी है। जनवरी 2015 में जेटली के उत्तराधिकारी और नए रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा कि वार्ता अपेक्षित दिशा में नहीं है और भारत में निर्मित सुखोई का नया मॉडल रफाल का अच्छा विकल्प है। दो हफ्ते बाद उन्होंने इस दावे को दोहराया और सुखोई के उन्नत विमान को रफाल से बेहतर बताया। फरवरी 2015 में अनाम अधिकारी के हवाले से खबर छपी कि सौदा प्रभावी तौर पर खत्म हो चुका है। 

इस संबंध में कई खबरों के बाद 11 मार्च 2015 को खबर आई कि रफाल ने एचएएल के साथ करार कर लिया है। इसके बाद खबर आई कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उस समय के रक्षा मंत्री को बुलाकर कहा कि रफाल के साथ हुए सौदे को पूरी तरह रद्द कर दिया जाए। यह खबर भारतीय सेना के पूर्व कर्नल और पत्रकार अजय शुक्ला की थी। उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस में बताया था कि यह सूचना उन्हें कैसे मिली और कहा कि यह मैं अब कह सकता हूं क्योंकि इस मामले के मुख्य किरदार मनोहर पर्रिकर अब नहीं हैं तो मेरे सूत्र का पता नहीं चलेगा। 

यहां एक और दिलचस्प सूचना है। इसके बाद प्रधानमंत्री विदेश यात्रा पर गए और प्रधानमंत्री की यात्रा से पहले विदेश सचिव द्वारा मीडिया को जानकारी देने का रिवाज रहा है। 8 अप्रैल (2015) को मोदी विदेश गए और उस समय के विदेश सचिव एस जयशंकर ने मीडिया को ब्रीफ किया जो बाद में भारत के विदेश मंत्री बने और अब भी है। रफाल सौदे से संबंधित सवाल पर उन्होंने कहा था कि उनकी समझ से चर्चा चल रही है और यह बहुत तकनीकी तथा विस्तृत मामला है। हम नेतृत्व के स्तर के दौरों का जारी रक्षा करार के विस्तत विवरण से घालमेल नहीं करते हैं। वह अलग पटरी पर है। नेतृत्व का दौरा अमूमन बड़ी तस्वीर से मुद्दों को देखता है, सुरक्षा के क्षेत्र में भी। 

मेरा मानना है कि जयशंकर को बाद में  विदेश मंत्री बना दिए जाने की योग्यता उनका यह गोल मोल जवाब नहीं हो सकता है और जो योग्यता है उसे हम सब जानना चाहते हैं। जानने का हमारा अधिकार भी है लेकिन देश की आम जनता को मंदिर चाहिए। जयशंकर की जय-जय होने का कारण उपरोक्त जवाब ही नहीं हो सकता है। पुस्तक के अनुसार उस समय भी विदेश सचिव ने स्पष्ट किया था कि मोदी के पेरिस दौरे के दौरान रफाल लड़ाकू विमान की खरीद से संबंधित किसी घोषणा की कोई उम्मीद नहीं थी। लेकिन 10 अप्रैल को फ्रांस के उस समय के प्रेसिडेंट फ्रांस्वा ओलांद ने कहा था, मैं इस बारे में प्रधानमंत्री से बात करूंगा पर वे जिन कारणों से आ रहे हैं उनमें रफाल के अलावा भी अन्य कारण हैं  … पर यह सही है कि वे घोषणा करेंगे कि नहीं और हम अपनी ओर से जानने की पूरी कोशिश कर रहे हैं कि कब। ….. यह फ्रांस और भारत के अलावा अच्छी खबर होगी। ओलांद ने यह सब नरेन्द्र मोदी की मेजबानी से कुछ घंटे पहले कहा था और ऐसे में 10 अप्रैल 2015 को जो घोषणा हुई वह चौंकाने वाली थी। 

आप जानते हैं, प्रधानमंत्री ने इसी दिन 36 तैयार रफाल विमान का आदेश देने की घोषणा की थी। पुस्तक में पूरा विवरण और घोषित बयान शब्दशः छपे हैं। पूरा आनंद तो पुस्तक से ही आएगा और जो हिन्दी नहीं जानते हैं उन्हें हिन्दी में इस पुस्तक के अनुवाद की जरूरत होगी। यहां हम सिर्फ इतना ही बता सकते हैं कि पुस्तक में क्या है। लेकिन पुस्तक में यह साबित होता है कि सरकारी स्तर पर छूठ बोला गया है और झूठ बोलने वाले को पुरस्कार भी मिला। जहां तक रफाल सौदे में भ्रष्टाचार की बात है, निर्णय इस तरह बदलना और इससे किसी को लाभ होना भी अनुचित है। यह पैसे लेकर किया गया या बिना पैसे के वह तो जांच के बाद ही पता चलेगा। अभी तो अनियमितता भी स्वीकार नहीं की जा रही है। हालांकि अजय शुक्ला ने बिजनेस स्टैंडर्ड लिखा था, फ्रांस यही चाहता था। भाारत में प्रधानमंत्री भी चाहते हों पर यहां चाहना भारतीय वायु सेना को था और उसे 126 विमान वर्षों पूर्व चाहिए थे। पुस्तक में इसका भी विस्तार से वर्णन है।    

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

 

भाग -1:  उड़ते झूठ: रफाल सौदे पर लिखी किताब से तार-तार होता दलाली का खेल! 

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