दलित शब्द पर प्रतिबन्ध के निहितार्थ
कँवल भारती
के.सत्यनारायण ने ठीक ही संकेत किया है कि दलित शब्द पर प्रतिबंध लगाना नामकरण का साधारण मुद्दा नहीं है, बल्कि यह एक राष्ट्र और एक अस्मिता के निर्माण का विशाल एजेंडा है। निश्चित रूप से यह आरएसएस (संघ) का हिन्दू एजेंडा है, जिसमें वर्णव्यवस्था के अनुसार हिन्दू राष्ट्र के निर्माण का लक्ष्य निहित है। अगर संघ पुष्यमित्र सुंग के ‘स्वर्ण’ अर्थात ‘सवर्ण’ युग को पुनर्स्थापित करने की दिशा में जा रहा है, तो क्या हम उस खतरनाक युग में वापिस आ रहे हैं, जिसमें नाम, धाम, गाम और काम से एक विशाल आबादी की ‘अछूत’ पहचान बनाई गई थी? अगर सरकारें और अदालतें संघ का हिन्दू एजेंडा इसी तरह लागू करती रहीं, तो संभव है कि ब्राह्मण,ठाकुर और बनियों की तरह दलितों को अपनी पहिचान के लिए कोई ख़ास चिन्ह धारण करके चलने का फरमान भी कभी सुनने को मिल जाए। यह चिन्ह मोर, कबूतर और कौवा का पंख भी हो सकता है, और कोई कोड ड्रेस भी।
इधर आरएसएस की सोच में कुछ परिवर्तन आया है। वह पहले से और कट्टर हुआ है। कबीर से लेकर आंबेडकर तक सारे दलित नायकों को हिन्दू रंग में रंगने के उसके सारे प्रयास और समरसता-कार्यक्रम भी, भारत के दलित चिन्तन और साहित्य के आन्दोलन पर रत्तीभर प्रभाव नहीं डाल सके। वह न वर्णव्यवस्था, जातिभेद और हिन्दूधर्म के खिलाफ दलित विमर्श की धारा को मोड़ सका, और न दलितों को हिन्दू राष्ट्रवाद से जोड़ सका। इसके विपरीत, कोरेगाँव आन्दोलन ने उसकी चिंता को और भी बढ़ा दिया। बल्कि इस दलित आस्था ने अयोध्या की हिन्दू आस्था के लिए खतरे की घंटी बजा दी। संघ की एक ‘दलित आन्दोलन पत्रिका’ थी, जो अब शायद बंद हो गई है, क्योंकि दलित शब्द का प्रयोग उसके लिए भी वर्जित है। इससे स्पष्ट पता चलता है कि इस नामकरण के पीछे खुले तौर पर संघ है, वरना ‘दलित आन्दोलन पत्रिका’ महीनों पहले बंद नहीं होती।
संघ का इरादा दलित शब्द पर रोक लगाकर दलित साहित्य को रोकना हैI क्योंकि दलित साहित्य हिन्दूधर्म की वर्णव्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश और प्रतिरोध का साहित्य है। दलित साहित्य भारत का एकमात्र साहित्य है, जो स्वतन्त्रता, समानता और बंधुता के लिए अलख जगाकर हिन्दूधर्म के मूल पर कुठाराघात करता है, जो हिन्दूधर्म के ग्रन्थों, मिथकों, देवी-देवताओं और नायकों का पुनर्पाठ करता है, और उन्हें खारिज करता है। यही वह साहित्य है जो बुद्ध, चार्वाक, कबीर, रैदास, जोतीराव फुले, सावित्री बाई फुले, स्वामी अछूतानन्द और डा. आंबेडकर के मौलिक विचारों की ज्योति को जलाए रखता है। कहना न होगा कि यह आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र की योजना के लिए खतरनाक साहित्य है। इसलिए ‘हिन्दू पुलिस’ दलित लेखकों के घरों में डा. आंबेडकर और जोतीराव फुले की तस्वीरों तथा किताबों को भी देश के लिए खतरा समझती है।
‘दलित’ शब्द किसी एक जाति के लिए या किसी विशेष जाति के लिए प्रयुक्त नहीं होता है, बल्कि यह समस्त अछूत जातियों के लिए एक वर्ग का निर्माण करता है। सूरज येंगड़े के अनुसार, डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने 1922 में ही मराठी में ‘दलित और पददलित’ शब्दों का प्रयोग किया था, और अंग्रेजी में वे दलित वर्ग के लिए डिप्रेस्ड क्लासेज का प्रयोग करते थे, जिसका अनुवाद दलित वर्ग ही होता है। इसलिए दलित विमर्श, दलित साहित्य और दलित राजनीति के केंद्र में कोई एक अछूत जाति नहीं, बल्कि सभी अछूत जातियाँ आती हैं। आरएसएस के हिन्दू मन को दलित शब्द की यही वर्गीय चेतना खतरे की घंटी है, क्योंकि दलित साहित्य की वैचारिक ऊर्जा, भविष्य में उन दलित जातियों को भी जागरूक कर सकती है, जो आज अज्ञानता के अंधे कुएँ में हैं और आरएसएस के हिन्दू फोल्ड में हैं। उनके जागरूक होने का अर्थ है, हिन्दू राष्ट्र के महल का भरभराकर ढह जाना क्योंकि हिन्दू राष्ट्र का मतलब है वर्णव्यवस्था का शासन, जिसमें द्विजों का राज और दलित-पिछड़ों की दासता है। दलित साहित्य इसी दासता का बोध कराता है, और जो भी दलित जाति अपनी दासता को अनुभव कर लेती है, उसका विद्रोही हो जाना लाजमी है।
अभी आरएसएस के लिए एक सुभीता है कि उसके हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे में कुछ निर्लज्ज दलित नेता सहायक बने हुए हैं, पर वह जानता है कि यह देर तक चलने वाला नहीं है। दलित साहित्य और दलित विमर्श की मार को यह निर्लज्ज वर्ग भी लम्बे समय तक नहीं झेल पायेगा,और तब उसके सामने दो ही विकल्प होंगे—या तो वह अपनी भूमिका बदल लेगा, या समाप्त हो जायेगाI आरएसएस उसी दिन के लिए चिंतित हैI
इसलिए उसने ‘न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी’ की चाल चली और सुनियोजित तरीके से दलित शब्द के प्रयोग पर रोक लगाने की एडवाइजरी जारी करवा दी। सामने से यह एडवाइजरी, केंद्र और राज्य सरकारों को मिले मुंबई और मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालयों से मिले निर्देश के आधार पर जारी की गई लगती है, जिसका आधार यह लिया गया है कि दलित शब्द भारत के संविधान अथवा किसी भी अन्य कानून में कहीं नहीं मिलता है। अवश्य ही सब कुछ तय-शुदा है। संविधान में हिन्दुस्तान शब्द को भी मान्यता नहीं दी गई है? काउंटर में यह सवाल क्यों नहीं उठाया गया? फिर,हिंदुस्तान क्यों प्रचलित है, जबकि संविधान में भारत और इंडिया शब्दों को मान्यता दी गई है?
हालाँकि, दलित शब्द पर कितनी भी रोक लगा दी जाए, उसका प्रयोग बंद होने वाला नहीं है, क्योंकि दलित शब्द एक आन्दोलन के रूप में दलितों के तनमन में ऐसा रच-बस गया है कि उससे मुक्त होना सम्भव नहीं है। मीडिया भले ही दलित शब्द का प्रयोग न करे, पर दलित साहित्य में दलित शब्द ही उसके सौन्दर्य का आधार है। जिस प्रकार हिन्दू धर्म से वर्णव्यवस्था को नहीं निकाला जा सकता, उसी प्रकार दलित साहित्य से दलित शब्द को नहीं निकाला जा सकता। के. सत्यनारायण ने सही सवाल उठाया है कि टीवी चैनल उनकी किताब ‘दलित स्टडीज’ का उल्लेख किस तरह करेंगे? क्या उसे ‘अनुसूचित जाति स्टडीज’ कहेंगे? इसी तरह अगर वे मेरी किताब ‘दलित विमर्श की भूमिका’ को ‘अनुसूचित जाति विमर्श की भूमिका’ कहेंगे, तो यह कितना हास्यास्पद होगा?
यह बचकानी और फूहड़ सोच है कि आरएसएस दलित शब्द को खत्म करके अपने मकसद में सफल हो जायेगाI उसके हिन्दू राष्ट्र का निर्माण कभी भी दलित-पिछड़ों की वैचारिकी को दबाकर नहीं हो सकता। यह महत्वपूर्ण सवाल है कि जब संविधान में जातिवाद नहीं है, तो हिन्दू समाज उसे क्यों जीवित रखे हुए है? वे जातिवाद को बनाए रख सकते हैं, ‘हिंदुस्तान’ को बनाए रख सकते हैं, और ‘दलित’ को असंवैधानिक बताकर खत्म करना चाहेंगेI यह चलने वाला नहीं हैI जब तक हिंदुस्तान और जातिवाद रहेगा, दलित भी रहेगा!
कँवल भारती : महत्वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक चिंतक, पत्रकारिता से लेखन की शुरुआत। दलित विषयों पर तीखी टिप्पणियों के लिए विख्यात। कई पुस्तकें प्रकाशित। चर्चित स्तंभकार। मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सदस्य।