भाऊ कहिन-10
हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ?
मुख्यधारा मीडिया के समाचारों और उसके सरोकार की अवधारणाओं में जो विकृतियां पैदा हुई हैं , उससे इसकी साख में जबरदस्त गिरावट आयी है ।
अखबारों खासकर हिन्दी अखबारों से लोगों का लगाव और लासा सूखा है । अपनी – अपनी सीमा में या तो पब्लिक रिलेशन या फिर बिजनेस प्रमोशन ही उनका काम रह गया है ।
कुछ बहुत ज्यादा प्रसारित अखबारों में पब्लिक रिलेशन या लाभकारी एनजीओ की तरह काम करने वाले ‘ वर्टिकल ‘ भी होते हैं । इन्हें संस्थान कमाऊ पूत मानता है । इसके मैनेजरों की तनख्वाह कहीं – कहीं संपादकों से अच्छी और बेहतर होती है ।
खबर क्या है या अखबारों का कंटेंट क्या होना चाहिए यह बताने के लिये कभी -कभी ,साल में एक या दो बार , विभिन्न कम्पनियों के सेल्स , मार्केटिंग और विज्ञापन मैनेजर बुलाये जाते हैं । दो दिनी या उससे अधिक की कार्यशाला चलती है । यह समाचार संपादकों और सभी यूनिट के संपादकों के लिए खास तौर पर होती है ।
हैट पहने , हाथ में छोटा सा रूल लिये विभिन्न कम्पनियों का कोई बंदा , बड़ी स्क्रीन पर चल रहे प्रजेंटेशन के साथ थिरकता रहता है ।
— इट्स माई वे … ह्वेन यू विल जम्प इन दिस सिगमा टू …( जाने क्या …. क्या बकवास )
इस तरह की कार्यशाला में ऊब कर सो जाने या झुंझला कर कोई सवाल पूछ देने के लिये मुझे प्रबन्धन का कोप भाजन भी बनना पड़ा है ।
ख़ैर कोई बात नहीं । मुझे आज जैसे हैं , वैसा संपादक बनना भी नहीं था ।
ये कारपोरेट मैनेजर पैकेजिंग और वैल्यू एडिशन बताते हैं । यह डाउन द लाइन कितना और कैसे पहुंचता है इसका एक उदाहरण देखिए ।
एक रीजनल मीट में , एक यूनिट का चीफ सब पैकेजिंग के तरीके बता रहा था ।
प्रजेंटेशन में एक भैंस और भेडों के चित्र थे । उसी में दूसरी तरफ भैंस की चमड़ी से बनी बेल्ट या ऐसे ही दूसरे उत्पाद थे । भेड़ों की बाल से बने कंबल और जैकेट भी ।
प्रजेंटेशन में एक फिल्मी गाने की धुन बज रही थी — …. मैं नागिन तू सपेरा ..।
चीफ सब उछल – उछल बोल रहा था — ये है पैकेजिंग ।
भेड़ को अकल होती , आप हमारी तरह, तो वह हतप्रभ रह जाती । उसकी बाल से ये क्या बन गया ।
यहां भी एतराज करने और पैकेजिंग – वैल्यू एडिशन में अंतर स्पष्ट करने के लिए मुझे मुख्य महाप्रबन्धक का कोप भाजन बनना पड़ा ।
वह चीफ सब भी बाद में एक यूनिट का संपादक हो गया । हो सकता है स्टेट हेड भी हो जाय ।
एक अखबार का रिपोर्टर चंपारण सत्याग्रह से जुड़ी बहुत सन्दर्भ समृद्ध रिपोर्ट लेकर आया ।
उसकी रिपोर्ट नहीं ली गई । उसे जैकेट की ले आउट तैयार कराने में लगा दिया गया ।
उस रिपोर्टर और संपादक के बीच खासी बहस हुई ।
संपादक ने कहा —
हमें गांधी को भगवान मान कर उनसे अभिभूत नहीं होना चाहिए । और आप भी रोमिला थापर , बिपिन चंद्रा या इरफान हबीब के लिखे को अंतिम सच न मान लें ।
आप को नहीं लगता कि इतिहास का पुनर्लेखन जरूरी है ?
यह रिपोर्टर संपादक का सजातीय नहीं है । 50 का हो चला है ।
आशंका ही नहीं यकीन है वह हफ्ते भर के भीतर निकाल दिया जायेगा ।
एक बड़े हिन्दी अखबार के लिए कहीं कोई ब्यूरो चीफ चाहिए था ।
संपादक ने अपने एक मित्र से कहा ।
मित्र ने कहा — देता हूं एक जबरदस्त लिक्खाड़ ..।
संपादक ने कहा — अरे नहीं यार .. लिक्खाड़ क्या होगा ? लॉयल आदमी दो ।
एक राज्य संपादक अक्सर कहा करते थे —
संपादक का काम खुद लिखना नहीं है । उसका काम लिखने वाले पैदा करना है ।
हिन्दी का कोई अखबार इसका अपवाद न हो शायद । आज , मालिक का तलवा चाटने वाले कुछ संपादकों के चलते , तकरीबन हर जगह लिखने – पढ़ने वाले हाशिये पर हैं । उनकी कोई जरूरत भी नहीं है ।
संपादक यह भी कहते हैं – जो खुद ही लिखने के चक्कर में पड़ा , उसने अखबार बंद कराया ।
दिनमान या रविवार क्या इसीलिये बंद हुये ?
या उसकी और वजहें थीं ।
इस पोस्ट को पढ़ने वाले यह भी बताएंगे तो , मेरी मदद करेंगे ।
जारी ….
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