डॉ. ए.के. अरुण
यह दौर इतिहास से छेड़छाड़ और उसकी गलत प्रस्तुति की वजह से युवा पीढ़ी के लिये जरा मुश्किल दौर है। ऐसे में युवाओं के प्रतीक पुरुष स्वामी विवेकानन्द को याद करना न केवल महत्त्वपूर्ण है बल्कि बेहद जरूरी है ताकि हम उनकी वास्तविक चिंता को समझकर राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में ईमानदारी से लगकर युवाओं के बेहतर कल का निर्माण कर सकें।
स्वामी विवेकानन्द ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि हमारी मातृभूमि भारत के लिये ‘‘वेदान्ती मस्तिष्क और इस्लामी शरीर” की एक साथ जरूरत है तभी इसका समुचित विकास होगा। (स्रोत –द कम्पलीट वर्क्स आफ स्वामी विवेकानन्द, खंड-6)। वे मानते थे कि गरीबों की उपेक्षा और उसका शोषण भारत के पतन और पिछड़ेपन का मुख्य कारण है। सम्भवतः वे भारत के विरले आध्यात्मिक युवा संत हैं जिन्होंने जन सामान्य के समर्थन में आवाज उठाई। उन्होंने देश में गरीबों की दुर्दशा के बारे में राष्ट्रीय जागरूकता पैदा करने की हर सम्भव कोशिश की। उन्होंने युवाओं से आह्वान किया था कि वे समाज-सेवा को जीवन पद्धति के रूप में अपनाएं।
विवेकानन्द ने खुल कर कहा था कि ‘‘जब तक लाखों लोग भूख और अज्ञानता में रह रहे हैं तब तक मैं हर उस व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ जिसने उनके पैसों से शिक्षा प्राप्त की और उन्हें भूल गया।”
स्वामी विवेकानन्द साम्प्रदायिकता और कट्टरता के प्रखर विरोधी थे। यह दुर्भाग्य ही है कि आज घोर साम्प्रदायिक व धर्मांध संगठनों के लोग स्वामी विवेकानन्द का नाम लेकर समाज को तोड़ने और लोगों को आपस में लड़ाने का काम कर रहे हैं। दुनिया जानती है कि स्वामी विवेकानन्द सभी धर्मों के प्रति सम्मान और सद्भावना के गहरे हिमायती थे। वर्ष 1893 में अमरीका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में दिये अपने बहुचर्चित भाषण में उन्होंने कहा था, ‘‘जो धर्म पूरी दुनिया को परस्पर सहिष्णुता और सभी मतों की सार्वजनिक स्वीकृति की शिक्षा देता है मैं उसी धर्म का हूँ और मुझे इस पर गर्व है।”
इसी उद्बोधन में स्वामी विवेकानन्द ने साम्प्रदायिकता व कट्टरता की कड़ी निंदा करते हुए कहा था कि मानव सभ्यता की असहनीय क्षति पहुँचाने वाली इन प्रवृत्तियों को अब खत्म हो जाना चाहिये। उनके ही शब्दों में- ‘‘धर्मांध लोग दुनिया में हिंसक उपद्रव मचाते हैं, बार-बार खून की नदियां बहाते हैं, मानवीय सभ्यता को नष्ट करते हैं और देश को निराशा में भर देते हैं। धर्मांधता का यह भयानक दानव अगर नहीं होता तो मानव समाज आज जो है उससे कहीं अधिक उन्नत होता। उस दानव की मृत्यु करीब आ गई है और मैं अन्तःकरण से भरोसा करता हूँ कि इस विश्व संसद के उद्घाटन के समय आज सुबह जो शब्द ध्वनि हुई है वह धर्मांधता के मृत्यु की घोषणा पूरी दुनिया में करे। एक ही चरम लक्ष्य की ओर अग्रसर मनुष्य के बीच एक दूसरे के बारे में संदेह और अविश्वास का भाव समाप्त हो तथा तलवार या कलम से दूसरे को पीड़ा देने की कुबुद्धि का अंत हो।”
विवेकानन्द की दृष्टि समदर्शी थी हालांकि वे स्त्रियों तथा कमजोर लोगों के पक्ष में स्पष्ट तौर पर मुखर थे। भारत में महिलाओं की दुर्दशा से स्वामी विवेकानन्द बेहद क्षुब्ध थे। वे कहते थे कि यहाँ तो महिलाएं मानों एक विभीषिका से जूझ रही हैं। उनके अनुसार समाज की दुर्दशा का एक प्रमुख कारण ‘‘महिलाओं की उपेक्षा और अपमान” है। उन्होंने कहा था, ‘‘इतनी तपस्या के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूं कि ईश्वर हर एक जीव में मौजूद है। इसके अतिरिक्त मैं और किसी भगवान के बारे में नहीं जानता। जीवों की सेवा ही ईश्वर सेवा है।”
स्वामी विवेकानन्द सभी धर्मों का सम्मान करते थे। उन्होंने कहा था, ‘‘मैं मुसलमानों के मस्जिद में जाऊंगा, क्रिश्चियन के गिरिजाघरों में जाऊंगा तथा उनके पवित्र सूली के समक्ष सिर झुकाऊंगा। मैं बौद्धों के मंदिर में जाऊंगा तथा उनके संघ मित्रों की दीक्षा लूंगा। इसके अतिरिक्त मैं हिन्दुओं के साथ घने वन में जाऊंगा तथा उनके साथ ध्यान में निमग्न होऊंगा। मैं यह सब न सिर्फ करूंगा बल्कि मेरा हृदय सभी के लिये समान रूप से उन्मुक्त रहेगा जिससे कि हम सब मिलकर आपस में जुड़ सकें।”
विवेकानन्द ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि धर्म के मूल में न तो कोई कर्मकांड है और न ही तीर्थ व उत्सवों का आयोजन। वास्तव में धर्म के मूल में दुःखी कमजोर व निर्धन लोगों व अन्य जीवों की सेवा करना है। ईश्वर प्रत्येक जीव में विद्यमान है। अतः सही अर्थ में ईश्वर की उपासना वे करते हैं जो दुःखी मानवता व अन्य संकटग्रस्त जीवों की सेवा करते हैं, रक्षा करते हैं। यही सबसे बड़ा राष्ट्रीय कर्त्तव्य भी है क्योंकि राष्ट्र की दुर्गति निर्धन व कमजोर लोगों की उपेक्षा और शोषण के कारण ही हुई है। वे चाहते थे कि शिक्षित युवा आगे आएं और इस जिम्मेवारी को संभालें। विवेकानन्द तो यहां तक कहते थे कि शिक्षित युवाओं की शिक्षा का खर्च कहीं न कहीं शोषित, उपेक्षित लोगों से वसूला गया है। अतः वे ऋण मुक्त तभी होंगे जब वे निर्धन वर्ग की भूख और अशिक्षा दूर करने में अपना भरपूर योगदान देंगे।
युवाओं की व्यावहारिक शिक्षा पर स्वामी विवेकानन्द का विशेष ध्यान था। उन्होंने शिक्षा सुधार पर बहुत जोर दिया था। अपने विभिन्न उद्बोधन व लेखन में उन्होंने कई बार कहा कि बहुत सी पोथियां पढ़ लेने या पूरी लाइब्रेरी खंगाल लेने से ही वास्तविक शिक्षा नहीं मिल जाती अपितु थोड़े से महत्त्वपूर्ण चरित्र-निर्माण के विचारों को समझकर उसे अपने जीवन में अपना लेना किसी पुस्तक ज्ञान से कहीं अधिक सार्थक है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिये जो बच्चों-किशोरों को अपनी मौलिक सोच व रचनात्मक प्रतिभाओं को विकसित करने का अनुकूल अवसर दे।
स्वामी विवेकानन्द का जीवन कर्म प्रधान था। उन्होंने कभी बौद्धिक विलास में विश्वास नहीं किया। वे सदा इस बात के लिये प्रयत्नशील रहे कि अच्छे विचार व्यापक जन तक सुलभ तरीके से कैसे पहुँचें? उन्होंने इसके लिये देश भर में पदयात्राएं कीं, विदेशों में महत्त्वपूर्ण आयोजनों में जाकर अमूल्य विचारों से नए समर्थक जुटाए और अनेक लोगों को जोड़ा। उन्होंने युवाओं से आह्वान किया था- ‘‘नया भारत गढ़ो।”
आज सच में नया भारत गढ़ने की जरूरत है। साम्प्रदायिक व जाति क्षुद्रता से ऊपर सर्व धर्म समभाव, समता व परस्पर बहन-भाई चारे का भारत।