चंद्रभूषण
नोटबंदी के साथ जुड़ी उद्यमी वित्तमंत्री जॉन लॉ की याद
यह कोई सरकारी कंपनी नहीं थी, लेकिन इसे प्रचारित इसी रूप में किया गया कि इसे फ्रांस के तत्कालीन राजा लुई पंद्रहवें का वरदहस्त प्राप्त है। मिसीसिपी कंपनी का घोषित लक्ष्य था- ‘मिसीसिपी नदी के मुहाने पर न्यू ऑर्लियंस नाम के शहर की स्थापना और इस इलाके की प्राकृतिक संपदाओं का दोहन।’ फ्रांस के तत्कालीन सिक्के लिवर में इस कंपनी के शेयरों का प्रारंभिक मूल्य 500 लिवर प्रति शेयर के हिसाब से घोषित किया गया।
उस समय यूरोप में ब्रिटिश, स्पेनिश और डच कंपनियों द्वारा खड़े किए जा रहे व्यापारिक साम्राज्यों के चर्चे थे। खुद फ्रांसीसी कंपनियों ने भी दक्षिणी-पूर्वी एशिया के बड़े इलाके पर अपना शासन स्थापित कर लिया था और धुआंधार कमाई कर रही थीं। फ्रांसीसियों को लगा कि खुद राजा और वित्तमंत्री के प्रयासों से स्थापित की जा रही मिसीसिपी कंपनी उनके लिए भारी संपदा के दरवाजे खोल देगी।
नतीजा यह हुआ कि सिर्फ डेढ़ साल के अंदर इस कंपनी के शेयर बीसगुनी से भी ज्यादा कीमत पर, यानी 10 हजार लिवर प्रति शेयर से भी ज्यादा महंगे
इसके बाद के दस साल मिसीसिपी कंपनी के शेयरों की पाताल यात्रा, जॉन लॉ और लुई पंद्रहवें के दिलासों और कंपनी के शेयर ऊपर चढ़ाने के लिए भारी मात्रा में नए नोटों की छपाई के रहे। लेकिन कंपनी के पास उस वक्त अमेरिका में कमाने के लिए कुछ था ही नहीं, लिहाजा सारा हाइप मिलकर भी इस कंपनी के शेयर ऊपर नहीं चढ़ा सका। नतीजा यह हुआ कि अंतत: यह कंपनी डूब गई और इसके साथ ही फ्रांस के सरकारी खजाने की साख भी हमेशा के लिए ध्वस्त हो गई।
लोगों के मन में आज भी सवाल रह जाता है कि आखिर वजह क्या थी जो फ्रांस से कम ताकतवर होते हुए भी ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कंपनी और फिर खुद ब्रिटिश राजसिंहासन ने भारत पर इतने समय तक राज किया, लेकिन फ्रांस की सत्ता यहां सिर्फ पुदुचेरी तक सिमट कर रह गई। इसमें भी काफी बड़ी भूमिका इन्हीं वित्तमंत्री और रिजर्व बैंक के गवर्नर जॉन लॉ साहब की थी, जिन्होंने अमेरिका में अपनी नाकामी छिपाने के लिए कई जगहों पर हाथ डाले और हर जगह फ्रांस की साख को नुकसान पहुंचाया।
जॉन लॉ के अनुभव से दुनिया ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के संचालन के लिए दो अहम निष्कर्ष निकाले। एक, किसी कारोबारी को देश की अर्थनीति की कमान तब तक न सौंपी जाए, जब तक वह शपथपूर्वक यह घोषित न करे कि राजनीतिक भूमिका में रहते हुए वह अपने कारोबार के साथ कोई सीधा रिश्ता नहीं रखेगा। और दूसरा यह कि कम से कम अहम फैसलों के स्तर पर देश के मौद्रिक ढांचे को उसके सरकारी ढांचे से, खासकर वित्त मंत्रालय से जितना हो सके, उतना दूर रखा जाए।
यह विभाजन भारत में भी हाल-हाल तक बना हुआ था, लेकिन रघुराम राजन के अंतिम दिनों में यह मिटने लगा और उनके जाने के बाद से लगभग पूरी तरह मिट गया है। आज कोई नहीं जानता कि नोटबंदी के फैसले में रिजर्व बैंक के गवर्नर ऊर्जित पटेल की केंद्रीय भूमिका थी या नहीं। रहा सवाल मौद्रिक नीति के निर्धारण का, तो अभी इस काम में रिजर्व बैंक और सरकारी प्रतिनिधियों की भूमिका बराबर-बराबर की हो गई है। यही नहीं, कई बड़े उद्योगपतियों का दखल भी देश की आर्थिक और मौद्रिक नीतियों के निर्धारण में बहुत ज्यादा बढ़ गया है।
ऐसे में नोटबंदी और मुद्रा नीति पर बात करते हुए फ्रांस के तीन सौ साल पुराने दोनों व्यक्तित्वों जॉन लॉ और लुई पंद्रहवें की एक याद तो बनती है।
लेखक नवभारत टाइम्स से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं।