इस तस्वीर में समाजवादी पुरोधा डॉ.राममनोहर लोहिया और आरएसएस के सरसंघचालक गुरु गोलवलकर एक दूसरे का हाथ थामे हुए हैं। ख़ुद को ‘कुजात गाँधीवादी’ कहने वाले डॉ.लोहिया काँग्रेस को हराने के लिए ‘शैतान’ से भी हाथ मिलाने के लिए तैयार थे। उन्होंने आरएसएस के राजनीतिक चेहरे जनसंघ को अपने संयुक्त मोर्चे में शामिल कर लिया। इस रणनीति ने 1967 में काँग्रेस को हराकर उत्तरी भारत के कई राज्यों में संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकारें बनाने का करिश्मा कर डाला। लेकिन समाजवादी धारा के तमाम विचारक डॉ.लोहिया के इस प्रयोग से जुड़े ख़तरे को समझ रहे थे। वे मानते थे कि गाँधी की हत्या के लिए ज़िम्मेदार आरएसएस विचारधारा और समाजवादियों के मेल का कोई तुक नहीं है। वरिष्ठ समाजवादी चिंतक मधु लिमये ने डॉ ़लोहिया से इस मसले पर काफ़ी बहस की थी, लेकिन डॉ.लोहिया ने नेता होने का हवाला देते हुए आरएसएस से रिश्ते को एक ‘ट्रायल’ देने की बात मानने को मजबूर कर दिया। 1995 में दिवंगत होने के पहले मधु लिमये ने इस ग़लती पर विस्तार से लिखा जिसका ख़ामियाज़ा आज पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है। पेश है आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया उनका एक लेख जिसमें उन्होंने आरएसएस और अपने मतभेद पर विस्तार से चर्चा की है-संपादक
मैं कहता रह गया कि आरएसएस के साथ हमारा तालमेल नहीं बैठेगा !
मधु लिमये
मैंने राजनीति में 1937 में प्रवेश किया. उस समय मेरी उम्र बहुत कम थी. मैंने मैट्रिक की परीक्षा जल्दी पास कर ली थी, इसलिए कॉलेज में भी मैंने बहुत जल्दी प्रवेश किया. उस समय पूना में आरएसएस और सावरकरवादी लोग एक तरफ और राष्ट्रवादी व विभिन्न समाजवादी और वामपंथी दल दूसरी तरफ थे. मुझे याद है कि 1 मई 1937 को हम लोगों ने मई दिवस का जुलूस निकाला था. उस जुलूस पर आरएसएस के स्वयंसेवकों और सावरकरवादी लोगों ने हमला किया था और उसमें प्रसिद्ध क्रान्तिकारी सेनापति बापट और हमारे नेता एसएम जोशी को भी चोटें आई थीं. उसी समय से इन लोगों के साथ हमारा मतभेद था.
हमारा संघ से पहला मतभेद था राष्ट्रीयता की धारणा पर. हम लोगों की यह मान्यता थी कि जो भारतीय राष्ट्र है, उसमें हिन्दुस्तान में रहने वाले सभी लोगों को समान अधिकार है. लेकिन आरएसएस के लोगों और सावरकर ने हिन्दू राष्ट्र की कल्पना सामने रखी. जिन्ना भी इसी किस्म की सोच के शिकार थे-उनका मानना था कि भारत में मुस्लिम राष्ट्र और हिन्दू राष्ट्र दो राष्ट्र हैं और सावरकर भी यही कहते थे. दूसरा महत्वपूर्ण मतभेद यह था कि हम लोग लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना करना चाहते थे और आरएसएस के लोग लोकतंत्र को पश्चिम की विचारधारा मानते थे और कहते थे कि वह भारत के लिए उपयुक्त नहीं है. उन दिनों आरएसएस के लोग हिटलर की बहुत तारीफ करते थे.
गुरुजी संघ के न केवल सरसंघचालक थे, बल्कि आध्यात्मिक गुरु भी थे. गुरुजी और नाजी लोगों के विचारों में आश्चर्यजनक साम्य है. गुरुजी की एक किताब है ‘वी आर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ जिसका चतुर्थ संस्करण 1947 में प्रकाशित हुआ था. गुरुजी एक जगह कहते हैं, ‘हिन्दुस्तान के सभी गैर हिन्दू लोगों को हिन्दू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी, हिन्दू धर्म का आदर करना और हिन्दू जाति और संस्कृति के गौरवगान के अलावा कोई और विचार अपने मन में नहीं लाना होगा.
तो गुरुजी करोड़ों हिन्दुस्तानियों को गैर-नागरिक के रूप में देखना चाहते थे. उनके नागरिकता के सारे अधिकार छीन लेना चाहते थे और यह कोई उनके नए विचार नहीं हैं. जब हम लोग कॉलेज में पढ़ते थे, उस समय से आरएसएस वाले हिटलर के आदर्शों पर ले चलना चाहते थे. उनका मत था कि हिटलर ने यहूदियों की जो हालत की थी, वही हालत यहां मुसलमानों और ईसाइयों की करनी चाहिए.
नाजी पार्टी के विचारों के प्रति गुरुजी की कितनी हमदर्दी है, यह उनकी ‘वी’ नामक पुस्तिका के पृष्ठ 42 से, मैं जो उदाहरण दे रहा हूं, उससे स्पष्ट हो जाएगा- ‘जर्मनी ने जाति और संस्कृति की विशुद्धता बनाए रखने के लिए सेमेटिक यहूदियों की जाति का सफाया कर पूरी दुनिया को स्तंभित कर दिया था. इससे जातीय गौरव के चरम रूप की झांकी मिलती है. जर्मनी ने यह भी दिखला दिया कि जड़ से ही जिन जातियों और संस्कृतियों में अंतर होता है, उनका एक संयुक्त घर में रूप में विलय असंभव है. हिन्दुस्तान में सीखने और बहस करने के लिए यह एक सबक है.’
आप यह कह सकते हैं कि वह एक पुरानी किताब है- जब भारत आजाद हो रहा था, उस समय की किताब है. इनकी दूसरी किताब है ‘ए बंच ऑफ थॉट्स’. मैं उदाहरण दे रहा हूं उसके ‘लोकप्रिय संस्करण’ से, जो नवंबर 1966 में प्रकाशित हुआ. इसमें गुरुजी ने आंतरिक खतरों की चर्चा की है और तीन आंतरिक खतरे बताए हैं. एक हैं मुसलमान, दूसरे हैं ईसाई और तीसरे हैं कम्युनिस्ट. सभी मुसलमान, सभी ईसाई और सभी कम्युनिस्ट भारत के लिए खतरा हैं, यह राय है गुरुजी की. इस तरह की इनकी विचारधारा है.
गुरुजी के साथ, मतलब आरएसएस के साथ, हमारा दूसरा मतभेद यह है कि गोलवलकर जी और आरएसएस वर्ण व्यवस्था के समर्थक हैं और मेरे जैसे समाजवादी वर्ण-व्यवस्था के सबसे बड़े दुश्मन हैं. मैं अपने को ब्राह्मणवाद और वर्ण व्यवस्था का सबसे बड़ा शत्रु मानता हूं. मेरी यह निश्चित मान्यता है कि जब तक वर्ण-व्यवस्था और उस पर आधारित विषमताओं का नाश नहीं होगा, तब तक भारत में आर्थिक और सामाजिक समानता नहीं आ सकती है.
लेकिन गुरुजी कहते हैं कि ‘हमारे समाज की दूसरी विशिष्टता थी वर्ण-व्यवस्था, जिसे आज जाति प्रथा कह कर उपहास किया जाता है.’ आगे वे कहते हैं कि ‘समाज की कल्पना सर्वशक्तिमान ईश्वर की चतुरंग अभिव्यक्ति के रूप में की गई थी, जिसकी पूजा सभी को अपने-अपने ढंग से और अपनी अपनी योग्यता के अनुसार करनी चाहिए. ब्राह्मण को इसलिए महान माना जाता था, क्योंकि वह ज्ञान-दान करता था.
क्षत्रिय भी उतना ही महान माना जाता था, क्योंकि वह शत्रुओं का संहार करता था. वैश्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं था, क्योंकि वह कृषि और वाणिज्य द्वारा समाज की आवश्यकताएं पूरी करता था और शूद्र भी, जो अपने कला-कौशल से समाज की सेवा करता था. इसमें बड़ी चालाकी से शूद्रों के बारे में कहा गया है कि वे अपने हुनर और कारीगरी द्वारा समाज की सेवा करते हैं.’ लेकिन इस किताब में चाणक्य के जिस अर्थशास्त्र की गुरुजी ने तारीफ की है, उसमें यह लिखा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा करना शूद्रों का सहज धर्म है. इसकी जगह पर गुरुजी ने चालाकी से जोड़ दिया- समाज की सेवा.
हमारे मतभेद का चौथा बिंदु है भाषा. हम लोग लोक भाषा के पक्ष में हैं. सारी लोकभाषाएं भारतीय हैं, लेकिन गुरुजी की क्या राय है? गुरुजी की यह राय है कि बीच में सुविधा के लिए हिंदी को स्वीकारा, लेकिन अंतिम लक्ष्य यह है कि राष्ट्र की भाषा संस्कृत हो. ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में उन्होंने कहा है, ‘संपर्क भाषा की समस्या के समाधान के रूप में जब तक संस्कृत स्थापित नहीं हो जाती, तब तक सुविधा के लिए हमें हिन्दी को प्राथमिकता देनी होगी.’ सुविधा के लिए हिन्दी, लेकिन अंत में वे संपर्क-भाषा चाहते हैं संस्कृत. हमारे लिए यह शुरू से मतभेद का विषय रहा.
महात्मा गांधी की तरह, लोकमान्य तिलक की तरह हम लोग लोक भाषाओं के समर्थक रहे. हम किसी के ऊपर हिन्दी लादना नहीं चाहते. लेकिन हम चाहते हैं कि तमिलनाडु में तमिल चले, आंध्र में तेलुगु चले, महाराष्ट्र में मराठी चले, पश्चिम बंगाल में बंगला भाषा चले. अगर गैर-हिन्दी भाषी राज्य अंग्रेजी का इस्तेमाल करना चाहते हैं तो वे करें. हमारा उनके साथ कोई मतभेद नहीं. लेकिन संस्कृत इने-गिने लोगों की भाषा है, एक विशिष्ट वर्ग की भाषा है. संस्कृत को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देने का मतलब है देश में मुट्ठी भर लोगों का वर्चस्व, जो हम नहीं चाहते.
पांचवीं बात, राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में संघ-राज्य की कल्पना को स्वीकार किया गया था. संघ-राज्य में केन्द्र के जिम्मे निश्चित विषय होंगे, उनके अलावा जो विषय होंगे, वह राज्यों के अंतर्गत होंगे. लेकिन मुल्क के विभाजन के बाद राष्ट्रीय नेता चाहते थे कि केन्द्र को मजबूत बनाया जाए, इसलिए संविधान में एक समवर्ती सूची बनाई गई. इस समवर्ती सूची में बहुत सारे अधिकार केन्द्र और राज्य दोनों को दिए गए. जो विशिष्ट अधिकार हैं, वे पहले तो राज्य को मिलने वाले थे, लेकिन केन्द्र को मजबूत करने के लिए केन्द्र को दे दिए गए. बहरहाल, संघ-राज्य बन गया. लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आध्यात्मिक गुरु गोलवलकर- इन्होंने हमेशा भारतीय संविधान के इस आधारभूत तत्व का विरोध किया.
ये लोग ‘ए यूनियन ऑफ स्टेट्स’ संघ-राज्य की जो कल्पना है, उसकी खिल्ली उड़ाते हैं और कहते हैं कि हिन्दुस्तान में यह जो संघ-राज्य वाला संविधान है, उसको खत्म कर देना चाहिए. गुरुजी ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में कहते हैं, ‘संविधान का पुनरीक्षण होना चाहिए और इसका पुनः लेखन कर शासन की एकात्मक प्रणाली स्थापित की जानी चाहिए.’ गुरुजी एकात्मक प्रणाली यानी केन्द्रानुगामी शासन चाहते हैं. वे यह कहते हैं कि ये जो राज्य वगैरह हैं, ये सब खत्म होने चाहिए. इनकी कल्पना है कि एक देश, एक राज्य, एक विधायिका और एक कार्यपालिका. यानी राज्यों के विधानमंडल, राज्यों के मंत्रिमंडल सब समाप्त. यानी ये लोग डंडे के बल पर अपनी राजनीति चलाएंगे. अगर डंडा इनके हाथ में आ गया राजदंड, तो केन्द्रानुगामी शासन स्थापित करके छोड़ेंगे.
इसके अलावा स्वतंत्रता आंदोलन का राष्ट्रीय झंडा था तिरंगा. तिरंगे झंडे की इज्जत के लिए, शान के लिए सैकड़ों लोगों ने बलिदान दिया, हजारों लोगों ने लाठियां खाईं, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कभी भी तिरंगे झंडे को राष्ट्रीय ध्वज नहीं मानता. वह तो भगवा ध्वज को ही मानता था और कहता था, भगवा ध्वज हिन्दू राष्ट्र का प्राचीन झंडा है. हमारा वही आदर्श है, हमारा वही प्रतीक है.
जिस तरह संघ-राज्य की कल्पना को गुरुजी अस्वीकार करते थे, उसी तरह लोकतंत्र में भी उनका विश्वास नहीं था. लोकतंत्र की कल्पना पश्चिम से आयात की हुई कल्पना है और पश्चिम का संसदीय लोकतंत्र भारतीय विचार और संस्कृति के अनुकूल नहीं है, ऐसी उनकी धारणा है. जहां तक समाजवाद का सवाल है, उसको तो वे सर्वथा पराई चीज मानते थे और कहते थे कि यह जितने ‘इज्म’ हैं यानी डेमोक्रेसी हो या समाजवाद, यह सब विदेशी है और इनका त्याग करके हमको भारतीय संस्कृति के आधार पर समाज रचना करनी चाहिए. जहां तक हमारे जैसे लोगों का सवाल है हम लोग तो संसदीय लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं, समाजवाद में विश्वास रखते हैं और यह भी चाहते हैं कि शांतिपूर्ण ढंग से और महात्मा जी के सृजनात्मक सिद्धांत को अपना कर हम लोकतंत्र की प्रतिष्ठापना करें, सामाजिक संगठन बनाएं और समाजवाद लाएं.
अंत में डॉक्टर साहब ने कहा कि मेरे नेतृत्व को तुम मानते हो या नहीं? मैंने कहा- हां, मैं मानता हूं. वे बोले, क्या यह जरूरी है कि सभी प्रश्नों पर तुम्हारी और मेरी राय मिले या सभी प्रश्नों पर मैं तुमको सहमत करूं. एक-आध प्रश्न ऐसा भी रहे जो हम दोनों के बीच मतभेद का विषय हो और मैं तो इस तरह का तालमेल चाहता हूं एक बड़े दुश्मन को हराने के लिए, तो इस मामले में तुम मान जाओ, इसको ‘ट्रायल’ दे दो. हो सकता है कि अंत में आरएसएस और डॉक्टर राममनोहर लोहिया की विचारधारा में संघर्ष हो कर रहेगा.