बाबा गुरमीत की सज़ा के नीचे दबी हैं स्थानीय पत्रकारिता की तमाम गौरव गाथाएँ !

अभिषेक श्रीवास्‍तव

 

बीते पंद्रह साल चले यौन शोषण के लंबे मुकदमे के बाद गुरमीत राम रहीम सिंह को अगले बीस साल के लिए जेल भेज दिया गया है। अभी दो मुकदमों में फैसला आना बाकी है- पहला पीडि़त साध्‍वी के भाई रणजीत सिंह की हत्‍या और दूसरा ‘पूरा सच’ के पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की हत्‍या का मामला। रणजीत सिंह वह पहला शख्‍स था जिसने कुरुक्षेत्र की साध्‍वी यानी अपनी बहन के साथ हुए बलात्‍कार के खिलाफ मुंह खोला और मारा गया। उसके तीन बच्‍चे थे। दो बेटियों की शादी हो चुकी है। उसकी शहादत इसलिए अहम है क्‍योंकि वह डेरा सच्‍चा सौदा के हरियाणा राज्‍य की दस सदस्‍यीय कार्यकारी इकाई का खुद सदस्‍य हुआ करता था, लेकिन यौन शोषण का मामला सामने आने पर उसने बग़ावत कर दी। अगली शहादत रामचंद्र छत्रपति की कम अहम नहीं है। जब साध्‍वी के प्रकरण में गुमनाम चिट्ठी को तमाम बड़े कॉरपोरेट मीडिया ने दिखाने-छापने से मना कर दिया, तो उसे छत्रपति ने पहली बार छापा और जान देकर इसकी कीमत चुकायी।

एक छोटे से स्‍थानीय दैनिक के माध्‍यम से डेरे का ‘पूरा सच’ सामने लाने वाले छत्रपति उन तमाम स्‍थानीय अख़बारों और सूचना-माध्‍यमों में केवल एक थे जिन्‍होंने हरियाणा और पंजाब में डेरे के खिलाफ़ लड़ाई का परचम थामे रखा। यह 2002 की बात है जब मामला सामने आया था। वह टीवी चैनलों की पैदाइश का दौर था। अख़बारों में भी विलय और अधिग्रहण आदि देखने में नहीं आता था। दैनिक भास्‍कर या  दैनिक जागरण जैसे अख़बार आज मीडिया साम्राज्‍य के मज़बूत स्‍तंभ हैं, लेकिन महज पंद्रह साल पहले तक वे उतने ही स्‍थानीय थे जितना कोई और अख़बार। तब अख़बारों में ब्रांड निर्माण का फॉर्मूला शुरू नहीं हुआ था। उन पर कॉरपोरेट दबाव भी इतना नहीं था। लिहाजा वे सच कहने की ताकत रखते थे।

सिरसा से निकलने वाले ‘पूरा सच’ में पहली बार जब गुमनाम चिट्ठी छपी तो रामचंद्र की हत्‍या हो गई। यह ख़बर राष्‍ट्रीय सुर्खियों में आई, लेकिन किसी ने फतेहाबाद के छोटे से सांध्‍य अख़बार ‘लेखा-जोखा’ की बात नहीं की जिसका दफ्तर यही चिट्ठी छापने पर आग के हवाले कर दिया गया था। डेरा के प्रेमियों ने पूरे प्रेस में आग लगा दी थी। लाखों के कंप्‍यूटर जलकर खाक हो गए। इसके खिलाफ़ अख़बार के पत्रकारों की ओर से डेरे के खिलाफ़ एफआइआर की गई, लेकिन राम रहीम ने करीब पचास हज़ार समर्थकों को फतेहाबाद में इकट्ठा कर के प्रशासन को धमकी दी कि डेरे के खिलाफ़ अगर कोई कार्रवाई हुई तो वे सड़क जाम कर देंगे।

इस घटना की गवाह रहीं और पीडि़ता साध्‍वी के पक्ष में डेढ़ महीना जेल काट चुकीं सामाजिक कार्यकर्ता सुदेश कुमारी बताती हैं, ”जन संघर्ष मंच, हरियाणा ने 5 फरवरी 2003 को फतेहाबाद में बाबा के खिलाफ़ प्रचार अभियान आयोजित किया था जिस पर हमला हुआ। ‘लेखा-जोखा’ का दफ्तर उससे पहले ही जलाया जा चुका था। पत्रकारों ने लूट, आगजनी और संपत्ति को नुकसान का मुकदमा कायम किया था डेरे के खिलाफ़, लेकिन उन्‍हें बाबा ने इतना डराया-धमकाया कि उन्‍हें अपनी एफआइआर ही वापस लेनी पड़ गई। प्रशासन और सरकार भी डेरे के समर्थन में थी। पत्रकारों ने बहुत हिॅम्‍मत की लेकिन कोई भी डेरे के सामने टिक नहीं पाया।”

‘पूरा सच’ और ‘लेखा-जोखा’ के अलावा किसी अख़बार ने साध्‍वी रेप कांड में आंदोलनकारियों की सबसे ज्‍यादा कवरेज की, तो वह था ‘हरियाणा जनादेश टाइम्‍स’। इस अख़बार ने 5 फरवरी 2003 की घटना को अपनी पहले पन्‍ने पर बैनर बनाया था, जिसमें सुदेश कुमारी के नेतृत्‍व में प्रदर्शन कर रहे स्त्रियों के कपड़े फाड़े गए थे, पुरुषों को मारा गया था और इनके खिलाफ़ डेरे के कार्यकर्ता की जान लेने की कोशिश का फर्जी मुकदमा दर्ज किया गया था। आइपीसी की धारा 307 लगे होने के कारण गैर-ज़मानती होने के चलते दो दर्जन से ज्‍यादा आंदोलनकारियों को डेढ़ महीना जेल में काटना पडा और अगले छह साल तक इन्‍हें मुकदमा झेलना पड़ा।

हरियाणा से निकलने वाले अख़बार ‘हरिभूमि’ ने भी बाबा के खिलाफ़ तगड़ा अभियान चलाया था। इसके अलावा हिंदी में ‘दि ट्रिब्‍यून’, अंग्रेज़ी के ट्रिब्‍यून और हिंदी के ‘अमर उजाला’ ने भी उस दौर में लगातार बाबा के खिलाफ़ खबरें छापी थीं और समूचे हरियाणा में जहां कहीं साध्‍वी के यौन शौषण को लेकर आंदोलन चला, उसे खुलकर इन अखबारों ने कवर किया। इन अख़बारों की पंद्रह साल पुरानी कतरनों को देखने से समझ में आता है कि राम रहीम के खिलाफ अगर ऐसे एकजुट होकर इन अख़बारों ने खबरें नहीं छापी होतीं तो पांच करोड़ कथित अनुयायियों के एक बाबा पर सीबीआइ की जांच बैठा पाना नमुमकिन होता।

हरियाणा में उस वक्‍त बलात्‍कारी बाबा के खिलाफ़ आंदोलन की अगुवा रहीं जन संघर्ष मंच की महासचिव और तत्‍कालीन संयोजक सुदेश कुमारी कहती हैं कि बाबा के समर्थकों का आतंक इतना ज्‍यादा था कि उनके खिलाफ जनमानस को तैयार करने के अलावा और कोई रास्‍ता ही नहीं था। वे कहती हैं, ”अगर हमने सीबीआइ जांच की मांग के समर्थन में लाखों हस्‍ताक्षर इकट्ठा किए, तो अख़बारों ने हमारे समर्थन में ख़बरें छापकर लोगों को इस बात से सहमत किया कि वाकई कुछ गलत हुआ है और जांच होनी चाहिए।”

रामचंद्र छत्रपति की हत्‍या के बाद फरवरी 2003 में हरियाणा पत्रकार संघ ने एक बैठक आयोजित की थी। संघ के तत्‍कालीन अध्‍यक्ष के.बी. पंडित ने छत्रपति के परिजनों को संघ की ओर से बीमा योजना के तहत पांच लाख रुपये की मुआवजा राशि देने का एलान किया था। उसके अलावा छत्रपति के पुत्र अंशुल को एक राष्ट्रीय दैनिक का सिरसा संवाददाता नियुक्‍त किया गया और छत्रपति के नाम पर राज्‍य स्‍तर का एक पत्रकारिता पुरस्‍कार भी शुरू किया गया था। यह खबर 10 फरवरी को ‘हरिभूमि’ के हिसार संस्‍करण में प्रकाशित हुई थी।

आज जब तमाम हिंसात्‍मक घटनाओं में आए दिन पत्रकार मारे जा रहे हैं और उन्‍हें पूछने वाला कोई नहीं, ऐसे में आज से पंद्रह साल पहले एक छोटे से राज्‍य के पत्रकार संघ द्वारा उठाया गया यह कदम नज़ीर की तरह सामने आता है।

बड़ी बात ये है कि एक घटना पर जिस तरीके से छोटे से लेकर बड़े अख़बारों ने एक स्‍वर में अपराधी बाबा का विरोध किया, वह पत्रकारिता के इतिहास का एक छुपा हुआ अध्‍याय है जिसे सामने लाए जाने की ज़रूरत है। खासकर आज, जबकि बलात्‍कारी बाबा को सीबीआइ की विशेष अदालत ने कैद की सज़ा सुना दी है, यह तथ्‍स अपने आप में पत्रकारों को ढांढस बंधाने वाला है कि इंसाफ़ में देर भले हो, लेकिन इंसाफ़ की लड़ाई ज़रूर लड़ी जानी चाहिए।

उस दौर में दैनिक भास्‍कर और दैनिक जगरण जैसे बड़े अखबारों के स्‍थानीय संस्‍करणों ने जिस तरीके से यौन शोषण की एक खबर को अभियान के रूप में बरता था, वह उनके लिए अपने ही अतीत से सबक लेने का भी बायस बनता है।

 

 

अभिषेक का यह लेख अंग्रेज़ी में न्यूज़ लांड्री में भी छपा है।



 

First Published on:
Exit mobile version