इमरजेंसी हटी, इंदिरा हारीं और आई जनता सरकार, जैसे आता है जीवन में फ़रेब !  

चश्मदीद पत्रकार की कहानी, इमरजेंसी की कहानी- 3

 

सुशील कुमार सिंह

 


फिर
हमने इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी देखी। इससे पहले किसी ने इस घटना की कल्पना भी नहीं की होगी, हालांकि इसका खामियाजा जनता पार्टी को उठाना पड़ा। धीरे-धीरे नई सरकार की सीमाएं उजागर होने लगीं। मोरारजी देसाई ने एक कार्यक्रम में कहा कि उनकी सरकार दस साल में सबको रोजगार उपलब्ध करा देगी। इस पर सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर वालों ने एक पोस्टर निकाला जिस पर लिखा था- ‘कृपया दस साल जिंदा रहिए।‘ दिल्ली में जगह-जगह ये पोस्टर चिपके दिखे।

 कुछ ही महीनों में न केवल मोरारजी के बेटे कांति देसाई के किस्से बाहर आने लगे, बल्कि जनता पार्टी और उसकी सरकार में आपसी खटपट भी शुरू हो गई। एक बड़ा मसला दोहरी सदस्यता का खड़ा हो गया। जनता पार्टी में विलीन हुई पार्टियां एक-दूसरे से तालमेल नहीं बिठा पा रही थीं। कहीं अहम् टकरा रहे थे तो कहीं सिद्धांत और कहीं हसरतें।

एक रात हसरतों का काफिला पूसा रोड की 46 नंबर कोठी तक पहुंच गया। बहुत कम लोगों को पता चला कि कब वहां संजय गांधी और राजनारायण पहुंचे और एक डील करके अपने-अपने रास्ते चले भी गए। सब जानते हैं कि उसके बाद कैसे मोरारजी देसाई सरकार को गिरा कर चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने और फिर कैसे कांग्रेस ने उन्हें तिगनी का नाच नचाया और इंदिरा गांधी सत्ता में लौटीं। आज भी अनेक लोग इंदिरा गांधी को देश का अब तक का सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री मानते हैं, लेकिन इमरजेंसी के कलंक के साथ। उन ढाई सालों में इतना कुछ घट गया कि देश राजनैतिक रूप से सात-आठ साल पीछे पहुंच गया।

जेपी आंदोलन को आज़ादी की दूसरी लड़ाई कहा गया था। इसलिए जब अन्ना हजारे के आंदोलन को कुछ लोगों ने आजादी की दूसरी लड़ाई बताया तो मुझे हास्यास्पद लगा। एक माने में इसे आजादी की तीसरी लड़ाई कहा जाना चाहिए था। लेकिन एक सवाल यह भी है कि आखिर आजादी की कितनी लड़ाइयां इस देश को लड़नी पड़ेंगी?

जेपी आंदोलन में शामिल रहे नेता आज कहां हैं और क्या कर रहे हैं, यह देख कर किसी को भी शर्म आ जाए। यह अलग बात है कि उनमें हर किसी के पास स्वयं को सही ठहराने के तर्क मौजूद हैं। दिवंगत व्यंग्यकार शरद जोशी ने एक जगह लिखा कि हमारे राजनीतिकों ने दोनों ऐसे मौके गंवा दिए जब देश किसी भी तरह के बड़े से बड़े परिवर्तन के लिए तैयार था। पहला मौका 1947 में आया था और दूसरा उसके तीस साल बाद 1977 में।

मगर मुझे लगता है कि ऐसे मौके तो कई बार आए हैं। जब भी सरकार बदलती है तो जनता किसी भी सकारात्मक बदलाव के लिए न सिर्फ तैयार रहती है बल्कि उसका इंतजार करती है। लेकिन हर बार हमारे नेता उसे निराशा थमा कर आगे निकल जाते हैं। कितनी ही सरकारें आईं और चली गईं। लोगों को मूर्ख बनाने के लिए हमारे राजनीतिक हर दफा कोई नया शगूफा लाते रहे, जबकि जनता के मुद्दे पिछड़ते रहे।

फिलहाल इन शगूफों में सबसे ऊपर हैं विकास और जीडीपी। आप जो परिवर्तन चाहते हैं उसका अक्स हमारे नेता इन दोनों भ्रामक अवधारणाओं में दिखाने में जुटे हैं। दिलचस्प यह है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों इसमें शामिल हैं। सड़कों, फ्लाईओवरों, इमारतों और पुलों को वे विकास कहते हैं। करोड़ों लोगों की बदलाव की आकांक्षा को उन्होंने इसी एक शब्द में उलझा दिया है। विकास नाम की इस चीज की असलियत यह है कि हजारों गांवों में पीने का पानी हम पहुंचा नहीं पाए और शहरों में हमें पानी खरीदना पड़ता है। स्मार्टफोन के सहारे आगे बढ़ रहा विकास हमें हमारे वास्तविक मुद्दों से दूर ले जा रहा है, जबकि दहाई को छू चुकी जीडीपी गरीबों को और गरीब बनाती चली जा रही है। टेक्नोलॉजी एक तरह से विकास और जीडीपी के फ़रेब को और दिलकश बनाने में जुटी हुई है।  

वास्तविकता यह है कि कोई सरकार चाहे तो इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ के नारे का आज भी इस्तेमाल कर सकती है, क्योंकि गरीबी कम नहीं हुई है। मीडिया पर अघोषित नियंत्रण के आज के किस्से इमरजेंसी की कहानियों को टक्कर देते लगते हैं। सरकार कोई भी हो, उदारीकरण के बाद से चली आ रही आर्थिक नीतियों ने हमारे निजी और सामूहिक जीवन में अनिश्चितता बेतरह बढ़ा दी है। ठीक वैसे ही जैसे बेरोजगारी और असमानता बढ़ रही है। सबसे बड़ी बात यह कि आप वोट देने के सिवा कुछ नहीं कर सकते। व्यवस्था के सामने आप निपट अकेले हैं। और यह अकेलापन डरावना होता जा रहा है।

इसलिए आज, इमरजेंसी के तेतालीस साल बाद, मिंटो रोड पर मिले उन बुजुर्ग सज्जन की धुंधला चुकी आकृति और उनकी आवाज एक बार फिर सजीव हो उठी है। उस दिन मैं उनके कथन पर इस कदर असमंजस में था कि कुछ बोल ही नहीं पाया था। आज मैं स्वीकार करना चाहता हूं कि उन्होंने जो कुछ कहा था, वह बिलकुल सही था। सचमुच कुछ भी नहीं बदलता। इतने दिनों में जो कुछ भी हमने बदलते हुए देखा, वह सब खोखला है। इतने दिनों बाद, मैं अपनी यह स्वीकारोक्ति उन बुजुर्ग सज्जन तक पहुंचाना चाहता हूं। लेकिन पता नहीं, अब वे जीवित भी होंगे कि नहीं।

(ख़त्म)

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘समय की चर्चा’ के संपादक हैं।)

 

भाग एक- वह इमरजेंसी लगवाने वाली रैली, बदलाव के नारे और कुछ न बदलने की भविष्यवाणी!

भाग-2- इमरजेंसी-डर और माफ़ीनामों के बाद आई वह ख़बर जिसके लिए पूरी रात जागा देश !

 



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