मुहर्रम पर विशेष….
अशोक कुमार पाण्डेय
ऐसी तमाम घटनाओं के चलते उस्मान के समय से ही तनाव शुरू हो गए थे और उनकी हत्या के बाद जब अली (अली इब्न अबी तालिब) चौथे ख़लीफ़ा बने तो भी मुस्लिम जगत में सत्ता (ख़िलाफ़त) को लेकर तनाव जारी रहे । उन्होंने मदीना की जगह कूफा को अपनी राजधानी बनाया । बहुत विस्तार से उस पर बात करना तो यहाँ संभव नहीं होगा लेकिन यह जान लेना प्रासंगिक होगा कि अली मुहम्मद साहब के दामाद थे और उनकी मृत्यु के बाद मुहम्मद साहब के अनुयाइयों का एक खेमा उन्हें ही ख़लीफ़ा बनाना चाहता था लेकिन जब वह लोग मुहम्मद साहब का कफ़न-दफ़न कर रहे थे उसी समय दूसरे खेमे ने अबू बक्र को पहला ख़लीफ़ा चुन लिया था । अली और उनके अनुयायी अल्पमत में थे और तीसरे ख़लीफ़ा उस्मान के मरने के बाद भी जब वह ख़लीफ़ा चुने गए तो उस्मान के भतीजे मुवैया प्रथम ने उन्हें नेता मानने से इंकार कर दिया । अली की ख़िलाफ़त के 6 साल (656-61) लगातार सत्ता संघर्ष में बीते और 27 जनवरी 661 को कूफा की बड़ी मस्ज़िद में फज्र की नमाज़ पढ़ते समय वह एक खरीजी (ये अली की सेना के ही हिस्सा थे लेकिन जब सिफिन के युद्ध में फैसलाकुन जंग की जगह अली ने मुवैय्या प्रथम से बातचीत का रास्ता अपनाया तो ये उनका साथ छोड़ गए । इनका मानना था कि बातचीत से ख़लीफ़ा चुनना इंसानी तरीक़ा है जबकि युद्ध में जीतकर ख़लीफ़ा का पद हासिल करना ख़ुदाई तरीका है । नाह्रवान के युद्ध में अली ने इन्हें परास्त किया था) ने उनकी हत्या कर दी । हालाँकि कूफा के अधिकांश मुसलमान उस समय अली के बड़े साहबज़ादे हसन को ख़िलाफ़त सौंपना चाहते थे लेकिन अपनी ताक़त और दौलत के बल पर मुवैय्या प्रथम ने हसन को अपनी ख़िलाफ़त स्वीकार करने पर मज़बूर किया तथा उम्मैयद वंश की नींव रखी । सन 680 में मुवैय्या प्रथम की मृत्यु के बाद जब उसका बेटा यज़ीद गद्दी पर बैठा तो अली के छोटे बेटे हुसैन ने उसे ख़लीफ़ा मानने से इंकार कर दिया । नतीजतन इराक़ में कर्बला के मैदान में हुसैन की सौ से भी कम सेना का कर्बला के अमीर की विशाल सेना से मुक़ाबला हुआ और हुसैन तथा उनके अनुयायी गाजर-मूली की तरह काट दिए गए । हुसैन की मौत के बाद उनके वंशजों पर उम्मैयद ख़लीफाओं के अत्याचार ने अली और उनके बेटों के समर्थकों को उनके और अधिक ख़िलाफ़ कर दिया । इस समूह को शिया कहा गया जिसका अर्थ है अली के परिवार के अनुयायी । शिया पहले तीन ख़लीफ़ाओं को मान्यता नहीं देते, जबकि सुन्नी उन्हें मान्यता देते हैं ।
शियाओं और सुन्नियों के बीच की अदावत धर्मशास्त्र से लेकर जंग के मैदान तक चली और एक हद तक अब भी जारी है, अभी बहुत हाल में सऊदी अरब के एक प्रतिष्ठित मुफ़्ती शेख़ अब्दुल अजीज़ अल शेख़ ने ईरानी मुसलमानों को (जिनका 95% हिस्सा शिया है) ग़ैर मुस्लिम घोषित किया है ।
सुन्नी न्यायशास्त्र और धर्मशास्त्र (फ़िक्ह) में चार प्रमुख सम्प्रदाय हैं, अबू हनीफ़ा के अनुयायी जिन्हें हनफ़ी कहा जाता है, मलिक बिन अनस के अनुयायी जिन्हें मलिकी कहते हैं, अल शफ़ी के अनुयायी शफावी और अहमद बिन हनाबल के मानने वाले हनाबली । नौवीं सदी में मुहम्मद साहब के अनुयायियों की विभिन्न परम्पराओं को एकत्र कर छः धर्मवैधानिक पुस्तकें, हदीस तैयार की गईं जो सुन्नी सम्प्रदाय का आधार हैं । शिया इन्हें मान्यता नहीं देते और अपने इमामों के बताये नियमों और परम्पराओं का पालन करते हैं । अली की परम्परा के इमामों में सबसे प्रमुख नाम जफ़र अल सादिक़ का है, शिया उन्हीं अहदीस को प्रामाणिक मानते हैं जिन्हें जफ़र स्वीकृति देते हैं । हालाँकि उनका सम्मान सुन्नी भी करते हैं और फ़िक्ह के मामलात में उनके कहे को प्रमाणिक मानते हैं । सूफ़ी भी जफ़र की शिक्षाओं का बेहद सम्मान करते हैं । उनकी एक प्रसिद्ध उक्ति है कि जो ख़ुदा को जान जाता है वह बाक़ी सब चीज़ों से पीठ फेर लेता है । सूफ़ी त्याग और वैराग्य की अपनी शिक्षाओं को इससे जोड़ते हैं।
अशोक कुमार पाण्डेय प्रसिद्ध युवा कवि और लेखक हैं। हाल ही में उनकी किताब ‘कश्मीरनामा: इतिहास और समकाल’ काफ़ी चर्चित हुई है।