गौरी लंकेश को लेकर एक ही बात फिलहाल मेरे दिमाग में बार-बार गूंज रही है। वह है गरिमा… अद्भुत गरिमा!
गौरी लंकेश अगर आज खुद के लिए लिखी गई सारी श्रद्धांजलियां और प्रशंसात्मक टिप्पणियां पढ़ पातीं, खास तौर पर वे टिप्पणियां, जिनमें आत्मा, स्वर्ग और मृत्यु के बाद वाले जीवन की बात कही गई है, तो वे दिल खोलकर हंसतीं। ठीक है, वे शायद ठहाका नहीं लगातीं, लेकिन हल्का सा कहकहा जरूर उनके मुंह से निकल जाता। अपनी किशोरावस्था में ही हम इस नतीजे पर पहुंच गए थे कि स्वर्ग और नरक और मृत्यु के बाद वाला जीवन वगैरह शुद्ध बकवास हैं। इतना सारा स्वर्ग और नरक इस धरती पर ही मौजूद है। और बहुत सारे लोगों की तरह ईश्वर के सामने अपने हाथ फैलाने के बजाय उस बेचारे को तो हमें उसके हाल पर ही छोड़ देना चाहिए, क्योंकि दुनिया की इतनी सारी मुश्किलें उसके सामने हैं कि उसका सारा समय उन्हें सुलझाने में ही खप जाता होगा। हां, हमारी सघन मैत्री की बुनियाद इस संकल्प पर टिकी थी कि हम अपने परिवार समेत किसी को भी कष्ट नहीं पहुंचाएंगे, भले ही अपनी जवानी के दिनों वाली चिर-विरोध की भावना के तहत उनके विश्वासों और जीवन शैली को लेकर हम उनसे कितने भी ज्यादा असहमत क्यों न हों। अपने इस संकल्प पर हम हमेशा अडिग नहीं रह पाते थे। उस उम्र में भला कौन रह पाता है/ लेकिन हमारा यह सिद्धांत अच्छा था और बाद के दिनों में यह हमारे लिए काफी मददगार साबित हुआ। यही वजह है कि पांच साल के अपने विवाह-पूर्व रिश्तों और पांच साल के विवाहित जीवन के बाद, अब से 27 साल पहले विवाह-विच्छेद हो जाने के बावजूद हम दोस्त बने रहे, शानदार दोस्त। यह हमारे सघन रिश्तों का अभिन्न अंग था। दुख नहीं पहुंचाना है। यहां तक कि एक-दूसरे को भी नहीं। हमारी मुलाकात एक ऐसे संस्थान में हुई थी, जो भारत के तर्कवादी आंदोलन की जन्मभूमि था। वह संस्थान था- नैशनल कॉलेज। हमारे प्रिंसिपल डॉ. एच. नरसिंहैया और श्रीलंका के प्रख्यात तर्कवादी डॉ. अब्राहम कावूर इस आंदोलन के सूत्रधारों में से थे। हमने अपनी किशोरवस्था से ही भारत के चप्पे-चप्पे पर फैले तरह-तरह के बाबाओं, साध्वियों, नीम-हकीमों और चालबाजों के साथ-साथ तमाम तरह के अंधविश्वासों पर भी सवाल उठाना और उनकी ऐसी-तैसी करना शुरू कर दिया था। ऐसा करने में हमें रोमांच महसूस होता था। ये बातें मैं इसलिए बता रहा हूं, ताकि गौरी की हत्या के संदर्भ को समझा जा सके। दरअसल भारत के दृढ़ तर्कवादी और संदेहवादी लोग आज यहां की आधुनिक दिखने वाली धर्मांध शक्तियों के निशाने पर हैं। गौरी लंकेश के बारे में कुछ ठोस बातों का जिक्र किए बगैर उनके मजबूत इरादों का अंदाजा नहीं मिल सकेगा। सिर्फ जुझारू कहने भर से तो उनका जिक्र तक शुरू नहीं हो पाएगा। कॉलेज में उन्हें मेरे सिगरेट पीने से सख्त नफरत थी। लेकिन इसके वर्षों बाद, जब मैं सिगरेट पीना पूरी तरह छोड़ चुका था, तब गौरी ने खुद सिगरेट पीना शुरू कर दिया। एक बार जब वह अमेरिका में मुझसे मिलने आईं तो मैंने उनसे कहा कि यह अपार्टमेंट चारों तरफ से बंद है। सिगरेट की गंध यहां से काफी समय तक निकल नहीं पाएगी, इसलिए यहां वह सिगरेट न पिएं। उन दिनों जाड़े का मौसम था। – ‘तो तुम क्या चाहते हो, मैं क्या करूं/’ – ‘तुमको पीनी ही है तो छत पर चली जाओ।’ – ‘लेकिन वहां तो बड़ी ठंड है और बर्फ भी गिर रही है।’ (मैंने कंधे उचका दिए।) – ‘चुगद कहीं के…तुम्हारे ही चलते मैंने सिगरेट पीना शुरू किया। ’ – ‘ओ…ओ। सॉरी बुजुर्ग बालिके, अब मैं तुमसे सिगरेट छोड़ने के लिए कह रहा हूं। ’ – ‘चलो, ठीक है…तुम तो एकदम हरामखोर अमेरिकन बन गए हो।’ – ‘इसमें अमेरिकन होने की क्या बात है। यह तो स्वास्थ्य का मामला है।’ – ‘बकबक मत करो, मैं तुमसे ज्यादा जिंदा रहने वाली हूं।’ झूठी कहीं की…। कई मित्रों को हमारी दोस्ती हैरान करती थी, आज भी करती है। अलगाव और तलाक न केवल भारत में बल्कि दूसरे देशों में भी प्राय: कड़वाहट, आरोप-प्रत्यारोप और परस्पर दोषारोपण से भरे अस्त-व्यस्त कर देने वाले प्रकरण ही हुआ करते हैं। हमारे बीच भी ऐसे पल आए, लेकिन उच्चतर आदर्शों से बंधे होने की वजह से हमने जल्द ही इन पर काबू पा लिया और इनसे आगे बढ़ गए। इसमें कोई शक नहीं कि गौरी लंकेश वामपंथी झुकाव रखती थीं। बल्कि कुछ दृष्टियों से उनके वैचारिक रुझान को अति वामपंथी भी कहा जा सकता है। बहुत सारी बातों पर हमारे बीच घोर असहमति हुआ करती थी। मैं नई तकनीकी के शुरुआती समर्थकों में था और इस बात को लेकर वह मुझे अक्सर धिक्कारती रहती थीं। नब्बे के दशक में एक बार उन्होंने मुझसे कहा था, ‘मोबाइल के कसीदे पढ़ना बंद करो, हमारे देश के गरीब लोग तुम्हारा यह सेलफोन खाकर जिंदा नहीं रह सकते।’ और इस बात को भूलने का मौका मैंने उन्हें कभी नहीं दिया। लेकिन उनका दिल हमेशा ठिकाने पर रहता था। और आज, इस वक्त, जब मैं जहाज पकड़ने की अफरा-तफरी के बीच यह सब लिख रहा हूं, तो मेरा दिमाग तितर-बितर हुई पड़ी स्मृतियों की खौलती कड़ाही बना हुआ है। गौरी लंकेश को लेकर एक ही बात फिलहाल मेरे दिमाग में बार-बार गूंज रही है, और वह है गरिमा… अद्भुत गरिमा! बाकी सब कुछ भूल जाइए। वामपंथी, उग्र सुधारवादी, हिंदुत्व विरोधी, सेक्युलर… जो सारे लेबल उन पर लगे या लगाए गए, वह सब भूल जाइए। मेरे लिए उनकी एक ही पहचान है: मेरी दोस्त, मेरा पहला प्यार… वह अद्भुत गरिमा का सर्वोच्च, साक्षात रूप थीं। चिदानंद राजघट्टा (लेखक टाइम्स ऑफ इंडिया के वॉशिंगटन डीसी संवाददाता हैं। यह लेख आज के नवभारत टाइम्स के संपादकीय पृष्ठ पर छपा है। साभार प्रकाशित) |