भाऊ कहिन-1
इस बार उन्होंने लंबे समय तक दैनिक जागरण के लखनऊ में संपादक रहे दिवंगत विनोद शुक्ल के बारे में जो लिखा है,वह हिंदी पत्रकारिता और सांप्रदायिक राजनीति के रिश्तों के लिहाज़ से ग़ौर करने लायक़ है। यह आँखों देखा हाल 6 दिसंबर 1992 का है यानी जिस दिन अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ी गई… …पढ़िये–
तुमने कहा था , लो राजशेखर , 6 दिसम्बर 1992
लगता है अखबार का पक्ष या रुझान (इनक्लीनेशन ) यहीं तय हो गया । भले आत्मरक्षा की ही नीयत से घबरा कर ही सही या आतताई शर्तों के आगे समर्पण में , अखबार के दिशा की बहुत साफ लकीर , विनोद शुक्ल जी ने खींच दी । अयोध्या से ही कंटेट पुनर्परिभाषित ( रीडिफाइन ) हुआ ।
शुक्ल जी दैनिक जागरण समूह की बहुत निर्णायक और प्रभावी शख्सियत थे । लखनऊ , गोरखपुर (अपने आज वाले रूप में ) , आगरा , बरेली आदि कई यूनिट उन्हीं की स्थापना थीं । हम सब में ही नहीं , बाहर की भी दुनिया में शुक्ल जी की धाक मालिक वाली थी ।
उस समय अयोध्या बेहद उत्तेजक , हिंसक और न लिख सकने लायक नारों और भयानक चिल्लाहटों में डूब गई थी । भारत का नाम और नक्शा दोनों फड़फड़ा रहे थे और कुछ ही क्षणों में जैसे सब कुछ बदल जाने वाला था । हर तरफ हुंकार ।
6 दिसम्बर की सुबह विवादित ढांचे या बाबरी मस्जिद के सामने विश्व हिन्दू परिषद , हिन्दू जागरण मंच और बजरंग दल के लोग 7 बजे से ही जुटने लगे । बताया गया कि तकरीबन 8 बजे से कार सेवा शुरू होगी । माइक पर ऐलान हुआ कि विजया राजे सिंधिया , लालकृष्ण आडवाणी , मुरली मनोहर जोशी , कल्याण सिंह और साध्वी ऋतम्भरा सहित कई कारसेवा करेंगे ।
अचानक विश्व हिन्दू परिषद के लोगों ने कार सेवा वाली इस जगह से बाहरी लोगों को हटाना शुरू किया । बजरंग दल के लोग भीड़ में काम्बिंग करने लगे । कथित बाहरी को घसीट – घसीट कर बाहर किया जाने लगा । फिर तो पत्रकारों की पिटाई ही शुरू हो गई ।
विनोद शुक्ल जी पर भी मराठी और आंध्र के कुछ कारसेवकों ने हमला बोल दिया । उनके साथ मार्क टुली भी थे । विनोद जी चिल्लाते रह गए — मी विनोद शुक्ल …दैनिक जागरण …… न्यूज पेपर … हिन्दू प्राइड … हिंदुत्वा ….। उनका कैमरा छीन लिया गया और उनकी कार की छत पर खड़े होकर कुछ लड़के भगवा फहरा रहे थे ।
पेट में किसी ने एक घूंसा मारा । कहा बोल – जै श्री राम । चोट से बिलबिलाते शुक्ल जी ने दोनों हाथ ऊपर उठाये — जय श्री राम ।
लेकिन अनिल कुमार यादव में तो लोहा ही दूसरा था । उन्हें तकरीबन 8-10 कारसेवक घेरे थे और अनिल अकेले की अपनी ताकत भर , उनसे उलझ चुके थे । कुछ भी हो सकता था अब उनके साथ , इस हालात से उन्हें मैंने निकाला । मुंह और बालों में भगवा उन्माद या विजयोल्लास का अबीर रगड़ा और माथे पर जय श्रीराम की पट्टी बांधी । अनिल को कारसेवकों के चंगुल से निकाला और भागा ।
राघवेंद्र दुबे