आशाराम को आजीवन क़ैद की सज़ा हो गई। वह इतने लंबे समय तक भक्ति और धर्म के नाम पर कुकर्म करता रहा क्योंकि राजनेताओं से लेकर बड़े-बड़े संपादक तक उसके चरणों में लोटते रहे। उसने अपने भक्तों के परिवारों को भी नहीं बख्शा। हैरानी की बात है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बीजेपी के बड़े-बड़े नेता उसे निर्दोष बताते रहे जबकि उसने स्वयंसेवक की भी जान ली थी। हरियाणा के वरिष्ठ पत्रकार धीरेश सैन की यह रिपोर्ट मीडिया विजिल पर पिछले साल प्रकाशित हुई थी, जिसे हम आज यानी 26 अप्रैल 2018 को फिर प्रकाशित कर रहे हैं ताकि समझा जा सके कि सच का झंडा बुलंद करने वालों को किन तक़लीफ़ों से गुज़रना पड़ता है। चाहे पुलिस वाला हो या पत्रकार-संपादक
धीरेश सैनी
यह करनाल में बिताए गए दिनों की बात है। करनाल के सेक्टर-12 में आसाराम का शो (सत्संग) चलना था। इससे पहले एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की गई थी। जिसे आसा के चेले रमेश भाई ने संबोधित किया था। आसाराम अपनी रंग-रलियों के लिए कुख्यात हो चुका था। लेकिन तब तक शायद वह ऑन रेकॉर्ड फंसा नहीं था। पत्रकारों ने दबी जबान में कुछ जिज्ञासाएं कीं तो रमेश भाई ने बड़े बोल्ड ढंग से कुछ अग्रेसिव बातें कर सबको हैरान कर दिया था। हमें कंट्रोल रूम का एक फोन नंबर भी उपलब्ध कराया गया था।
करनाल में ‘पंजाब केसरी’ में एक पत्रकार ‘गांधी’ ने उसे लेकर एक स्टोरी छाप दी थी। स्टोरी सनसनीखेज थी और ऐसी स्टोरी पंजाब केसरी में ही छप पानी संभव थी। शायद उसमें सीधे किसी का नाम नहीं था पर संत बाबा को आराम से पहचाना जा सकता था। स्टोरी में दावा किया गया था कि पूर्व में कभी एक बाबा करनाल में अपने एक धनाढ्य भक्त के यहां रुका था। उसके लिए भक्त ने विशेष रूप से जो कक्ष तैयार कराया था, वह चंदन की लकड़ी से मढ़ा गया था। मशहूर पंक्तियां हैं- ‘संत न छोड़े संतई कोटिक मिले असंत/चंदन विष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग।’ लेकिन यह भी है कि चंदन का साथ भुजंग की डसने की प्रवृत्ति में कोई बदलाव नहीं लाता। उसे कुसंत पर भी न कोई असर उस परिवार की भक्ति का पड़ा और न चंदन के कक्ष का। मौका लगते ही उसने इस भक्त परिवार की महिला के साथ अभद्रता की होगी और हंगामा हुआ होगा। मामला थाने-कचहरी तक तो नहीं पहुंचा पर भक्त परिवार ने इस बाबा की ‘हत्तेरी-दुत्तेरी’ कर उससे तर्क-ए-ताल्लुक कर लिया था। यह स्टोरी मैं ‘गप-कथा’ ही समझता रहता, अगर वह वाकया न होता।
करनाल में कारों से जुड़ा काम करने वाला एक युवा मित्र राहुल राणा एक शाम अपने एक ड्राइवर के साथ मेरे ऑफिस में आया। उसने बताया कि एक दिन पहले वह ड्राइवर गाड़ी ठीक कराने के लिए पानीपत गया था। देर शाम तक गाड़ी ठीक कराने के बाद कुछ देर पानीपत रुककर रात में वह गाड़ी लेकर करनाल लौटा तो उसने हाइवे से निर्मल कुटिया मोड़ से शहर में एंट्री की। इसी रास्ते पर सेक्टर-12 ग्राउंड में आसाराम के सत्संग का पंडाल सजा हुआ था। ड्राइवर अनजान था कि उसकी कार का पीछा किया जा रहा है। सामान्य अस्पताल चौक तो क्रॉस करते ही कुछ बाइक सवारों ने फिल्मी अंदाज में उसकी कार रुकवा ली। उसे ड्राइवर सीट से हटाकर एक युवक ने उसकी कार को वापस मोड़ लिया। उसे कार समेत अगवा कर सत्संग पंडाल में ले जाया गया। उसके साथ मारपीट कर पूछा जाता रहा कि बापू के खिलाफ उसे किस साजिश में शामिल किया गया है। ड्राइवर हैरान-परेशान था। आसाराम के गुंड़ों ने उसे बताया कि वह पूरे दिन पानीपत में फलां वर्कशॉप में क्या करता रहा और वहां से उसे क्या काम सौंपा गया। दरअसल वह वर्कशॉप करनाल के उसी परिवार की थी जिसके बारे में पंजाब केसरी ने स्टोरी छापी थी।
आसाराम को आशंका थी कि वह परिवार कोई बखेड़ा खड़ा कर सकता है। इसलिए उसने अपने जासूस उसकी वर्कशॉप के आस-पास छोड़ रखे थे। इस कार का नंबर करनाल में आसाराम के कंट्रोल रूम को दिया गया था या फिर उसका पीछा पानीपत से ही किया जा रहा था, कहना मुश्किल है। ड्राइवर ने बताया कि उसे किस वजह से पानीपत में दिनभर रुकना पड़ा। काफी पूछताछ और प्रताड़ना झेलने के बाद ड्राइवर उन गुंड़ों को यक़ीन दिला पाया कि वह एक आम आदमी है और उसका किसी साजिश से कोई लेना-देना नहीं। उसे एक टॉफी दी गई और कहा गया कि यह बापू का प्रसाद है। उसे धमकी दी गई कि वह इस बात का जिक्र किसी से न करे।
उस रात ड्राइवर वाकई बुरी तरह डर गया था। अगले दिन उसने राहुल राणा से इस बात का जिक्र किया। ड्राइवर को लेकर राहुल सेक्टर-13 पुलिस चौकी में पहुंचा। तब सेक्टर-13 पुलिस चौकी इंचार्ज थे निर्मल। निर्मल युवा अधिकारी थे और मेरे अवनुभवों के लिहाज से बेहतर इंसान थे। अब वे बड़े अधिकारी हो चुके होंगे और नौकरी के दंद-फंद सीख चुके होंगे। तब उन्होंने युवोचित स्वभाव से केस की गंभीरता को समझा और यह परवाह नहीं की कि जिसके खिलाफ शिकायत की जा रही है, उसका नेटवर्क कितना बड़ा है। निर्मल ने जरा भी टालमटोल किए बगैर शिकायत को रिसीव कर उसकी स्टाम्प लगी कॉपी शिकायतकर्ता को दे दी। मैं यह सब सुनकर सकते में था। मैं सोच भी नहीं सकता था कि आसाराम मंडली किसी क्रिमिनल गैंग की तरह काम करती है। पुराने झगड़े को ध्यान में रखकर फिल्मी ढंग से किसी के घर-प्रतिष्ठान पर इस तरह नज़र रखवाई जा सकती है और इस तरह किसी को भी अगवा कर पूछताछ की जा सकती है। मेरे पास पुलिस को दर्ज कराई गई शिकायत की कॉपी भी थी और शिकायतकर्ता भी सामने बैठा था। राहुल इस उम्मीद से आया था कि मेरे अलावा उस ख़बर को कोई और छापेगा नहीं।
आसाराम का जैसा जलवा था, उसे देखते हुए यह तय था कि वर्सन के बिना ख़बर नहीं छपेगी। हालांकि, मैं वर्सन लेने के सिद्धांत को खारिज करता रहा हूं। जब तक डेस्क पर वर्सन की परवाह किए बिना मुझ पर यक़ीन कर खबर छाप देने वाले रहे, मैंने जलवाफरोज़ लोगों से जुड़ी सनसनी वाली खबरों में वर्सन नहीं लिया। अगले दिन वर्सन आ ही जाना होता है लेकिन खबर के साथ वर्सन लेने का मतलब होता है, खबर रुकवा देने की कोशिशें शुरु हो जाना। ऐसे लोगों के हाथ लंबे होते हैं। पहले लालच और धमकी देते हैं और फिर सीधे संपादक और मालिकों से संपर्क कर लेते हैं।
बहरहाल मैंने उस नंबर पर फोन मिलाया जो प्रेस कॉन्फ्रेंस में उपलब्ध कराया गया था। मैंने अपना परिचय देकर रमेश भाई से बात कराने की गुजारिश की पर उनके पूजा में व्यस्त होने की बात कहकर फोन रख दिया। मैंने कई बार फोन मिलाया और हर बार इसी तरह के जवाब आते रहे तो हारकर कहा कि मेरे पास इस तरह की खबर है। आसाराम अपना पक्ष रखना चाहते हैं तो फोन कर सकते हैं। पांच मिनट के अंदर ही रमेश भाई का फोन आ गया। लल्लो-चप्पो टाइप बातों के बेअसर देखकर उन्होंने तेवर दिखाने शुरु किए। जब उन्हें लगा कि उनका कोई असर नहीं पड़ रहा है और मेरे पास पुलिस की शिकायत की कॉपी है तो उन्होंने कहा कि मामला ग़लतफहमी का था। मैंने पूछा कि किस तरह की गलतफहमी। आखिर उस परिवार से उन्हें क्या खतरा है। खुद को फंसते देख उन्होंने कहा कि कुछ लोग साजिशें कर रहे हैं। एक रात पहले पंडाल में आग लगाने की कोशिश भी हो चुकी है। मैंने कहा कि आपने इस बारे में पुलिस में कोई शिकायत क्यों नहीं की। इस तरह जासूसी कराना और किसी को कार समेत अगवा कर प्रताड़ना देना संतई नहीं बल्कि गुंडई है।
खबर की पुष्टि हर तरह हो चुकी थी। वर्सन भी था, दस्तावेज भी। मुझे लगा कि या तो एक्सक्लूसिव खबर पहले पेज पर जाएगी या दफ़्न कर दी जाएगी। कुछ देर बाद ही ‘अमर उजाला’ के हरियाणा के संपादकीय प्रमुख का नोएडा से फोन आया। वे बोले कि ख़बर बहुत अच्छी है। उन्होंने मेरी तारीफ की और फिर कहा कि तुम समझते हो न, यह आस्थाओं का देश है। तय हो गया कि खबर नहीं छपेगी। तभी पता चला कि हड़कंप मच चुका है। पुलिस चौकी के साहसी इंचार्ज निर्मल पर एसपी भड़क चुके थे। एसपी नाराज थे कि चौकी इंचार्ज में कॉमन सेंस नाम की कोई चीज़ नहीं है। उसे देखना चाहिए कि कितने ताकतवर आदमी के खिलाफ किसी से भी शिकायत लेकर दर्ज कर ली। एसपी ने चौकी इंचार्ज को कहा कि उसकी गलती से ऊपर की फटकार झेलनी पड़ी है। उन दिनों प्रदेश में इनेलो-भाजपा गठबंधन की सरकार थी जिसके मुखिया ओमप्रकाश चौटाला था। एसपी का ऊपर से फटकार का मतलब सरकार से था या आईजी, डीआईजी, डीजीपी से, नहीं पता।
अख़बार में काम करने वाले ख़बरों की हत्या के आदी हो जाते हैं लेकिन कोई भी हो किसी प्रिय इंसान की हत्या से कैसे उबर सकता है? आसाराम और उसके बेटे से मेरी अंतहीन नफ़रत की वजह उस युवक की हत्या भी है, जो प्रिय किशोर अखिल के रूप में मेरी स्मृति में अमिट है। जेल में बंद आसाराम और उसके बेटे नारायण के खिलाफ खड़े गवाहों की हत्याओं के अभियान में अखिल को भी जान से हाथ धोना पड़ा था।
नए सिरे से कुछ लिखने के बजाय 13 जनवरी 2015 को फेसबुक पर लिखी गई पोस्ट यहां चिपका रहा हूँ—
आसाराम के प्रेम में मत भूलो मिस्टर अशोक सिंघल, मरने वाला संघ परिवार से ही था। पर, नहीं वह हमारे परिवार से था। मुज़फ़्फ़रनगर के लोहिया बाज़ार से, अबुपुरा से, गली काज़ियान से यानी मेरे अपने परिवार से था अखिल गुप्ता। लोहिया बाज़ार में सब्जी मंड़ी के ठीक सामने गली काज़ियान कितने ही सालों तक अपना पक्का ठिकाना रही। और इस गली की अशोक की चाय की दुकान को लगभग अपने ऑफिस का दर्जा हासिल रहा। इसी चाय की दुकान की बराबर में उस जमाने की बेहद कामयाब प्रिंटिंग प्रेस थी अलंकार प्रिंटिंग प्रेस। इसे संभालते थे नरेश गुप्ता जिन्होंने वकालत भी कर रखी थी। प्रेस के बाकी साझीदार जिनमें बीजेपी के कई नेता शामिल थे, यहां कम ही आते थे। आसाराम के खिलाफ गवाह होने के कसूर में मार दिए गए अखिल से यहीं मुलाकातें होती थीं। गली के आम `लौंडे-लपाड़ों` से अलग बड़े घरों के बच्चों की तरह ठीक से क्रीज वाली पेंट वाला किशोर था अखिल। हम गली के हुड़दंगियों से निश्चित दूरी रखने वाले इस किशोर की कम से कम मुझ पर नज़र-ए-इनायत थी। मुझे उससे भैया नमस्ते और बातचीत के मौके मिलते थे। उसके बाबा संघ से जुड़े थे, पापा भी। बाद में प्रेस बंद हो गई। मैं हरियाणा आ गया। मैं समझता था कि वह कहीं इंजीनियर-डॉक्टर ही होगा। बीच में पता चला कि अखिल को उसके पिता ने किसी गुरु को समर्पित कर दिया। उसकी छवियां जो मेरे दिल-दिमाग में थीं, इस तरह किसी बाबा को सौंप दिए जाने की हकीकत से फिट नहीं होती थीं। अभी पिताजी के निधन की वजह से गांव रहना हुआ तो शहर के लोहिया बाज़ार के दोस्तों से पता चला कि अखिल और उसकी पत्नी आसा के आश्रम से आ गए हैं और पुलिस आसा की करतूतों के सिलसिले में उन्हें पूछताछ के लिए ले गई थी। वे सरकारी गवाह बन गए हैं।
कल सुबह अखिल गुप्ता के मर्डर की खबर ने हिलाकर रख दिया। जो पुराने दोस्त मुझे जानते हैं, वे समझते हैं कि उस लोहिया बाज़ार, अबुपुरा और गली काज़ियान की अपने दिल में क्या जगह है। अतार्किक किस्म की मुहब्बत जानिये। अखिल 32 साल का था, आसे का पूर्व रसोइया था, उसे कोई स्पेशल किस्म की गोली मार दी गई थी लेकिन मेरे भीतर उसकी वही अबुपुरा के अपने घर से तैयार होकर निकले किशोर की गली काज़ियान में अपनी प्रिंटिंग प्रेस पर पहुंचने वाली छवि और भैया नमस्ते वाली छवि तैर रही है। उसके चाचा डॉ. उमेश हमारे कई मित्रों के निकट हैं। उऩके एक चाचा की आइसक्रीम फैक्ट्री के रहते किसी प्रोग्राम के आयोजन की फिक्र ही नहीं रही। असल में वह अपने परिवार का बच्चा था।
लेकिन, संघ परिवार के लिए वह अपना नहीं था। आसा की करतूतों के साथ पहले दिन से संघ परिवार के लोग खड़े हैं। अटल उसके साथ नाचते रहे हैं। उमा उसके पक्ष में बोलती रहीं और अखिल के मर्डर से पहले संघ परिवार के वरिष्ठतम लोगों में से एक अशोक सिंघल आसे के लिए मुखर हो रहे थे। कथित मजबूत सरकार ने आसे को खुली छूट दे रखी है। राजस्थान सरकार उसके खिलाफ केसों में कमजोर रवैया अपना रही है। अब उसके खिलाफ पड़ रहा किसी स्वयंसेवक के परिवार का युवा कत्ल कर भी दिया जाता है तो उन्हें क्या? `संत संस्कृति` की रक्षा जरूरी है?
अखिल को श्रद्धांजलि।
और चार बच्चे पैदा कर एक सौंप देने की बातों को सुनने के साथ प्रिय अखिल का उदाहरण भी देखिएगा।
.धीरेश सैनी हरियाणा के वरिष्ठ पत्रकार हैं।