‘हलाल’ होते लोकतंत्र की शिनाख़्त !

प्रियदर्शन

 

‘हाऊ डेमोक्रेसीज़ डाई’ (लोकतंत्र कैसे मरते हैं.) दो अमेरिकी प्रोफ़ेसरों- स्टीवन लेवित्स्की और डेनियल ज़िब्लैट– की किताब है। 2018 में प्रकाशित इस किताब में लेखकद्वय लिखते हैं कि किस तरह अमेरिका जैसा मज़बूत लोकतंत्र भी ख़तरे में है। वे अधिनायकवादी शासकों को चिह्नित करने का फार्मूला भी देते हैं। किताब मूलत: अमेरिका और यूरोप के अनुभव पर है, लेकिन इसे पढ़ते हुए भारत का ख़याल आता है। आज बैठे-बैठे इसके कुछ बहुत छोटे हिस्सों का अनुवाद कर डाला। यह रहा अनुवाद-

क्या हमारा लोकतंत्र ख़तरे में है? यह वह सवाल है जो हमने कभी सोचा नहीं था कि हमें पूछना पड़ेगा। हम 15 साल से सहकर्मी रहे हैं, लिखते रहे हैं, विचार करते रहे हैं, दूसरी जगहों और दूसरे ज़मानों में लोकतंत्र की नाकामियों के बारे में छात्रों को पढ़ाते रहे हैं- यूरोप का अंधेरा 1930 का दशक, लैटिन अमेरिका का 1970 का दमनकारी दशक। हमने दुनिया भर में उभरते अधिनायकवाद के नए रूपों पर शोध करते हुए कई बरस लगाए हैं। हमारे लिए यह एक पेशेवर झक्क का विषय रहा है कि लोकतंत्र क्यों और कैसे मरते हैं?

लेकिन अब हम पा रहे हैं कि हम अपने देश की ओर मुड़ रहे हैं। बीते 2 वर्षों में हमने नेताओं को वह सब करते और कहते देखा है जो अमेरिका में अकल्पनीय था- लेकिन जिसे हम दूसरी जगह पर लोकतांत्रिक संकट के अगुआ के तौर पर पहचानते रहे हैं। हम, और बहुत सारे अमेरिकी लोग, डरे हुए हैं- हालांकि खुद को भरोसा दिला रहे हैं कि चीज़े यहां इतनी बुरी नहीं हो सकतीं। आख़िरकार, भले ही हम जानते हैं कि लोकतंत्र हमेशा भंगुर रहे हैं, हम जहां रहते हैं उसने गुरुत्व के इस नियम को चुनौती देने में कामयाबी हासिल की है। हमारा संविधान, समानता और स्वतंत्रता में हमारी राष्ट्रीय आस्था, हमारा ऐतिहासिक तौर पर ठोस मध्यवर्ग, शिक्षा और समृद्धि का हमारा ऊंचा स्तर, और हमारा विशाल, विविधतापूर्ण निजी क्षेत्र- यह सब हमें उस तरह की लोकतांत्रिक टूटन से बचाए रखते हैं जो दूसरी जगहों पर घटित हुए हैं।

तब भी हम चिंतित हैं। अमेरिकी नेता अब अपने विरोधियों को दुश्मन की तरह देखते हैं, स्वतंत्र प्रेस को डराते हैं और चुनाव के नतीजों को अस्वीकार करने की धमकी देते हैं। वह हमारे लोकतंत्र की उन संस्थाओं को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं जो क्षरण रोकने के लिए हैं- अदालतों, ख़ुफ़िया एजेंसियों और एथिक्स ऑफिस तक को। अमेरिका अकेला नहीं है जहां यह हो सकता है। विद्वानों में यह चिंता लगातार बढ़ रही है कि दुनिया भर में लोकतंत्र खतरे में हो सकते हैं- उन जगहों पर भी जहां इनका वजूद बिल्कुल निश्चित माना जाता है। लोकप्रियतावादी सरकारों ने हंगरी, पोलैंड और टर्की में लोकतांत्रिक संस्थाओं पर चोट की है। अतिवादी ताकतों को ऑस्ट्रिया, फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड्स और यूरोप में दूसरी जगहों पर नाटकीय चुनावी बढ़त मिली है। और अमेरिका में, इतिहास में पहली बार, एक ऐसे आदमी को राष्ट्रपति चुना गया है जिसके पास सार्वजनिक सेवा का कोई अनुभव नहीं है, संवैधानिक अधिकारों को लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखती, और जिसमें बहुत साफ़ अधिनायकवादी प्रवृतियां हैं।

चुने हुए अधिनायकवादी किस तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं को तहस-नहस करते हैं जो उन्हें नियंत्रित कर सकती हैं? कुछ लोग एक ही झटके में यह काम करते हैं। मगर ज़्यादातर लोकतंत्र पर यह हमला धीरे-धीरे शुरू होता है। बहुत सारे नागरिकों के लिए, पहली बार, यह‌ अकल्पनीय होता है। आख़िर चुनाव हो रहे होते हैं। विपक्ष के नेता अब भी सदन में होते हैं। स्वतंत्र अखबार अब भी बंटते हैं। लोकतंत्र का क्षरण बहुत धीरे-धीरे होता है- अक्सर शिशु पदचाप की तरह। हर एक क़दम मासूम प्रतीत होता है- किसी से नहीं लगता कि लोकतंत्र को ख़तरा है। वस्तुतः लोकतंत्र को पलटने के सरकारी कदमों को अक्सर वैधता का एक मुलम्मा मिल जाता है: उन्हें संसद की स्वीकृति मिली होती है या फिर सुप्रीम कोर्ट द्वारा जायज़ क़रार दिया जाता है। इनमें से बहुत सारे क़दम कुछ वैध- यहां तक कि प्रशंसनीय- सार्वजनिक मकसदों की आड़ में उठाए जाते हैं, जैसे चुनावों को ‘साफ सुथरा’ बनाना, भ्रष्टाचार से लड़ना, लोकतंत्र का स्तर बेहतर करना, या राष्ट्रीय सुरक्षा बढ़ाना।

चुने हुए अधिनायक किस सूक्ष्मता से संस्थाओं को कमज़ोर करते चलते हैं, इसे ठीक ढंग से समझने के लिए फुटबॉल के एक खेल की कल्पना करें। ख़ुद को मज़बूत करने के लिए होने वाले अधिनायक को रेफरी को अपनी ओर मिलाना होगा, दूसरी ओर के कुछ बड़े खिलाड़ियों को किनारे करना होगा, और खेल के नियमों को इस तरह बदलना होगा कि वे उसके माकूल पड़ें, जिसका कुल असर यह होगा कि खेल का मैदान विपक्षियों के ख़िलाफ़ झुक जाए।

रेफ़रियों को अपने पक्ष में कर लेना हमेशा मददगार होता है। आधुनिक राज्य के पास बहुत सारी एजेंसियां होती हैं जिनके पास आम नागरिकों से लेकर सरकारी अधिकारियों तक की जांच करने और किसी ग़लती पर सज़ा देने का अधिकार होता है। इनमें न्यायिक व्यवस्था होती है, कानून लागू करने वाले निकाय होते हैं, और ख़ुफ़िया, टैक्स और नियामक एजेंसियां होती हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में ऐसी संस्थाओं को तटस्थ मध्यस्थ के रूप में काम करने के लिए बनाया जाता है। इसीलिए, किसी होने वाले अधिनायक के लिए न्यायिक और कानून पर अमल कराने वाली एजेंसियां एक चुनौती भी होती हैं और एक अवसर भी। अगर वे स्वतंत्र रहती हैं तो सरकार की गड़बड़ियों को उजागर कर सकती हैं और उसे इसके लिए दंडित भी कर सकती हैं। आखिर जालसाज़ी रोकना रेफ़री का ही काम है। लेकिन अगर इन एजेंसियों को वफादारों द्वारा नियंत्रित कर लिया जाता है, तो वे होने वाले तानाशाह के मक़सद में मदद कर सकती हैं- सरकार को जांच से और आपराधिक कार्यवाही से बचाते हुए, जिसकी वजह से उसे जाना पड़ सकता है। राष्ट्रपति कानून तोड़ सकता है, नागरिकों के अधिकार के लिए खतरा बन सकता है, और संविधान का भी उल्लंघन कर सकता है बिना इस बात की परवाह किए कि ऐसी गड़बड़ियों की जांच होगी या उन्हें रोका जाएगा। अदालतों में अपने लोग हों और क़ानून पर अमल करने वाली एजेंसियां घुटनों पर ले आई जाएं तो सरकार बेरोकटोक चल सकती है।

रेफ़री पर कब्ज़ा कर लेने से सरकार को अपने लिए एक कवच से ज़्यादा कुछ हासिल होता है। यह एक ताकतवर हथियार भी बन जाता है जिससे सरकार को क़ानून को अपनी सुविधा से लागू करने की छूट मिल जाती है, मित्रों को बचाया जा सकता है जबकि विरोधियों को दंडित किया जा सकता है। विरोधी नेताओं, कारोबारियों और मीडिया समूहों को निशाना बनाने के लिए टैक्स अधिकारियों का इस्तेमाल किया जा सकता है। पुलिस विरोधियों के प्रदर्शन पर दमनात्मक कार्रवाई कर सकती है, जबकि सरकार समर्थक ठगों की हिंसक कार्रवाइयों को अनदेखा कर सकती है। खुफिया एजेंसियों का इस्तेमाल आलोचकों की जासूसी करने और उन को ब्लैकमेल करने के लायक सामग्री जुटाने के लिए किया जा सकता है।

 



प्रियदर्शन एनडीटीवी से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनके फ़ेसबुक पेज से साभार।



 

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