यहां से देखाे : किसने पैदा किया ‘अपने और पराये’ का भेद?

जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाये ढाई महीने से अधिक हो गये, लेकिन कश्मीरियों की त्रासदी खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। शुरू में कश्मीर से कई दिनों तक अखबारों का निकलना बंद रहा जबकि सरकार का कहना था कि राज्य में किसी तरह का कोई प्रतिबंध नहीं है। दूसरी तरफ कश्मीर की जनता को मूलभूत सुविधाओं से महरूम कर दिया गया है।

वहां के अवाम की परेशानियों से हालांकि देश की जनता को कुछ भी लेना-देना नहीं रह गया है। कश्मीर के जो हालात हैं- वहां के बारे में छन कर मिलने वाली जानकारी के अनुसार- किसी त्रासदी से ज्यादा भयावह हैं। यह त्रासदी प्रकृति-प्रदत्त नहीं है बल्कि दिल्ली के तख्त पर बैठी हुकूमत की देन है।

जिस दिन, मतलब 5 अगस्त 2019 को, अमित शाह ने संसद में अनुच्छेद 370 खत्म करने की बात कही, उसी दिन से इसका असर पूरे देश में दिखने लगा। कश्मीर की जनता के लिए यह त्रासदी था तो देश के बाकी हिस्से में पटाखे फोड़े जा रहे थे, मिठाइयां बंट रही थीं। सवाल है कि एक छोटे से हिस्से को छोड़कर पूरे देश में खुशियां क्यों मनायी जा रही थीं? आखिर ऐसा कौन सा नैरेटिव तैयार किया था कि जिसके लिए कश्मीरी समुदाय को सबसे अधिक पीड़ा भोगनी पड़ रही है, उनकी जान जा रही है, उन्हें दवा मिलना भी लगभग असंभव सा हो गया है (क्योंकि यह कॉलम लिखे जाने तक वहां हर दिन सिर्फ दो घंटे के लिए दवा की दुकान खुल रही है)।

स्थानीय अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है। वहां के लोग जीने के मोहताज हो गए हैं, लेकिन इसके ठीक उलट पूरे देश के लोगों में उत्साह है! आखिर क्यों? इस बात को समझने के लिए तीन-चार उदाहरण लिये जा सकते हैं। 5 अगस्त की शाम तकरीबन साढ़े सात बजे दिल्ली के प्रेस क्लब के सामने एनडीएमसी के बनाये शौचालय में एक सज्जन कान पर जनेऊ लपेट कर पेशाब करते हुए किसी सज्जन से जोर-जोर से मोबाइल पर बात करते हुए कह रहे थे कि अच्छा हुआ 370 को हटा दिया गया है क्योंकि अब वह भी श्रीनगर में ज़मीन खरीद सकता है।

दूसरा उदाहरण वहां से थोड़ी दूरी पर स्थित कांस्टीट्यूशन क्लब का है। रात के तकरीबन नौ बजे सुरक्षा गार्ड आपस में बात करते हुए कह रहे हैं कि सरकार ने यह बहुत ही बढ़िया फैसला लिया है, वे भी अब जरूरत पड़ने पर कश्मीर में संपत्ति खरीद सकते हैं! तीसरा उदाहरण दिल्ली से 1500 किलोमीटर दूर पुणे की है जहां रेलवे स्टेशन के बगल में चाय की दुकान पर 6 अगस्त को तीन चार लोग आपस में बात कर रहे हैं जिसका सार संक्षेप वही है कि वे भी अब कश्मीर में जमीन खरीदने के हकदार हो गये हैं। इसके अलावा दिल्ली से पूरब में स्थित लगभग 1500 किलोमीटर दूर बिहार का एक आदमी फोन पर कह रहा है कि मोदी सरकार ने यह अच्छा फैसला लिया है, अब वह भी कश्मीर में जमीन खरीदने के बारे में सोच सकता है!

उपर्युक्त चारों घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी या भुक्तभोगी मैं रहा हूं। प्रेस क्लब के सामने शौचालय में पेशाब करने वाले सज्जन की वेशभूषा देखकर बताया जा सकता था कि उनकी हैसियत बमुश्किल दस से बारह हजार कमाने वाले की रही होगी। उससे बदतर या वही हाल कांस्टीट्यूशन क्लब के दोनों गार्डों का रहा होगी जो किसी तरह आठ से दस हजार रूपये कमाते होंगे। कमोबेश उसी हैसियत के पुणे के लोग भी रहे होंगे जो किसी तरह खुद के खर्च में से कटौती कर के अपने परिवार को पाल रहे होंगे।

बिहार के चौथे सज्जन की कहानी शायद उससे भी बदतर है। उनके पास जमीन तो है लेकिन खेती में बढ़ रहे खर्च की वजह से खेती तबाह हो गयी है। उस व्यक्ति का हाल तो यह है कि वह आज तक जिला मुख्यालय में भी अपने रहने के लिए जमीन नहीं खरीद पाया है, लेकिन 370 के हटने के बाद वह भी श्रीनगर में जमीन खरीदने का ख्वाहिशमंद है। इतना ही नहीं, बिहार का ही एक व्यक्ति, जो कट्टर लालूवादी है उसने इस लेखक से पूछा कि “अगर धारा 370 को हटाना इतना ही आसान था तो इसे आज तक हटाया क्यों नहीं गया था?”

कुल मिलाकर यह कि जो लोग जम्मू-कश्मीर में जमीन खरीदने को लालायित हैं, वे सभी भाजपाई नहीं हैं लेकिन अधिकांश लोगों की कश्मीरी महिलाओं के प्रति अपमानजनक सोच के अलावा लगभग सबकी इच्छा श्रीनगर में अपना घर बनाने का भी है।

इसलिए यहां बेहद जरूरी सवाल यह है कि बीजेपी ने किस तरह पूरे देश के माइंडसेट पर कब्जा कर लिया है कि चारो तरफ लोग वही बोल रहे हैं जो बीजेपी चाह रही है। अन्यथा यह कैसे हो सकता है कि जो व्यक्ति बिहार या अन्य पिछड़े राज्यों से पलायन करके दिल्ली जैसे बड़े महानगरों में छोटी-मोटी मजदूरी करके किसी तरह अपना पेट पाल रहा है, उसकी ख्वाहिश भी श्रीनगर में जमीन खरीदने की हो गई।

हमें यह भी सोचना पड़ेगा कि देश की अनपढ़ जनता के दिमाग में किसने सिर्फ कश्मीर के बारे में इस अधूरी जानकारी को इतनी गहराई से बैठा दिया है कि उसे कश्मीरी अपना दुश्मन या फिर उसका हक मारकर जीने वाले ‘आंतकवादी’ और ‘देशद्रोही’ के रूप में नजर आता है। आखिर देश की जनता में यह चेतना क्यों विकसित नहीं हो पायी है कि वह समझ सके कि सिर्फ कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा हासिल नहीं है बल्कि यही हैसियत विभिन्न धाराओं के तहत हिमाचल प्रदेश, झारखंड, उत्तराखंड और पूर्वांचल के कई राज्यों को प्राप्त है।

भारतीय गणराज्य ने पिछले कई वर्षों में पूरे देश के भीतर अपने और पराये की इतनी गहरी खाई पैदा कर दी है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की हत्या कर रहा है जबकि हम उसे अपने और पराये की कैटेगरी में बांटकर देख रहे हैं। इस विभाजन ने एक जाति के खिलाफ दूसरी जाति को खड़ा कर दिया है, एक समुदाय के खिलाफ दूसरे समुदाय को खड़ा किया है जबकि कहीं-कहीं तो एक राज्य के लोग दूसरे राज्य के लोगों को अपना दुश्मन समझने लगे हैं। वर्षों तक यह बरताव पूर्वोत्तर के राज्यों के साथ किया गया− जब सुरक्षाबल वहां की जनता को मिलिटेंट कहकर मार रहे थे तो बचे हुए भारतीय (इसे हमारे जैसे लोग कह सकते हैं) इस पर खुशी मना रहे थे।

उसी तरह जब झारखंड, ओडिशा या छत्तीसगढ़ में आदिवासियों को नक्सली कहकर मारा जा रहा है तो उन्हें हम ‘पराया’ मान रहे हैं और उनकी मौत से हमें कोई परेशानी नहीं होती है। हम मानने लगे हैं कि वे सचमुच बेगाने हैं। हम यह तक मानने को तैयार नहीं हैं कि वे अपने ही देश के नागरिक हैं। और अगर उन्होंने सचमुच कोई अपराध किया है या कानून तोड़ा है, तो उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए, न कि उन्हें गोली मार देना चाहिए।


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