अख़बारनामा: आलोक पे सितम, अस्थाना पे करम, साहेब ऐसा ज़ुल्म न कर !

टेलीग्राफ ने प्रधानमंत्री से सीधे पूछा सवाल सीबीआई में दागी अफसर लाना अपराध है तो दोषी और भी हैं !!

संजय कुमार सिंह

टेलीग्राफ ने प्रधानमंत्री से सीधे पूछा सवाल 
सीबीआई में दागी अफसर लाना अपराध है तो दोषी और भी हैं !!

मैंने फेसबुक पर कल एक पोस्ट लिखी थी, “आलोक वर्मा के खिलाफ जो चार आरोप कंफर्म बताए जा रहे हैं उनमें एक सीबीआई में दागी अफसरों को शामिल करने की कोशिश का भी है और राकेश अस्थाना के खिलाफ जांच का नहीं ….।”

सीबीआई के दागी अफसरों में एक राकेश अस्थाना भी हैं और उनकी नियुक्ति कैसे हुई है – इस विस्तार में जाने की अभी जरूरत नहीं है। आलोक वर्मा पर अगर सीबीआई में दागी अफसरों को शामिल करने का आरोप था तो यह भी सही है कि उन्होंने राकेश अस्थाना के खिलाफ कार्रवाई शुरू की थी। इसके खिलाफ वे दिल्ली हाईकोर्ट में गए और कल ही दिल्ली हाई कोर्ट ने उनके खिलाफ एफआईआर को रद्द करने से मना कर दिया। इस तरह राकेश अस्थाना के दागी होने की बात में अभी दम लगता है। ठीक है कि यह अंतिम फैसला नहीं है और हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। लेकिन अभी तक तो दाग हैं। दूसरी ओर, आलोक वर्मा पर जो चार पुष्ट आरोप हैं वो भी सही अर्थों में पुष्ट नहीं है। और अपने इस्तीफे में आलोक वर्मा ने कहा है कि उन्हें हटाने के लिए सामान्य न्याय की पूरी प्रक्रिया को उलट दिया गया।

मुझे लगता है कि मीडिया को यह सवाल उठाना चाहिए कि आलोक वर्मा को अगर इस दाग के साथ 20 दिन सीबीआई में नहीं रहने दिया गया तो राकेश अस्थाना को सीबीआई में लाने वाले के मामले में कार्रवाई क्यों नहीं होनी चाहिए। कोलकाता के अंग्रेजी दैनिक टेलीग्राफ ने आज यही सवाल उठाया है और राकेश अस्थाना के मामले में दिल्ली हाई कोर्ट के एक फैसले के अंश को लीड का शीर्षक बनाया है – “आप चाहे जितने ऊंचे हों, कानून आपसे ऊपर है”। यह कोई नई बात नहीं है पर इसे बना रहना चाहिए। इसलिए मीडिया का काम है कि वह इस बात को उठाए और प्रधानमंत्री से सीधे पूछे। जैसे द टेलीग्राफ ने पूछा है – आप इसे कैसे स्पष्ट करेंगे, प्रधानमंत्री जी। आज के अखबार में और भी बातें हैं जो आलोक वर्मा पर आरोप, उनकी सीवीसी जांच और न्यायमूर्ति एके पटनायक द्वारा इसकी निगरानी से संबंधित हैं।

राकेश अस्थाना के खिलाफ एफआईआर को गलत नहीं माने जाने से यह साफ हो गया है कि उनके खिलाफ जांच सही और आवश्यक थी। ऐसे में यह कहना कि दोनों अफसर लड़ रहे थे इसलिए उन्हें छुट्टी पर भेज दिया गया – गलतबयानी है। साफ है कि राकेश अस्थाना बचने के लिए आलोक वर्मा पर आरोप लगा रहे थे। और वे जानते थे कि 31 जनवरी को आलोक वर्मा रिटायर हो जाएंगे। इसलिए समय काटना था और मामला सुप्रीम कोर्ट में जाने के बाद भी नियुक्ति समिति को निर्णय करने का अधिकार दिए जाने से न्याय नहीं हुआ और सवाल प्रधानमंत्री पर भी हैं। देखिए, आपके अखबार ने आपको क्या बताया कितना बताया और कैसे बताया।

आइए, देखें दूसरे अखबारों ने इसे कैसे छापा है। हिन्दुस्तान टाइम्स में सामान्य शीर्षक है, वर्मा ने नए पद पर जाने से इनकार किया, सरकार पर आरोप लगाए। अखबार ने इसके साथ ही अस्थाना के खिलाफ एफआईआर रद्द करने से इनकार करने की खबर लगाई है पर ये दो अलग खबरों की तरह हैं। इंडियन एक्सप्रेस ने न्यायमूर्ति एके पटनायक के इस खुलासे को लीड बनाया है कि, भ्रष्टाचार का कोई सबूत नहीं है, प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले पैनल का निर्णय बहुत जल्दबाजी में लिया गया है। इस खबर का इंट्रो है, सीवीसी ने जो कहा वह अंतिम नहीं है …. उन्हें (नियुक्ति पैनल) अपना दिमाग अच्छी तरह लगाना चाहिए था। अखबार ने राकेश अस्थाना की खबर के साथ अन्य खबरें भी छापी हैं।

टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस खबर को लीड नहीं बनाया है और शीर्षक है दो बार सीबीआई में अंदर-बाहर किए जाने के बाद वर्मा ने पुलिस सेवा छोड़ दी। इंट्रो है, उनके इस्तीफे में कहा गया है प्राकृतिक न्याय को बाधित किया गया। अखबार ने आलोक वर्मा के लिए कुछ नई समस्याएं गिनाई हैं और राकेश अस्थाना की खबर पहले पन्ने पर छोटी सी छापी है, विस्तार अंदर है।

हिन्दी अखबारों में दैनिक भास्कर ने आलोक वर्मा के आरोप, सीवीसी के जरिए सीबीआई को चला रही सरकार, को लीड बनाया है। इसमें खबर है, विस्तार है पर धार नहीं है। नवभारत टाइम्स ने पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर इस खबर को छापा है। शीर्षक है, वर्मा का इस्तीफा, अस्थाना पर आंच। उपशीर्षक है, सीबीआई की जंग में नंबर 1 बाहर, नंबर 2 पर गिरफ्तारी की आंच। कहने की जरूरत नहीं है कि यह सीबीआई में नियुक्ति पर टिप्पणी है और अगर नियुक्ति कमेटी में होने के नाते प्रधानमंत्री सीबीआई प्रमुख को हटा सकते हैं कि तो दूसरे पर गिरफ्तारी की तलवार के लिए भी जिम्मेदार हैं। अखबार ने इसके साथ एक बॉक्स भी छापा है, सफाई का मौका न देकर न्याय नहीं किया गया : वर्मा।

राजस्थान पत्रिका ने वर्मा का इस्तीफा मुख्य शीर्षक बनाया है। “सीबीआई विवाद : अग्निसेवा विभाग के बनाए गए थे डीजी” के फ्लैग शीर्षक नीचे दो शीर्षक है, पहला आरोप झूठे और दूसरा सीबीआई से सरकार का बर्ताव कैसा मुझे हटाना इसका सबूत। यह अंग्रेजी में लिखे गए इस्तीफे के अनुवाद का अंश है इसलिए उलझा हुआ है। शीर्षक तो कम से कम स्पष्ट और छोटा होना चाहिए। मुख्य शीर्षक ही प्रभावी नहीं है तो औरों की क्या बात करूं। नवोदय टाइम्स ने अस्थाना की मुस्किलें बढ़ीं शीर्षक खबर को लीड बनाया है और इसके साथ आलोक वर्मा के इस्तीफे की खबर है।

दैनिक जागरण ने आज भी रूटीन शीर्षक लगाया है – आलोक वर्मा ने दिया इस्तीफा। उपशीर्षक है, फायर सर्विस का महानिदेशक बनने से पूर्व सीबीआई निदेशक ने किया इनकार। इसके साथ नियुक्ति समिति के तीसरे सदस्य, मुख्य न्यायाधीश के प्रतिनिधि न्यायमूर्ति अर्जन कुमार सीकरी का बयान भी छापा है। शीर्षक है, जस्टिस सीकरी बोले – पहली नजर में ही दोषी लगे वर्मा, इसलिए हटाने का समर्थन। अमूमन न्यायमूर्तियों का पक्ष अखबारों में नहीं आता है। लेकिन कल सोशल मीडिया पर पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने इस बारे में लिखा था और आज मेरा मन इस पर टिप्पणी करने का था। लेकिन मुझे उचित नहीं लगा। अभी तक यह किसी अखबार में पहले पन्ने पर दिखा भी नहीं है।

अमर उजाला में इस खबर का शीर्षक है, हटाए गए आलोक वर्मा ने छोड़ी नौकरी। यह दैनिक जागरण के शीर्षक के मुकाबले बेहतर है। आलोक वर्मा का इस्तीफा कोई सामान्य इस्तीफा नहीं है। उन्होंने आत्ममंथन करने के लिए कहा है और तब ऐसा शीर्षक खबर की गंभीरता कम करता है या छिपा लेता है। अमर उजाला में उपशीर्षक है, रिटायर होने के 20 दिन पहले दिए इस्तीफे में वर्मा ने सीबीआई को लेकर सरकार के रवैये पर उठाए सवाल। इसके अलावा, भी अखबार ने सारी खबरें छापी हैं। यहां भी सब कुछ है। पूरा विस्तार है। पर धार नहीं है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। जनसत्ता में रहते हुए लंबे समय तक सबकी ख़बर लेते रहे और सबको ख़बर देते रहे। )

First Published on:
Exit mobile version