चुनाव चर्चा: राज्यसभा पहुँच रहे सुशील मोदी को केंद्र में वित्तमंत्री बनाने की तैयारी तो नही!

बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री और अभी राज्य विधान परिषद के सदस्य सुशील कुमार मोदी (सुमो) का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में काबिना मंत्री रहे रामविलास पासवान के निधन से रिक्त राज्यसभा सीट पर उपचुनाव में जीत लगभग तय है. उपचुनाव के लिये भारतीय जनता पार्टी ( भाजपा ) ने उन्हे अपना प्रत्याशी बनाया है. उन्हे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड (जदयू) और दोनो के नेशनल डेमोक्रेटिक अलायन्स (एनडीए) में शामिल अन्य दलो का भी समर्थन हासिल है। इस उपचुनाव के लिए नामांकन दखिल करने की अंतिम तारीख 3 दिसम्बर यानि कल है, एनडीए के सिवा कोई प्रत्याशी सामने नहीं आया है. सम्भव है कि नामांकन का पर्चा दाखिल करने का अंतिम समय खत्म हो जाने पर सुमो को निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर दिया जाये. 

सुमो ने आज ही दोपहर अपना पर्चा दाखिल कर दिया. इस मौके पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, भाजपा कोटा से बने दोनो उप मुख्यमंत्री तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी, भाजपा प्रदेश प्रमुख संजय जायसवाल और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी  भी मौजूद थे. मांझी जी एनडीए में शामिल हिंदुस्तान अवामी मोर्चा (हम) के प्रमुख हैं. 

बताया जाता है कि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री एवम राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के संस्थापक अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने इस उपचुनाव में दिवंगत पासवान की पत्नी रीना पासवान को उनकी पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) की  प्रत्याशी बनाये जाने पर उनका राजद द्वारा समर्थन करने की पेशकश की थी. राजद प्रवक्ता शक्ति यादव ने कहा भी कि इस रिक्त सीट पर लोजपा का अधिकार है. लोजपा ने राजद की पेशकश के लिए शुक्रिया कहा. लोजपा ने और कुछ नहीं किया. जाहिर है ये पेशकश आगे नहीं बढ़ सकी. लालू प्रसाद यादव चारा घोटाला के एक मामले में सीबीआई की विशेष अदालत से दंडित होने के बाद अभी रांची के जेल में बंद हैं. लेकिन वह सियासत पर नज़र रखे हुए हैं. 

 

मोदी मंत्रिमंडल 

ये तय नही है कि वह इस उपचुनाव में जीत जाने पर सुमो को पासवान सीनियर के निधन से रिक्त केंद्रीय मंत्री पद के लिये भी आगे बढाये जायेंगे या नहीं. कयास तो है कि उन्हे केंद्र में कोई अहम मंत्री पद और सम्भवत: वित्त मंत्री भी बनाया जा सकता है. उन्हे छोटा मोदी भी कहा जाता है.

भारत की रक्षामंत्री भी रह चुकी मौजूदा केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का कामकाज बहुत सराहनीय नहीं माना जाता है. ऐसा लगता है कि नये वित्त वर्ष 2021– 2022 के लिये केंद्रीय बजट पेश करने तक या उसके पहले ही मोदी सरकार के मंत्रिमंडल का पुनर्गठन किया जायेगा और उन्हें बदला भी जा सकता है।

 

भाजपा की दीर्घकालिक रणनीति

सुमो बिहार में भाजपा के बडे नेताओ में हैं. वह एक छोटी अवधि के सिवा लगातार करीब 15 वर्ष तक उस दौरान राज्य के वित्त मंत्री रहे जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड (जदयू) और भाजपा की साझा सरकार रही. दोनो की नई साझा सरकार बनाने का मौके मिल जाने पर नीतीश कुमार ने उनको ही फिर उप मुख्यमंत्री और वित्तमंत्री का  पद देना चाहा था. लेकिन इस चुनाव में जदयू से बडी पार्टी के रूप में उभर आई भाजपा के आला नेतृत्व को दीर्घकालिक रणनीति को ध्यान में रखते हुए सुमो को नीतिश कुमार की सरकार और सूबे की सियासत से हटाना जरुरी लगा. 

इस पर सुमो ने अपना रोष नई सरकार के शपथ ग्रहण की पूर्व संध्या पर किये ट्वीट में बहुत हद तक व्यक्त कर दिया था. सुमो का ट्वीट था कि उनको मंत्री बनाना या न बनाना पार्टी नेतृत्व पर निर्भर है. लेकिन उन्हे पार्टी और राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ के कार्यकर्ता पद से कोई नहीं हटा सकता  है. उन्होने ट्वीट में आरएसएस से अपने सम्बंध नही छुपाये.  गौरतलब है कि बिहार में 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर की कथित जनविरोधी नीतियो के खिलाफ जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में छात्र आंदोलन शुरु हुआ तब सुमो आरएसएस से सम्बद्ध अखिल भारतीय विधार्थी परिषद (एबीवीपी ) के कार्यकर्ता थे और पटना विश्वविद्यालय छात्रसंघ के महासचिव थे. तब उसके अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव थे . 

 

लोक जनशक्ति पार्टी

भाजपा चुनावी व्यूह-रचना के अनुरूप ही दिवंगत केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के पुत्र एवम बिहार के जमुई से लोकसभा सदस्य चिराग पासवान की लोजपा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विरोध में जदयू और भाजपा के गठबंधन से बाहर निकल गई थी. वह अभी तक एनडीए में लौटी नहीं है. जाहिर बात है कि नीतीश कुमार लोजपा को एनडीए में आसानी से लौटने नहीं देंगे. मौजूदा विधानसभा में लोजपा के सिर्फ एक विधायक हैं. वह विधायक पासवान जूनियर को भाजपा आला नेतृत्व के इशारे पर फिलहाल नीतीश कुमार सरकार के पाले में ही खड़ा होता रहा है. ये सियासी प्रबंध कितना टिकाऊ है, तत्काल ये कह्ना मुश्किल है. 

 

ओवैसी की पार्टी

ओवैसी जी की पार्टी के निर्वाचित सभी पांच विधायक सदन में शक्ति प्रदर्शन के अब तक के मौके पर सत्ता पक्ष के खिलाफ रहे हैं. अलबत्ता उनके चुनाव पूर्व के मोर्चा डेमोक्रेटिक ग्रैंड सेकुलर फ्रंट (डीजीएसएफ) में शामिल उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के जीते एकमात्र विधायक वोटिंग में भाग न लेकर नीतीश कुमार    सरकार की अप्रत्यक्ष मदद जरुर की है. विधानसभा अध्यक्ष पद चुनाव में यही हुआ जिसमें सता पक्ष के विजय चौधरी 10 वोट के अंतर से जीते.

 

बसपा

लेकिन बसपा की यह छुपी मदद बंद भी हो सकती है. ओवैसी जी की पार्टी के सभी पांच विधायक सीमांचल क्षेत्र से जीते हैं जहाँ की आबादी में मुस्लिम समुदाय का हिस्सा 70 प्रतिशत तक होने का अनुमान है. जाहिर है वे भाजपा के रहमो करम पर टिकी नीतीश कुमार की इस नई सरकार का खुला समर्थन करने का खतरा मोल नहीं सकते हैं. 

 

शक्ति प्रदर्शन 

बहरहालबिहार में सत्ता और विपक्ष के बीच शक्ति परीक्षण के और भी मौके आते रहेंगे. नये वित्त वर्ष 2021–22 के लिये राज्य विधानमंडल के बजट सत्र में भी यह मौका आयेगा. जाहिर है तब उसमें पार होने की जुगत में नीतीश कुमार सरकार की सांस अटकी रहेगी. 

नीतीश कुमार ने बिहार के 2015 के चुनाव के जनादेश के अनुरूप महागठबंधन की सरकार बनाई थी. वह अपने ही मुख्यमंत्रित्व में बनी गैर-भाजपा सरकार को पलट कर भाजपा के समर्थन से चोर दरवाजा से सत्ता में फिर दाखिल होने में कामयाब रहे थे. उन्होने 2020 के चुनाव की मतगणना में धांधली की महागठबंधन की गंभीर शिकायतों के बावजूद येन केन प्रकारेण और मोदी सरकार के गृह मंत्री अमित शाह की सियासी जोड़तोड़ से एक बार फिर अपनी सरकार बना ली. 

हमने इस स्तम्भ के पिछले अंको में भी लिखा था. अब फिर लिख रहे हैं कि नीतीश कुमार की खुद की सियासी जुगत देर सबेर टाँय टाँय फिस्स भी हो जाये तो अचरज नहीं होगा. भारत के संसदीय लोकतंत्र में विधायिका में बहुमत प्रदर्शन में ‘क्लिनिकल एक्युरेसी’  की दरकार का सबसे  बड़ा सबूत यह है कि केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार एक बार लोकसभा में शक्ति प्रदर्शन में सिर्फ एक वोट के अंतर से हार गयी थी. परिणामस्वरूप सरकार को इस्तीफा देकर नया चुनाव कराना पडा था. 

बिहार में मौजूदा सियासी हालात और विधान सभा के जटिल गणितीय समीकरणों के चलते शर्तिया ऐसा ही कुछ हो जायेगा, ये हम नहीं कह सकते. लेकिन ऐसा कुछ हरगिज नहीं होगा, ये कोई भी विश्वसनीय रूप से नहीं कह सकता है . 

 

*मीडिया हल्कों में सीपी के नाम से मशहूर चंद्र प्रकाश झा 40 बरस से पत्रकारिता में हैं और 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण के साथ-साथ महत्वपूर्ण तस्वीरें भी जनता के सामने लाने का अनुभव रखते हैं। सी.पी. आजकल बिहार में अपने गांव में हैं और बिहार की राजनीतिक सरगर्मियों को हम तक पहुँचाने के लिए उनसे बेहतर कौन हो सकता था।

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