अख़बारनामा: निरस्त धारा में कार्रवाई और आरक्षण का लॉलीपॉप

धारा-66 ए निरस्त किए जाने के बावजूद अब तक 22 से ज्यादा मुकदमे चलाए गए हैं

संजय कुमार सिंह

ऊंची जाति के ‘गरीब’ लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण के प्रस्ताव की खबर मिलते ही यह साफ हो गया था कि आज के अखबारों में इसे ही लीड होना है। इसलिए, मैंने कल ही तय कर लिया था कि इस खबर पर नहीं लिखना है। फिर भी आपको बता दूं कि टेलीग्राफ ने इस खबर का शीर्षक, “आरक्षण घबराहट का बटन” शीर्षक और उपशार्षक, “मोदी ने ‘ऊंची जाति’ के लिए 10% आरक्षण का दांव चला” लगाया है। दूसरी ओर, टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसी खबर का शीर्षक लगाया है, “बीजेपी लांचेज प्री-पॉल सर्जिकल स्ट्राइक” (भाजपा ने चुनाव से पहले सर्जिकल स्ट्राइक की शुरुआत की)। साफ है कि खबरों का शीर्षक लगाने की अनंत संभावनाएं हैं और उसपर रोज कितनी बात की जाए। इसलिए, आज एक ऐसी खबर की बात करता हूं जो बहुत सारे अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है।

अंग्रेजी दैनिक द टलीग्राफ ने इसे सिंगल कॉलम में छापा है जबकि नवोदय टाइम्स में यह खबर तीन कॉलम में है। शीर्षक है, निरस्त धारा के तहत केस पर सुप्रीम कोर्ट नाराज। टेलीग्राफ के शीर्षक में धारा ही लिखी है इसलिए मेरे कान खड़े हुए पर यह दूसरे अखबारों में प्रमुखता से नहीं दिखी। देखिए आपके अखबार में है कि नहीं। आज आपको इस खबर और इसे निरस्त किए जाने की पुरानी खबर बताता हूं। इससे पता चलता है कि देश में आम जनता एक ऐसे कानून के तहत परेशान की जा रही है जो खत्म किया जा चुका है। बाबुओं पर कोई लगाम नहीं है और सरकार अपने वोट सुनिश्चित करने में लगी है। अखबार उसे सर्जिल स्ट्राइक बता रहे हैं। वही सर्जिकल स्ट्राइक जो पहले चुप-चाप किया जाता था बाद में सरकारी राष्ट्रवाद का प्रतीक बना दिया गया है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि आप खबरें जानें और खबर देने वालों को भी।

पहले 24 मार्च 2015 की एनडीटीवी इंडिया की एक खबर। सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक कमेंट करने के मामले में लगाई जाने वाली आईटी (सूचना तकनालाजी) एक्ट की धारा 66 ए को रद्द कर दिया है। न्यायालय ने इसे संविधान के अनुच्छेद 19(1) ए के तहत प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन माना है। इस फैसले के बाद फेसबुक, ट्वीटर सहित सोशल मीडिया पर की जाने वाली किसी भी कथित आपत्तिजनक टिप्पणी के लिए पुलिस आरोपी को तुरंत गिरफ्तार नहीं कर पाएगी। न्यायालय ने यह महत्वपूर्ण फैसला सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़े इस विवादास्पद कानून के दुरुपयोग की शिकायतों को लेकर इसके खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सुनाया।

यह धारा वेब पर अपमानजनक सामग्री डालने पर पुलिस को किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की शक्ति देती थी। कोर्ट ने कहा कि आईटी एक्‍ट की धारा 66 ए से लोगों की जानकारी का अधिकार सीधा प्रभावित होता है। न्यायालय ने प्रावधान को अस्पष्ट बताते हुए कहा, ‘किसी एक व्यक्ति के लिए जो बात अपमानजनक हो सकती है, वो दूसरे के लिए नहीं भी हो सकती है।’ कोर्ट ने कहा कि सरकारें आती हैं और जाती रहती हैं लेकिन धारा 66 ए हमेशा के लिए बनी रहेगी। न्यायालय ने यह बात केंद्र के उस आश्वासन पर विचार करने से इनकार करते हुए कही जिसमें कहा गया था कि कानून का दुरुपयोग नहीं होगा। न्यायालय ने हालांकि सूचना आईटी एक्‍ट के दो अन्य प्रावधानों को निरस्त करने से इनकार कर दिया जो वेबसाइटों को ब्लॉक करने की शक्ति देता है।

इस मसले पर लंबी सुनवाई के बाद 27 फ़रवरी 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने भी कई बार इस धारा पर सवाल उठाए थे। वहीं केंद्र सरकार ने एक्ट को बनाए रखने की वकालत की थी। केंद्र ने कोर्ट में कहा था कि इस एक्ट का इस्तेमाल गंभीर मामलों में ही किया जाएगा। 2014 में केंद्र ने राज्यों को एडवाइज़री जारी कर कहा था कि ऐसे मामलों में बड़े पुलिस अफ़सरों की इजाज़त के बग़ैर कार्रवाई न की जाए। आपको याद होगा, 2013 में महाराष्ट्र में दो लड़कियों को शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे पर सोशल मीडिया में आपत्तिजनक पोस्ट करने के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार किया था। इस मामले में श्रेया सिंघल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। बाद में कुछ गैर सरकारी संगठनों ने भी इस एक्ट को ग़ैरक़ानूनी बताते हुए इसे ख़त्म करने की मांग की थी।

अब लगभग चार साल बीतने पर पता चल रहा है कि इस कानून के खिलाफ कार्रवाई जारी है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में सोमवार को केंद्र सरकार से जवाब तलब करते हुए कहा कि अगर ऐसा है तो अदालत के निर्देशों का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों को जेल भेज दिया जाएगा। न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन और न्यायमूर्ति विनीत शरण की पीठ ने कहा, यह चौंकाने वाली बात है कि लोगों पर अब भी ऐसे प्रावधान के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है जिसे यह अदालत 2015 में ही निरस्त कर चुकी है। यदि ऐसा है तो हम सभी संबंधित अधिकारियों को जेल भेज देंगे। न्यायालय ने केंद्र को नोटिस भेजकर चार हफ्ते के भीतर जवाब मांगा है।

पीयूसीएल की तरफ से पेश हुए वकील संजय पारिख ने यह शिकायत की। उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक धारा-66 ए निरस्त किए जाने के बावजूद अब तक 22 से ज्यादा मुकदमे चलाए गए हैं। तथ्य यह है कि कई शिकायतों के मद्देनजर, शीर्ष अदालत ने 16 मई 2013 को एक परामर्श जारी कर कहा था कि सोशल मीडिया पर कथित तौर पर कुछ भी आपत्तिजनक पोस्ट करने वालों की गिरफ्तारी पुलिस महानिरीक्षक या पुलिस उपायुक्त स्तर के वरिष्ठ अधिकारी की अनुमति के बिना नहीं की जा सकती है।

दैनिक जागरण में यह खबर पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में छोटी सी है और इसके साथ बताया गया है कि पेज 17 पर है। वहां यह दो कॉलम में है। शीर्षक है, आईटी कानून की रद्द हो चुकी धारा में मुकदमे से सुप्रीम कोर्ट हैरान। नवभारत टाइम्स में यह खबर पहले पन्ने पर छोटी सी है और यहां बताया गया है कि यह अंदर पेज 14 पर है। वहां यह तीन कॉलम में है। शीर्षक है, कोर्ट बोला, पोस्ट’पर अरेस्ट किया तो अफसर जाएंगे जेल

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। जनसत्ता में रहते हुए लंबे समय तक सबकी ख़बर लेते रहे और सबको ख़बर देते रहे। )

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