आर्थिक पैकेज और ‘शोषणकारी’ गाँवों में लौट रहे बहुजनों का भविष्य

आखिरकार मंगलवार 12 मई को प्रधानमंत्री ने कोरोनोवायरस और लॉकडाउन से जन्मी परिस्थितियों मे अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने और ‘आत्मनिर्भर’ बनाने के लिए 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज की घोषणा कर दी। बीते दो दिनों मे इस आर्थिक पैकेज के विवरण सहित आगे की रणनीति को वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारामण ने और अधिक स्पष्ट किया है। वित्त मंत्री ने कहा है कि सरकार प्रवासी श्रमिकों, छोटे किसानों, और स्ट्रीट वेंडर्स के हित मे कदम उठा रही है। शहरों से गाँव पहुँच रहे श्रमिकों के लिए ‘एक राष्ट्र एक राशन कार्ड’ की बात कही गई है। मजदूरी की दर 182 रुपये से 202 रुपये पहले ही की जा चुकी है, और अब प्रवासी श्रमिक अपने ही राज्यों मे मनरेगा के तहत रोजगार हासिल कर सकेंगे। 

एक परिवार को पाँच किलो गेंहु और एक किलो चना प्रतिमाह अगले दो माह तक दिया जाएगा। अनुसूचित जनजाति हेतु रोजगार सृजन के लिए 6000 करोड़ का पैकेज दिया गया है। इसी के साथ छोटे दुकानदारों के लिए भी 5,000 करोड़ रुपये की विशेष क्रेडिट सुविधा की घोषणा की गई है। एक महीने के भीतर लॉन्च की जा रही इस योजना मे 50 लाख स्ट्रीट वेंडर्स को मदद की जाएगी। इसके तहत उन्हें 10,000 रुपये की शुरुआती कार्यशील पूंजी मिल सकेगी। कृषि क्षेत्र को मजबूत करने के लिए, किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से किसानों और पशुपालकों, मत्स्यपालकों के लिए लगभग 2 लाख करोड़ रुपये जारी होंगे। श्रम कानूनों में बदलाव एवं श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी लागू करने के प्रयास पर भी प्रकाश डाला गया। 

इस पृष्ठभूमि मे अब सवाल ये हैं कि इन घोषणाओं को और ‘आत्मनिर्भर’ भारत की कल्पना को किस तरह देखा जाए? क्या भारत सरकार ने अभी तक कोरोना महामारी से लड़ते हुए पर्याप्त संवेदनशीलता और रणनीतिक कुशलता का परिचय दिया है? इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि इन घोषणाओं को जिस ग्रामीण भारत मे लागू किया जाना है वहाँ भारत के बहुजनों की कोई सुनवाई होने वाली है? 

दिनांक 22 मार्च को अचानक घोषित लॉकडाउन मे प्रवासी श्रमिक ही नहीं बल्कि बड़ी संख्या मे गैर श्रमिक नागरिक भी अपने घरों से दूर फंस गए थे। इस तालाबंदी की घोषणा करने से पहले जो गैर जिम्मेदारी इन मजदूरों या नागरिकों के बारे मे बरती गयी उससे भी बड़ी गैर जिम्मेदारी आर्थिक प्रक्रियाओं के प्रबंधन मे बरती गयी है। फरवरी के अंत तक ‘नमस्ते ट्रम्प’ चल रहा था, इसी समय दिल्ली का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और 21 मार्च तक मध्यप्रदेश का सत्तापलट चल रहा था। इस समय तक सरकार स्वयं ही कोरोना के खतरे को नकार रही थी। उल्लेखनीय है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 30 जनवरी को विश्वव्यापी सार्वजनिक स्वास्थ्य खतरे का संकेत दे दिया था और 11 मार्च तक वैश्विक महामारी की घोषणा कर दी थी। इसके बावजूद सरकार ने नागरिक स्वास्थ्य प्रबंधन और अर्थव्यवस्था के लिए कोई गंभीरता नहीं दिखाई। प्रवासी श्रमिकों को पहले तो किसी तरह की सुविधाएं नहीं दी गयीं और अब जब वे सरकार से हताश होकर ‘आत्मनिर्भर’ ढंग से स्वयं ही अपने पैरों से चलते हुए अपने गाँव लौट रहे हैं तो सरकार को मजबूरन अब कुछ घोषणाएं करनी पड़ रही हैं। 

इन घोषणाओं को भी ठीक से देखा जाए तो ये बिल्कुल नाकाफ़ी और बहुत देरी से आने वाली घोषणाएं हैं। जब ये अमल मे आएंगी तब पता चलेगा कि इनका वास्तविक फायदा किसे और कैसे मिल रहा है। यहाँ यह बात नोट करनी होगी कि प्रवासी मजदूरों के अपने गांवों मे पहुँचने के कारण न सिर्फ वहाँ कोरोना के इन्फेक्शन का खतरा कई गुना बढ़ जाएगा बल्कि ग्रामीण परिवारों सहित स्थानीय आर्थिक प्रक्रियाओं पर भी भारी बोझ पड़ेगा। ऐसे मे सर्वाधिक गरीब परिवारों मे लौट रहे इन मजदूरों से जातीय भेदभाव के साथ बीमारी से जुड़ी “सामाजिक दूरी” भी अपने चरम पर पहुँचने की संभावना है। इस प्रकार ये अधिकांश मजदूर जो कि शूद्र और दलित जातियों और भूमिहीन परिवारों से आते हैं, उन्हे शीघ्र ही खेती या उससे जुड़े हुए व्यवसायों मे काम मिल सकेगा यह कहा नहीं जा सकता। इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों मे मजदूरी की दरें घटने और जातीय सांप्रदायिक और लैंगिक भेदभाव और शोषण सहित अपराध बढ़ने की भी संभावनाएं हैं। 

ग्रामीण भारतीय समाज की अपनी विशिष्ट प्रवृत्ति यह है कि यहाँ आज भी सामाजिक और आर्थिक प्रक्रियाओं मे नए व्यक्तियों का समावेश बहुत धीरे-धीरे होता है। यह समावेश स्वाभाविक रूप से न हो सके या फिर श्रेणीबद्ध और सिलेक्टिव ढंग से हो सके – इसे सुनिश्चित करने हेतु ही प्राचीन भारत मे जाति व्यवस्था का निर्माण हुआ था। ग्रामीण भारत मे किसी भी नए व्यक्ति या समुदाय को उसकी अपनी कुशलता या ज्ञान के आधार पर कभी स्वीकार नहीं किया जाता है। ग्रामीण भारत मे धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक सत्ता आज भी ऊंची जाति के सवर्ण हिन्दू पुजारियों, व्यापारियों, बड़े किसानों, सहित शासकीय कर्मचारियों, जनप्रतिनिधियों, पुलिस और बैंक कर्मचारियों के हाथ मे होती है। ये लोग वहाँ के ओबीसी, अनुसूचित जाति और जनजाति के गरीब मजदूरों और छोटे किसानों से जिस ढंग से पेश आते हैं यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। कोरोना पूर्व भारत मे ऐसे हजारों उदाहरण हमें पता है कि बीपीएल कार्ड, राशन कार्ड और मनरेगा के जॉब कार्ड बनाने मे किस तरह की संगठित धोखाधड़ी इन गांवों मे होती आई है। 

बीती 14 मई को मेघालय का केस सामने आया है जिसमे ऐसे व्यक्तियों के जॉब कार्ड पकड़ मे आये हैं जो न सिर्फ सरकारी नौकरी मे रहे हैं बल्कि जिनकी बहुत पहले ही मृत्यु भी हो चुकी है। वहाँ के ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिसर ने पंचायत सचिव के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है। पिछले महीने 28 अप्रैल की एक खबर के मुताबिक बिहार के रोहतास जिले के दिनारा कस्बे मे वर्ष 2015 से 2017 के बीच बैंक ऑफ बड़ौदा से 216 लोगों ने आपराधिक तालमेल कर साजिश के तहत फर्जी भू स्वामित्व प्रमाणपत्र, फर्जी मालगुजारी रसीद और फर्जी बंध दस्तावेज के आधार पर 3.70 करोड़ रुपये का कर्ज स्वीकृत करवा लिया । गरीब किसानों को ऋण देने की योजनाओं मे फर्जी कागजातों के जरिये इस तरह की लूटपाट भारत मे कोई नई घटना नहीं है। 

ये घटनाएं भारत भर मे लगातार देखी और सुनी जाती हैं। इस तरह के पूरे खेल मे सबसे ज्यादा शोषण भारत के बहुजनों का होता है जिनके पास सामाजिक और सांस्कृतिक पूंजी का सर्वथा अभाव होता है। गांवों की स्थानीय शक्ति संरचना मे इन समुदायों की स्थति सबसे कमजोर होने के कारण इनकी कोई सुनवाई नहीं होती है। ऐसे मे “आत्मनिर्भर” बनने की सलाह का कोई मूल्य उन लोगों के लिए नहीं रह जाता जो कि इस ग्रामीण सामाजिक/शक्ति संरचना मे बाहर धकेल दिए गए हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि भारत के बड़े शहरों से गाँव की तरफ जो ‘रिवर्स माइग्रेशन’ हो रहा है वह बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे बीमारू राज्यों की तरफ सबसे ज्यादा हो रहा है। इन्ही राज्यों मे जातिवादी घृणा, अपराध और दमन सबसे ज्यादा रिकार्ड किया गया है। 

पिछले कुछ दशकों मे प्रकाशित कई समाजशास्त्रीय अध्ययन भी यह बताते हैं कि भारत के बहुजनों का शहरों मे जितना शोषण होता है उससे कहीं ज्यादा और व्यवस्थित ढंग से शोषण गांवों मे होता है। यह सदियों सदियों से चली आ रही कहानी है। भारतीय समाज मे विज्ञान, तकनीक, आर्थिक उदारीकरण और औद्योगिक विकास सहित लोकतंत्र के आने के बावजूद बहुजनों का शोषण अपने सर्वाधिक घातक रूप मे आज जारी है। इसीलिए महात्मा  ज्योतिराव फूले और बाबा साहब अंबेडकर ने भारत के बहुजनों को गाँव छोड़कर शहरों मे बसने की सलाह दी थी। महात्मा गांधी ने ग्राम स्वराज और पंचायत प्रणाली की जो प्रशंसा की है उससे बाबा साहब अंबेडकर कभी सहमत नहीं रहे, उन्होंने भारत के गांवों को ‘जातिगत शोषण का अड्डा’ करार दिया है। आज गरीब बहुजनों का दुर्भाग्य है कि इस कोरोना महामारी के कारण उन्हे इन ‘शोषण के अड्डों’ मे वापस लौटना पड़ रहा है। ऐसे मे भारत के गांवों मे लौट रहे करोड़ों गरीब बहुजनों को ये आर्थिक पैकेज और आत्मनिर्भरता की यह नई सलाह किस तरह मदद करेगी यह बहुत सावधानी से देखना होगा। 


संजय श्रमण जोठे एक स्वतन्त्र लेखक एवं शोधकर्ता हैं। मूलतः ये मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं। इंग्लैंड की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन मे स्नातकोत्तर करने के बाद ये भारत के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं। बीते 15 वर्षों मे विभिन्न शासकीयगैर शासकीय संस्थाओंविश्वविद्यालयों एवं कंसल्टेंसी एजेंसियों के माध्यम से सामाजिक विकास के मुद्दों पर कार्य करते रहे हैं। इसी के साथ भारत मे ओबीसीअनुसूचित जाति और जनजातियों के धार्मिकसामाजिक और राजनीतिक अधिकार के मुद्दों पर रिसर्च आधारित लेखन मे सक्रिय हैं। ज्योतिबा फुले पर इनकी एक किताब वर्ष 2015 मे प्रकाशित हुई है और आजकल विभिन्न पत्र पत्रिकाओं मे नवयान बौद्ध धर्म सहित बहुजन समाज की मुक्ति से जुड़े अन्य मुद्दों पर निरंतर लिख रहे हैं। बहुजन दृष्टि उनके कॉलम का नाम है जो हर शनिवार मीडिया विजिल में प्रकाशित हो रहा है। यह इस स्तम्भ की पाँचवीं कड़ी है।

पिछली कड़ियां—

बहुजन दृष्टि-4– मज़दूरों के प्रति इस आपराधिक उपेक्षा की जड़ ‘धर्मसम्मत’ वर्णव्यवस्था में है !

बहुजन दृष्टि-3– इरफ़ान की ‘असफलताओं’ में फ़िल्मी दुनिया के सामाजिक सरोकार देखिये

बहुजन दृष्टि-2हिंदू-मुस्लिम समस्या बहुजनों को छद्म-युद्ध में उलझाने की साज़िश!

बहुजन दृष्टि-1— ‘सामाजिक दूरी’ पर आधारित समाज में सोशल डिस्टेंसिंग !


 

 

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