प्रपंचतंत्र : टाई की रौशनी में लोकतंत्र का तहखाना

अनिल यादव

टाई लगाने वाले तीन पत्रकारों को सरकार द्वारा एक मीडिया हाउस से तिड़ी कराए जाने पर मची कचरघांव का यह मतलब कतई नहीं है कि लोग अचानक लोकतंत्र और आजाद मीडिया चाहने लगे हैं. बिल्कुल नहीं…यह सिर्फ मोदी की मदांध सरकार के खिलाफ नाराजगी की अभिव्यक्ति है जो अधिकांश मीडिया के पालतू होकर भजन-कीर्तन करने के बावजूद, अपवाद की तरह छिटपुट उठती आलोचना का भी निडरता से गला घोंट रही है. उसे अपने खिलाफ कानी उंगली के नाखून के बराबर भी कुछ सुनना गवारा नहीं है. नकियाये सुर में दिन में कई बार ‘वसुधैव च कुटुंबकम’ बोलने वालों के तौर तरीके उन टुच्चे मकान मालिकों जैसे हैं जो बिजली काट देते हैं, पानी बंद कर देते हैं, मकान खाली कराने के लिए अपने शराबी बेटे को किराएदार के दरवाजे पर पेशाब करने के लिए छोड़ देते हैं.

लटकती टाई के नुकीले छोर पर एक अदृश्य टार्च फिट है जिससे निकलती रोशनी हमारे लोकतंत्र के कबाड़ से भरे, बदबूदार तहखाने में जा रही है. यूं तो यह एक कारपोरेट मीडिया कंपनी के ड्रेस कोड का सबसे चमकीला हिस्सा है जिसका मकसद है पत्रकार का स्वतंत्र व्यक्तित्व न दिखने पाए. मीडिया इंडस्ट्री की कंपनियों उर्फ लालाओं का सरोकार लोकतंत्र, सत्य, न्याय नहीं कम लागत पर ज्यादा मुनाफा है. वे शुगर मिल, जर्नलिज्म इंस्टिट्यूट, चड्ढी-बनियान की फैक्ट्री की तरह मीडिया हाउस को भी चलाते हुए राज्यसभा में जाना चाहते हैं ताकि कानून बनाने वालों के साथ बैठकर अपने गैरकानूनी कामों और टैक्सचोरी को देशसेवा का रंग देते हुए गरिमामय ढंग से आसान बना सकें.

वे जब टिकट मांगने जाते हैं तो नेता पूछता है, वोटर की मति को हमारे पक्ष में फेरने की आपकी क्षमता कितनी है! तब उन्हें उन पत्रकारों की याद आती है जो किसी मुद्दे को प्रभावी तरीके से उठाकर उनके हिसाब से घुमा सकते हैं. ऐसे पत्रकार गिने चुने हैं इसलिए वे कहते हैं, गौरक्षा, घर वापसी, लव जेहाद, गोडसे, नोट में चिप. गणेश की सर्जरी, गोबर से परमाणु बम की काट…आप जो कहो सब सीधे चलेगा, हमें तो बस कमाने खाने दिया जाए. गरज यह कि कारपोरेट मीडिया कंपनियां ही असली चौथा खंभा हैं लेकिन जब तक व्यापारिक हित न सधता हो, उनसे लोकतंत्र की हिफाजत की उम्मीद करना बेकार है.

पत्रकारों से भी उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि उनकी ट्रेड यूनियनें दलाली करके बहुत सस्ते में अपनी साख बहुत पहले खो चुकी हैं, एडिटर्स गिल्ड, प्रेस काउंसिल, ब्राडकास्टर्स असोसिएशन जैसी नखदंतविहीन संस्थाएं लालाओं के हवाले हैं और यह स्थापित किया जा चुका है जो टाई पहन कर सोने के पिंजरे में चहके वही पत्रकार बाकी सब गरीब कर्मचारी हैं. मेरे साथ कैरियर शुरू करने वाले चौदह लड़के आज देश के विभिन्न हिस्सों में चैनलों और अखबारों के संपादक हैं. मैं उनसे पूछता हूं क्या करते हो! वे कहते हैं मैनेजरों का बताया पैकेज बनाते हैं और नौकरी बचाते हैं. इस गिरी हालत के बाद भी कुछ पत्रकारों को मौका मिलता है क्योंकि मीडिया के जनता तक पहुंचे बिना लाला शक्तिहीन होता है, किसी से सौदेबाजी नहीं कर सकता.

जब जनता के मुद्दे उठाने की मजबूरी होती है तब रवीश कुमार और पुण्यप्रसून जैसों को मौका मिलता है और वे जरा देर के लिए एक सार्थक भूमिका निभा पाते हैं. यही मीडिया इंडस्ट्री की सबसे कमजोर नस है जिसके कारण पत्रकार कौम बची हुई है वरना अब तक सूचनाओं की प्रोसेसिंग-पैकेजिंग करने वाले अपेक्षाकृत सस्ते रोबोट एंकर और संपादक आ चुके होते.

लोकतंत्र बचाने के मामले में जनता से भी उम्मीद नहीं कर सकते क्योंकि उसे उपभोक्ता बना दिया गया है, उसे जो दिया जाए अपने दिमाग में भर लेने के अलावा कोई चारा नहीं है. सबसे बड़ी बात यह कि जनता का मिजाज खुद लोकतांत्रिक नहीं है. रोटी से आगे एक औसत आदमी क्या चाहता है, किसी भी तरह कमाया गया ढेर सारा पैसा और यह कि उसका बेटा एक रौबदार तानाशाह की तरह परिवार चलाए और गांव या कालोनी में उसका जलवा रहे. यही कारण है कि चैनलों का बहिष्कार करने, टीवी न देखने, अखबार न खरीदने के उपाय अव्यावहारिक साबित हुए हैं. जैसी पब्लिक है वैसा ही मीडिया है.

सब कुछ इतना अनुकूल होते हुए भी सरकार इतनी बौखलाई हुई क्यों है कि एक टुच्चे मकान मालिक से भी बदतर खुराफातें कर रही है? आरएसएस ने समूची सांठनिक ताकत लगाई थी और उद्योगपतियों ने कारपोरेट शैली के चुनाव अभियान में बहुत माल गलाया था. मोदी को इन दोनों के बीच असंभव संतुलन बिठाना था. धार्मिक गृहयुद्ध और उद्योग एकसाथ नहीं चल सकते इसलिए वह फेल हो गए. अब काबू से बाहर लंपट गौ-रक्षक बेखौफ निर्दोषों को मार रहे हैं और उद्योगपति व्यापार करने के बजाय सीधे बैंक और सब्सिडी लूट कर विदेश भाग रहे हैं.

मोदी नहीं चाहते कि उनकी विफलता, अयोग्यता और हीनता का पता चले इसलिए मीडिया से उठती अपवाद जैसी आलोचना का भी तमाम किया जा रहा है. इधर जनता है जो विश्वगुरू बनने के स्वप्न से जागकर धड़ाम से गिरी है और चाहती है कम से कम इस मोहभंग पर बात तो हो. लोगों को पत्रकारिता के फाइव डब्लू याद आ रहे हैं, यह कैसे हुआ- कब हुआ- क्यों हुआ?

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