देश भर में सम्पन्न हुए आम चुनाव ने बहुत से मामलों मे सीधी लकीर खींच दी है. देश भर में बहुजन और ओबीसी राजनीति की ठेकेदारी जिन खानदानों और कुनबों के कंधों पर थी उनकी असली हालत देशवासियों को पता लग गयी. इन कुनबों के मुखिया जिस तरह के प्रयोगों के सहारे अब तक साम्राज्य स्थापना मे लीन थे, उसी के तहत इन्होंने अपने नौसिखिया लेकिन अहंकार में मदमस्त बेटे और बेटियों को राजनीति में हाथ आज़माने के लिये आगे किया. इसका नतीजा सबके सामने है.
देश भर में, विशेष तौर पर उत्तर भारत में मुसलमानों को, खास तौर से संसाधनविहीन पिछड़े मुसलमानों को सबसे ज़्यादा नुकसान उनके शुभचिंतक कहे जाने वाले बहुजन और समाजवादी दलों ने पहुंचाया है. सन 1990 के बाद से यह जो बीमारी चली है उसका इलाज आज तक नहीं खोजा जा सका है. समाजवादी पार्टी या राष्ट्रीय जनता दल आदि ने अपने माइ (यादव+मुस्लिम) समीकरण से पूरे मुस्लिम समाज को धर्म के नाम पर गलत विचार रखने वालों का सीधे दुश्मन बना दिया. लगभग तीस साल के दौरान इसी शिनाख्त के सहारे इन दलों ने ऊंचाई या कामयाबी के कई पड़ाव को पार किया है लेकिन यह सफलताएं केवल एकतरफा रही हैं. इसका आधार यह है कि इस पूरे सफर मे एक परिवार या जाति विशेष के स्टेटस मे बदलाव के अलावा सामाजिक स्तर पर बदलाव नगण्य रहा है. यही कारण है कि धर्म के नाम पर छलपूर्वक संगठित किये गये मुस्लिमों ने हर स्तर पर बहिष्कार झेला है. सत्ता ,संसाधनों और सरकारी सेक्टर मे नुमाइन्दगी का न्यूनतम स्तर इस कहानी का कम शब्दों में बयान है. बराबर के हिस्सेदारों का तुलनात्मक विवरण एक तबके के साथ जारी नाइंसाफी को उभारता है. बदले हुए समय में एक खास शिनाख्त के लोगों की हकमारी की नई विधा से भी परिचय होता है.
गोलबंदी का दोषपूर्ण आधार
यह कितना अजीब है कि ओबीसी की राजनीति करने वाले दल चुनावी समीकरण मे एक समूह की पहचान का हवाला उसके धर्म को बनाते हैं और अपनी पहचान का हवाला जाति को बनाते हैं. जैसे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का और बिहार मे राष्ट्रीय जनता दल का नेतृत्व “यादव” पहचान रखता है. उनके साथ दूसरे बड़े शेयरहोल्डर मुसलमान हैं. इन दलों के नेतृत्व को भी यह बात मालूम है कि मंडल कमीशन ने इस धर्म के एक बड़े हिस्से को ओबीसी मे शामिल कर दिया है. देश ने आज़ादी के दौर से लेकर अब तक अनगिनत ऐसे हादसों का सामना किया है जहां पर धार्मिक पहचान ने सामाजिक ताने-बाने को गंभीर नुकसान पहुंचाया है और लोगों के नागरिक अधिकारों का जमकर उल्लंघन हुआ है.
उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और देश के दूसरे हिस्सों में बहुजन के नाम पर राजनीति करने वाले दलों का भी चुनावी पैटर्न कुछ इसी प्रकार का रहा है. नेतृत्व के स्तर पर उनकी पहचान का प्राथमिक हवाला उनकी जाति रही है. जैसे, उत्तर प्रदेश मे बहुजन समाज पार्टी के नेतृत्व की पहचान “जाटव” है. इस पार्टी के चुनावी समीकरण में मुसलमान दूसरा बड़ा शेयरहोल्डर है लेकिन उसकी पहचान का हवाला जाति पर आधारित नहीं है. यह कितना अजीब समीकरण है. जिस देश का इतिहास धार्मिक आधार पर हिंसा का रहा हो वहां जोखिम भरी स्थिति में रह रहे एक समुदाय को उसके संवैधानिक अधिकारों के आधार पर संगठित नहीं करके धर्म के आधार पर संगठित करना सिवाय पागलपन के और कुछ नहीं है.
इस प्रैक्टिस के द्वारा इस प्रकार के दलों ने देश की बहुसंख्यक जनता मे शंका पैदा करने का काम किया है. आखिर यह बात उनकी समझ में क्यों नहीं आती है कि धर्म आधारित पहचान का सीधा टकराव संवैधानिक और नागरिक अधिकारों से है. जैसे हमारा संविधान पिछड़े होने की बुनियाद पर ओबीसी वर्ग को कुछ रियायत का प्रावधान करता है लेकिन धर्म को आड़े नहीं लाता. दक्षिण भारत के कई राज्यों मे इसी आधार पर पिछड़े मुसलमानों को 4 प्रतिशत से ले कर 8 प्रतिशत तक रिज़र्वेशन मिला हुआ है. क्या इस आधार पर उत्तर भारत के किसी राज्य मे इस तरह का कोई प्रावधान मुस्लिमों की हितैषी कहे जाने वाले दलों ने किया है? इसका जवाब नहीं में मिलेगा. यह भी सच सामने आयेगा की चार-चार बार सत्ता में रहे इन दलों ने आखिर अपने शासन के समय किया क्या था? इसका जवाब भी ऊपर की बहस के संदर्भ मे नकारात्मक है.
यह हक़ीक़त है कि ओबीसी रिजर्वेशन के प्रावधानों के तहत धार्मिक पहचान गायब हो रही है और एक तरह की सामाजिक पहचान जगह ले रही है. इस वर्ग पर आधारित एक प्रभावी समूह आकार ले रहा है. नेतृत्व और संसाधनों के वितरण में कुछ अपवाद भी नज़र आएंगे लेकिन उसका संबंध ओबीसी वर्ग में वर्गीकरण से है न कि संविधान आधारित प्रावधान मे. अर्थात ओबीसी मे न्यायसंगत बंटवारा इस मसले को समाप्त कर सकता है, जैसे बिहार मे कर्पूरी ठाकुर फार्मूला आदि. ऐसा सिस्टम ही भारत जैसे देश में संविधान प्रदत्त अधिकारों पर आधारित समाज स्थापना को जगह देगा और इसी से देश का भविष्य निर्धारित होगा.
भविष्य का सफर
भारतीय राजनीति के संबंध में एक तरफ वर्ण आधारित दलों को अपनी पहचान बचा कर रखनी है और इसके साथ-साथ अपनी ओबीसी, दलित एवं मुस्लिम विरोधी छवि को बनाये रखना है. इसके विपरीत बहुजन, ओबीसी तथा अन्य वंचितों की राजनीति करने वालों को अपना सम्मान सहेजना है तो देश के संविधान की तरफ लौटना ही उनके लिये सही होगा. देश भर मे सत्ताधारी दल के द्वारा जिस तरह वंचितों की हकमारी की गयी है उसकी बहाली का ठोस खाका भी तैयार करना होगा.
यहीं पर सबसे बड़ी समझदारी इस रूप मे दिखनी चाहिये कि ओबीसी की पहचान का हवाला ओबीसी वर्ग हो न कि कोई जाति विशेष या धर्म विशेष. अब तक वंचितों के शुभचिंतक दलों ने जो गलतियां की हैं और उनका खामियाजा जिन समूह या समुदाय को भुगतना पड़ रहा है उनके सम्मान और आत्मविश्वास की बहाली भी एक बड़ा सवाल है. कम्युनल वातावरण में जिन लोगों का नुकसान हुआ और हो रहा है उसकी भरपाई संगठन में और सदन में नामित पदों के ज़रिये कुछ हद तक की जा सकती है. इस पद्धति के द्वारा नुमाइन्दगी का सवाल हल होगा तथा राजकाज का हिस्सा होने के सबब अलगाव की बीमारी जायेगी और आत्मविश्वास बढ़ेगा.
हमारा यह विचार है कि हाशिये पर पहुंच गये इन दलों की वापसी के लिये माहौल बहुत अच्छा नहीं है. एक खास संदर्भ में चाहे जाने वाले किसी व्यक्ति या राजनैतिक दल का उसके चाहने वालों के द्वारा नकारा जाना स्थिति की गंभीरता को बताता है क्योंकि विश्वास बहाली का सफर बहुत पेचीदगी रखता है और पुन: विश्वास बहाली का सवाल उससे भी ज़्यादा पेचीदा है. सीधी सी बात है कि अब नये सिरे से प्रयास करना होगा. इस प्रयास में Visibility यानि बदलाव का दिखना बहुत अहम होगा. अब यह बताने से काम नहीं बनेगा कि फलाने ने यह किया और फलाने ने यह अर्थात अब समर्थकों को भी बदलाव का अहसास होना चाहिये. इसके विपरीत जाने का अंजाम हमने अभी देखा ही है. ऐसे में कोई इस रास्ते की तरफ शायद ही जाये. भविष्य में वंचितों के हितैषी दलों की वापसी का सफर उनके बदले हुए रंग रूप और चाल ढाल से ही निर्धारित होना है.
लेखक जेएनयू से सम्बद्ध हैं