Human Rights Diary: काशी से निकलेगा बहुलतावादी लोकतंत्र व मानवाधिकार का रास्ता

उत्तरवाहिनी गंगा के तट पर स्थित बनारस को विश्व के प्राचीनतम नगरों में से एक होने का गौरव प्राप्त है। बनारस/वाराणसी/काशी विभिन्न विचारधाराओं,  धर्मों के साथ दुनिया भर में आकषर्ण का प्रतीक रहा है। जहां यह हिन्दुओं का पवित्र शहर है, वहीं महात्मा बुद्ध के प्रथम उपदेश (धर्म चक्र प्रवर्तन) के लिए बौद्ध धर्मावलम्बियों का प्रमुख केन्द्र भी है। जैन धर्म के तीन तीर्थंकर यहीं पर पैदा हुए। साम्प्रदायिकता व जातिवाद के खिलाफ संत कबीर,  संत रैदास व सेन नाई की जन्मस्थली तथा कर्मस्थली यही रही है।

वही दूसरी तरफ बनारस की बनारसी रेशमी साड़ी को मौलाना अल्वी साहब ले आये। सन् 1507 ईसवी में सिख धर्म के संस्थापक गुरुनानक जी काशी आये और काशी से बहुत प्रभावित हुए। समन्वयवाद के तुलसीदास,  हिन्दी व उर्दू के महान कथाकार मुंशी प्रेमचन्द,  महान साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,  जयशंकर प्रसाद,  डॉ. श्यामसुन्दर दास एवं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और बनारस घराने के प्रसिद्ध संगीतकारों की जन्मभूमि व कर्मभूमि यही रही है।

वाराणसी से चार भारत रत्न महान शहनाईवादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ,  देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी,  महान सितारवादक पं. रविशंकर और स्वतंत्रता संग्राम एवं ऐनी बेसेन्ट व हिन्दुस्तानी कल्चरल सोसाइटी से जुड़े तथा महात्मा गांधी के साथ काशी विद्यापीठ की स्थापना करने वाले डॉ. भगवानदास का जुड़ाव यहीं से रहा है।

सोलहवीं सदी में  मुग़ल बादशाह अकबर जब बनारस में आया तो वह इस शहर की सांस्कृतिक विरासत एवं गौरवशाली इतिहास को देखकर काफ़ी अभिभूत हुआ। इस शहर की सांस्कृतिक महत्ता को देखते हुए उसने इस शहर के पुनरुत्थान का अनुभव किया।  मुग़ल बादशाह अकबर ने इस शहर में शिव और विष्णु को समर्पित दो बड़े मंदिरों  का निर्माण कराया। पूना के राजा के नेतृत्त्व में यहाँ अन्नपूर्णा मन्दिर और 200 मीटर (660 फीट) के अकबरी ब्रिज का निर्माण भी बादशाह अकबर द्वारा इसी दौरान करवाया गया, जिससे दूरदराज़ के श्रद्धालु, पर्यटक सोलहवीं सदी के दौरान बनारस शहर में जल्द से जल्द  पहुंचने लगे।  1665 ईसवीं में फ्रांसीसी यात्री  जीन बैप्टिस्ट टवेरनियर ने गंगा के किनारे निर्मित विष्णु माधव मंदिर  की वास्तुकला के सौंदर्य  की भूरी−भूरी प्रशंसा की है तथा उसने अपने यात्रा वृत्तान्त में इसका बहुत बढ़िया वर्णन किया है।

सड़क, यात्रियों के ठहरने के ठिकानों, पीने योग्य पानी के लिए कुओं का निर्माण और लगभग इसी शासनकाल के आसपास सम्राट शेरशाह सूरी द्वारा कलकत्ता से पेशावर तक मज़बूत सड़क का निर्माण कराया गया था, जो बाद में ब्रिटिश राज के दौरान प्रसिद्ध ग्रैंड ट्रंक रोड के रूप में जाना जाने लगा।  पं. मदन मोहन मालवीय जी द्वारा स्थापित बनारस हिन्दू विश्वविद्यलय सहित पांच उच्चस्तरीय शिक्षा केन्द्र बनारस में हैं, वहीं भारत का राष्ट्रीय चिह्न अशोक चक्र सारनाथ, वाराणसी के संग्रहालय में है।

काशी के इस बहुलतावाद पर बिना कब्ज़ा किये भारत में पुरोहितवादी फासीवाद को लाना काफी कठिन काम है। जर्मनी में फासीवाद लाने के लिए यूरोप की सांस्कृतिक राजधानी वायेमर (Weimer) शहर को अपने कब्ज़े में लेने के लिए हिटलर ने अपनी पार्टी का सम्मेलन वहां किया और अनेक बार वहां गया। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पता चला कि हिटलर और उसकी नाज़ी सेना ने वायेमर शहर के पास ही यातना केंद्र बनाया है, जहा लाखों लोगो को जान से मारा गया दफ़न करके और साथ ही गैस चैम्बर में बंद करके। वायेमर मानवाधिकार पुरस्कार 2010 में ग्रहण करते समय मैं इस शहर को देखने सपिरवार गया था। वायेमर शहर की तरह ही काशी पर आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) और उसका पुरोहितवादी फासीवाद कब्ज़ा कर के उसके बहुलतावाद और समावेशी संस्कृति को समाप्त करना चाहता है।

Weimar Republic

हिटलर और मुसोलिनी का समर्थक गुरु गोलवलकर का आरएसएस साझा संस्कृति के सभी प्रतीकों को बरबाद करने पर तुला है। बनारसी साड़ी के व्यापार का तबाह होना और धर्म के मामले में राज्य का हस्तक्षेप इसकी शुरुआत है। इसी के खिलाफ काशी की जनता लड़ रही है और उसकी हार व जीत का असर भारत के भविष्य से जुड़ा है। हमें काशी की जनता के आन्दोलन से निकले अधोलिखित रास्तों के लिए पूरे देश में आन्दोलन करना चाहिए जिससे हम पुरोहितवादी फासीवादी सरकार को शिकस्त देकर कानून के राज्य और भारत के संविधान को  जमीन पर लागू करके बहुलतावादी लोकतंत्र और मानवाधिकार को स्थापित कर सकें।


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