घाट घाट का पानी : मेरे रुस्तम चाचाजी

वह आज़ादी के आंदोलन से उभरे विरल प्रजाति के एक प्रतिनिधि थे, जो अब राजनीतिक जीवन में नहीं दिखते हैं

एक अरसे से सोचता रहा हूं कि रुस्तम चाचाजी – कामरेड रुस्तम सैटिन के बारे में लिखूं. और हर बार मेरी कलम अटकती सी लगती है. मैं जब पहली बार अपने मां-बाप के दायरे से बाहर निकलकर उनसे मिला तो वह उत्तर प्रदेश की संविद सरकार में उप गृहमंत्री थे, इसके बाद वह मुख्यतः पार्टी की केंद्रीय संरचना में सक्रिय रहे, कामरेड गंगाधर अधिकारी के साथ मिलकर उन्होंने पार्टी शिक्षा की प्रणाली को निखारा, केंद्रीय कंट्रोल कमीशन के सदस्य रहे, साथ ही बीएचयू में पार्टी के संगठन के साथ वह घनिष्ठ रूप से जुड़े रहे. बनारस में उनकी हैसियत समूचे राजनीतिक परिदृश्य में एक अत्यंत सम्मानित वरिष्ठ नेता की हो चुकी थी.

लेकिन मुझे लगता है कि उनके राजनीतिक जीवन का सबसे रोचक दौर इससे पहले संपन्न हो चुका था, जिसे उनका स्वर्णयुग कहा जा सकता है. इस दौर की बारीकियों से मैं मोटे तौर पर अपरिचित हूं. बनारस एक धार्मिक नगर, जहां राजनीति में भी सवर्ण हिंदू तत्वों का बोलबाला था. उनके बनारस आने की कहानी भी काफ़ी दिलचस्प है. उनका बचपन अमृतसर में बीता. एक पारसी परिवार, जिसमें पुरुष सदस्य अपनी अल्पसंख्यक हैसियत से उत्पन्न असुरक्षा के चलते आमतौर पर ब्रिटिश शासन के समर्थक थे और महिलाएं भावनात्मक रूप से राष्ट्रीय आंदोलन के साथ जुड़ी थीं. यहीं बालक रुस्तम ने अपने घर की बालकनी से जलियांवाला कांड की वीभत्सता का परिचय प्राप्त किया, जिसने उनके जीवन पर गहरा असर डाला.

रुस्तम चाचाजी कैसे झांसी में आये, इसके बारे में मुझे पता नहीं है लेकिन यहीं किशोरावस्था में उनकी मुलाक़ात बीटी रणदिवे से हुई थी. यह कम्युनिस्ट पार्टी के साथ उनका पहला संपर्क था. वह कांग्रेस के गरम दल के वालंटियर के रूप में सक्रिय थे और इसी रूप में वह कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण आज़ादी के लिये प्रदर्शन की ख़ातिर कलकत्ता गये हुए थे. प्रदर्शन पर लाठीचार्ज में वह घायल हो गये. कांग्रेस नेताओं के लिये यह एक अच्छी-ख़ासी विडंबना थी. पंडित मदन मोहन मालवीय घायलों को देखने अस्पताल गये. किशोर रुस्तम से उन्होंने पूछा कि उसने कहां तक पढ़ाई की है. जवाब मिला, इंटर पास हूं, अब देश के लिये काम करना है. मालवीयजी ने उन्हें काफ़ी डांट पिलाई और कहा कि पढ़ाई किये बिना आज़ादी के बाद देश को संभाला कैसे जाएगा? उन्होंने किशोर रुस्तम को सलाह दी कि वह बनारस आवें और वहां अपनी पढ़ाई जारी रखें. रुस्तम चाचाजी ने उनकी बात मान ली. मालवीयजी ने शिवप्रसाद गुप्त से बात कर उन्हें वजीफ़ा दिलवाया, ताकि उनकी पढ़ाई चलती रहे. अपने जीवन के अंत तक रुस्तम चाचाजी अत्यंत श्रद्धा के साथ शिवप्रसाद गुप्त को बाबूजी कहकर संबोधित करते थे.

और बनारस में ही एक मजदूर नेता के रूप में रुस्तम सैटिन का राजनीतिक परिचय विकसित हुआ, इस बीच वे शिवपूजन त्रिपाठी के साथ बनारस में कम्युनिस्ट पार्टी की पहली पांत में आ चुके थे. उनके नेतृत्व में तांगा-इक्कावालों की हड़ताल हुई, जिसके परिणामस्वरूप गोदौलिया में उनके लिये एक स्टैंड की व्यवस्था की गई. मजदूर आंदोलन में उनकी सक्रियता का दूसरा प्रमुख क्षेत्र था नदेसर के पास घंटीमिल का औद्योगिक क्षेत्र, जहां ट्रेड युनियन आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी की पकड़ मज़बूत हो चुकी थी. इसके अलावा वह काशी विद्यापीठ में अध्यापक भी रहे और नगर के बौद्धिक जगत में उनका एक महत्वपूर्ण स्थान बना. इस बढ़ते कम्युनिस्ट प्रभाव से चिंतित होकर नेहरू ने कानपुर के मजदूर नेता संपूर्णानंद को बनारस भेजा और उसी के साथ शुरू हुआ बनारस में दो महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञों का टकराव, जो 1960 में मुख्यमंत्री पद से संपूर्णानंद के इस्तीफ़े तक जारी रहा.

कई कारणों से बनारस के राजनीतिक इतिहास में रुस्तम सैटिन की एक अनोखी भूमिका रही है. वह बनारस के पहले राजनीतिक नेता थे, जिन्होंने नगर के राजनीतिक जीवन की धार्मिक अनुदारवादी चेतना को चुनौती देते हुए एक वैकल्पिक परिसर का निर्माण किया. साथ ही उन्होंने आज़ादी के आंदोलन के साथ मज़दूर आंदोलन की धारा को जोड़ने में योगदान दिया. इन दोनों का असर कम्युनिस्ट पार्टी से परे तक समूचे वामपंथी आंदोलन पर पड़ा, अभी तक जिसका उचित मूल्यांकन नहीं हुआ है.

परिचय के शुरुआती दिनों में मैं हमेशा उनकी नज़रों से बचने की कोशिश करता था. वह मुझे लगातार डांटते थे. उन्हें पता चल गया था कि मैं सिगरेट पीने लगा हूं. साथ ही उनका ख़्याल था कि मैं बिगड़ता जा रहा हूं, और यह ख़्याल किसी हद तक सही भी था. पढ़ाई में मेरी लापरवाही से भी वह अत्यंत नाराज़ थे. इस बीच एक घटना हुई, जिसके चलते उनके साथ मेरे व्यक्तिगत संबंधों में एक मोड़ आया. आंख के ऑपरेशन के बाद वह सर सुंदरलाल अस्पताल में भर्ती थे. उनकी पत्नी मन्नो मौसी (मनोरमा सैटिन) ने मुझसे पूछा कि क्या मैं रोज़ अस्पताल जाकर उन्हें अंग्रेज़ी अखबार पढ़कर सुना सकता हूं? मैं राज़ी हो गया और लगभग दो हफ़्ते तक मैं रोज़ जाकर उन्हें अंग्रेज़ी अखबार पढ़कर सुनाया करता था. उसी के साथ राजनीति से परे अनेक सांस्कृतिक मसलों पर बात होती थी. शायद साहित्य में मेरी रुचि देखकर उन्हें अच्छा लगा था. कुछ भी हो, इसके बाद उनकी डांट में कमी आई थी और वह विभिन्न विषयों पर मुझसे बात करने लगे थे. गंभीरता के साथ एक शिक्षक की तरह मुझे समझाने लगे थे. अपने घर में उन्होंने पार्टी क्लास का बंदोबस्त किया. वह मेरे लिये पहला पार्टी क्लास था. मेरी कविताओं में भी वह दिलचस्पी लेने लगे थे.

लेकिन पार्टी जीवन में मैं नहीं, बल्कि मेरा भाई प्रदीप उनका मानसपुत्र था. एक कम्युनिस्ट कैडर के रूप में मुझसे उनकी बहुत अधिक अपेक्षाएं नहीं थीं लेकिन उनके निर्देशन में मैं पार्टी से जुड़ी अन्य गतिविधियों में ज़्यादा सक्रिय रहा, मसलन सांस्कृतिक क्षेत्रों में या पीपीएच के कामों में. मुझे बाद में पता चला कि वह मेरे भविष्य के बारे में काफ़ी चिंतित थे. अंततः उन्हीं के प्रोत्साहन और संपर्कों के चलते पूर्वी जर्मन रेडियो से मेरे संबंध बने और 1979 में मैं बर्लिन पहुंचा.

रुस्तम चाचाजी के साथ मेरे संबंधों का तीसरा दौर अस्सी के दशक के अंत में शुरू हुआ. उनकी काफ़ी उम्र हो चुकी थी, बीमारी के कारण घर से निकलना बंद हो गया था. मैं जब भी भारत आता था, दो-तीन बार उनसे मिलने जाता था और घंटों तक उनसे लंबी बातचीत होती थी. मन्नो मौसी का भी उन्हीं दिनों देहांत हो चुका था, बच्चे उनका काफ़ी ख्याल रखते थे, लेकिन राजनीतिक जीवन से दूरी के चलते वह काफ़ी अकेला महसूस करते थे. पूर्वी जर्मनी में समाजवाद के अनुभव से उत्पन्न संदेह और सवालों के सिलसिले में जिन चंद लोगों से मैं बात कर सकता था, वह उनमें से एक थे. काफ़ी गंभीरता से वह मेरी बातें सुनते थे और हमारी आपसी बातचीत – मेरी राय में – हम दोनों के लिये एक वैचारिक अवस्थान तैयार करने में मददगार साबित हुई थी. रुस्तम चाचाजी गोर्बाचोव से काफ़ी प्रभावित थे, जबकि मेरा कहना था कि समस्यायें कहीं अधिक जटिल हैं और हमें काफ़ी बुनियादी रूप से और नये सिरे से सोचना पड़ेगा. बाद में उनका भी मानना था कि गोर्बाचोव एक पराजयवादी राजनीतिज्ञ हैं.

अपने निजी जीवन में रुस्तम चाचाजी पूरी तरह से गांधीवादी थे. एक लंबे अरसे तक सैटिन परिवार लगभग गरीबी में जीवन बसर करता रहा. बेटे राजीव और बेटी रीना ने शायद वे दिन नहीं देखे, लेकिन बड़ी बेटी ज़ोया दीदी को वे दिन याद होंगे. इसके बावजूद उनके चरित्र में एक अभिजात मिज़ाज था, जिसके चलते बहुतेरे लोग उनसे एक दूरी महसूस करते थे. उनकी अपनी ज़रूरतें बहुत थोड़ी थीं, और उनसे वह संतुष्ट थे. वह शराब और सिगरेट से हमेशा दूर रहे, लेकिन चाय के बेहद शौकीन थे.

रुस्तम चाचाजी शायद ग्राम्‍शी के आशय में ऑर्गेनिक इंटेलेक्चुअल नहीं थे. मैं उन्हें कम्पोज़िट इंटेलेक्चुअल कहना चाहूंगा. वह आज़ादी के आंदोलन से उभरे विरल प्रजाति के एक प्रतिनिधि थे, जो अब राजनीतिक जीवन में नहीं दिखते हैं. मेरे जीवन में वह सबसे महत्वपूर्ण शिक्षक, कामरेड व मार्गदर्शक रहे. उनकी कमी खलती रहती है और अब भी अक्सर अपने एकांत में मैं अपने-आपको उनसे बातें करते पाता हूं.

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