छात्र राजनीति में भटकते-भटकते…

BHU के सौवें साल के उपलक्ष में। बाएं से स्वर्गीय सुशील त्रिपाठी, चंचल और मोहन प्रकाश। मोहन जी बोल रहे हैं, चंचल उनके बगल में खड़े हैं


छात्र राजनीति में सक्रिय होने की सबसे बड़ी समस्या यह है कि बाद में राजनीतिक स्पेस ढूंढ़ पाना बेहद मुश्किल हो जाता है. लुभावनी सम्भावनाएं दिखती हैं, लेकिन चार-पांच-छः या इससे भी अधिक साल का काम आखिरकार कोई मायने नहीं रखता, आपको नये सिरे से शुरुआत करनी पड़ती है. और अगर नेता के रूप में आपका दबदबा रहा हो, तो यह और मुश्किल हो जाता है. इसलिये छात्र नेता बाद में अक्सर अवसरवादी बन जाते हैं, चाहे वे जेएनयू के हों, या लखनऊ, यहां तक कि बनारस का भी यही किस्सा है.

कम्युनिस्टों की बात थोड़ी अलग है. उनका जनाधार अब तो हिंदी क्षेत्र में खत्म हो चुका है, सत्तर के आस-पास तक थोड़ी बहुत थी, और छात्र संगठन और पार्टी के बीच समन्वय कहीं बेहतर हुआ करता था. कुछ अपने पेशों में आगे बढ़ते थे और कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी के रूप में समाज में अपनी प्रतिष्ठा से संतुष्ट रहते थे. पार्टी संगठन के लिये व्यवस्थित रूप से छात्र मोर्चे से कैडर चुने जाते थे. चाहे करात हों या येचुरी – सब इसी प्रक्रिया से आए हैं. सीपीआई में भी यह सिलसिला था.

मेरी हालत इस सबसे अलग थी. मैं छात्र मोर्चे पर एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता था, छात्र नेता कतई नहीं. पार्टी तंत्र में समन्वित होने के लिये जिस वैचारिक अनुशासन की ज़रूरत होती है, उसके लक्षण भी मुझमें नहीं दिख रहे थे. दोस्तों के बीच, यहां तक कि अभिभावक पीढ़ी के बीच भी पढ़ने-लिखने वाला लड़का समझा जाता था, लेकिन व्यवस्थित ढंग से पढ़ाई पूरी करने के मामले में एकदम बेकार था. 1970 से 1978 तक बीए के विद्यार्थी के रूप में अपना परिचय देता रहा, कभी युनिवर्सिटी के अंदर तो कभी बाहर. इसके अलावा घर की गरीबी एक समस्या थी, चाय-सिगरेट-रिक्शे का किराया… और कभी-कभी घर चलाने में मदद के लिये भी पैसे जुटाने पड़ते थे. 1970 से 74 के बीच बनारस और लखनऊ में 6 बार जेल भी जा चुका था और मोटे तौर पर मुझे पार्टी का निष्ठावान कार्यकर्ता माना जाता था, जिस पर ज़्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता था.

मेरा भाई प्रदीप एक तेज़-तर्रार युवा कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के रूप में उभर रहा था, जिसमें पार्टी नेता के सभी क्लासिकीय गुण मौजूद थे. सैद्धांतिक समझ, सांगठनिक पकड़, ईमानदार, संजीदा, हिम्मती और बोलने में भी तेज़. सबसे पहले उसे मुहल्ले में पार्टी कमेटी का सचिव बनाया गया, और उसने पार्टी संगठन को काफ़ी चुस्त दुरुस्त कर दिया. इसके बाद उसे बीएचयू में पार्टी का काम करने के लिये कहा गया. छात्र नेता तो वह नहीं बना, लेकिन थोड़े ही समय बाद वह कैंपस में पार्टी संगठन के लिये ज़िम्मेदार बन गया. उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी अध्यापकों, कर्मचारियों और छात्रों – इन तीनों धड़ों में पार्टी संगठन की नींव डालना. इसमें वह काफ़ी सफल रहा, लेकिन यह इमरजेंसी से पहले व उसके दौरान के साल थे, आरएसएस के विरोध में कुछ भी करना ठीक था, कुलपति डा. श्रीमाली के साथ पार्टी की अस्वस्थ निकटता बनी.

मज़े की बात यह है कि इस स्थिति से कांग्रेसी सबसे ज़्यादा नाराज़ थे क्योंकि श्रीमाली ने समझ लिया था कि कुछ व्यक्तिवादी कांग्रेसी नेताओं के बदले एक व्यवस्थित कम्युनिस्ट संगठन उनके लिये ज़्यादा उपयोगी हो सकता है. दूसरी ओर कम्युनिस्टों को ख़ुशफ़हमी थी कि वे पार्टी के फ़ायदे में श्रीमाली का उपयोग कर रहे हैं और उनका एक बौद्धिक जनाधार बन रहा है. इमरजेंसी के दौरान ही संजय गांधी के एक थपेड़े से सारा जनाधार तितर-बितर हो चुका था. प्रदीप उसके बाद एक साल के लिये मास्को चला गया, लौटने के बाद कुछ ही दिनों में अजय भवन में पार्टी स्कूल में शिक्षक के रूप में उसे बुला लिया गया.

बहरहाल, बीएचयू की छात्र राजनीति में राजनीतिक संदर्भ सामने थे और उनके पीछे जातिवाद के समीकरण की मुख्य भूमिका थी. एआईएसएफ़ भी इससे जुड़ा हुआ था. ठाकुर आम तौर पर आरएसएस के साथ थे. चंचल जब अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहे थे तो उन्हें बिरादरी के एक बड़े हिस्से का समर्थन मिला था और वह परिषद के उम्मीदवार के खिलाफ़ फ़ैसलाकून था. लेकिन चंचल ने कभी ठाकुरवाद की राजनीति नहीं की. भूमिहार समाजवादियों के साथ थे, लेकिन मार्कंडेय सिंह के बाद वे किसी एक उम्मीदवार पर सहमत नहीं हो पाए, और वरिष्ठ समाजवादी नेता राजनारायण के दबदबे के बावजूद वे दूसरी पांत में ही रह गए. भुमिहार नेताओं में प्रमुख थे अनिरुद्ध, महेंद्रनाथ और सारंगधर राय. लेकिन इनकी वजह से सिर्फ़ समाजवादियों के वोट कटते थे और परिषद के उम्मीदवार की जीत होती थी.

छात्र आंदोलन की मिज़ाज के साथ आरएसएस की परंपरा वाले परिषद के कार्यकर्ता जुड़ नहीं पाते थे और इसलिये जेपी आंदोलन का पूरा फ़ायदा युवा जनता को मिला. चंचल अध्यक्ष चुने गए थे, इससे पहले जेपी आंदोलन के शिखर पर अध्यक्ष पद पर मोहन प्रकाश और उपाध्यक्ष पद पर अंजना प्रकाश भारी बहुमत के साथ जीत हासिल कर चुके थे. पुराने छात्र नेताओं में आनंद कुमार जेएनयू जा चुके थे और प्रकाश करात को शिकस्त देकर उन्होंने सनसनी पैदा कर दी थी. आनंद अगर इमरजेंसी के दौरान भारत रहे होते, जेल गए होते तो शायद वे एक महत्वपूर्ण समाजवादी नेता बने होते.

बहरहाल, बनारस में शतरुद्र प्रकाश युनिवर्सिटी से सटे कैंट चुनाव क्षेत्र में अपना राजनीतिक स्पेस तैयार कर रहे थे, मेरे ख्याल से बाद में वे दो बार यहां से विधायक बने. मोहन का भावी राजनीतिक स्पेस राजस्थान में था. चंचल का ऐसा कोई स्पेस नहीं था, लेकिन आपातकाल में जेल यात्रा और जार्ज से संपर्कों के कारण सन 77 के बाद वे जनता पार्टी के समाजवादी धड़े में अच्छे-खासे दादा बन गये. जेपी आंदोलन में सक्रिय रहे लोगों में नचिकेता से मेरी व्यक्तिगत मित्रता थी, लेकिन नचिकेता देसाई में राजनीतिक नेता बनने की महत्वाकांक्षा नहीं थी. वह जो कुछ बनना चाहता था, कमोबेश वैसी ही ज़िंदगी उसकी बनी.

मोहन प्रकाश और खासकर चंचल व्यक्तिगत रिश्तों में काफ़ी दोस्ताना बने रहे, हालांकि कम्युनिस्टों और समाजवादियों के राजनीतिक रिश्ते काफ़ी कड़वे हो चुके थे. चंचल की एक खासियत यह भी थी कि देहाती पृष्ठभूमि से आने के बावजूद वह फ़ाइन आर्ट्स् के छात्र थे, जहां छात्र-छात्राएं सबसे हाइ-फ़ाइ हुआ करते थे. मजुमदार के बाद पहली बार समाजवादियों को एक छात्र नेता मिला था, जो बलियाटिक के साथ-साथ मकालू ग्रुप को आकर्षित कर रहा था. यह कोई दिखावा नहीं था, मेरी राय में चंचल के व्यक्तित्व में ये दोनों पहलू मौजूद थे. हम घनिष्ठ तो नहीं थे, लेकिन कभी-कभी बातचीत होती थी और सौजन्य का अभाव कभी नहीं दिखा.

राजनीतिक स्पेस की समस्या सबसे विकट रूप से मजुमदार के सामने आई. 1974 में वह शहर दक्षिणी से विधानसभा का चुनाव लड़े, छात्रों ने उनके समर्थन में पूरे क्षेत्र में टेंपो तैयार किया, लेकिन समाजवादी संगठन बनाने में काफ़ी कमज़ोर हुआ करते थे. 17 हज़ार वोट पाकर जनसंघ के चरणदास सेठ विजयी रहे, उसके पीछे कम्युनिस्ट गिरजेश राय को 13 हज़ार, कम्युनिस्ट पार्टी छोड़कर बीकेडी के उम्मीदवार बुधराम सिंह यादव को 12 हज़ार और मजुमदार को 11 हज़ार वोट मिले. यह एक अच्छा आधार हो सकता था, लेकिन मजुमदार फिर कभी इस लोकप्रियता को छू नहीं पाए. उनके चेले देखते ही देखते आगे बढ़ते गए और वह खुद कभी कांग्रेस तो कभी जनता दल का दरवाज़ा खटखटाते रहे लेकिन आरएसएस से दूरी उन्होंने हमेशा बनाये रखी.

कम्युनिस्ट पार्टी का कार्यकर्ता बने रहने के अलावा मेरी कभी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं थी, न उसकी कोई गुंजाइश थी. एक उभरते युवा कवि के तौर पर थोड़ी बहुत मान्यता मिली थी और ब्रेष्त की कविताओं के अनुवाद और कम्युनिस्ट कार्यकर्ता की हैसियत से मैं भारत जीडीआर मैत्री संगठन के हलकों के करीब आया, पूर्वी जर्मनी से आए मेहमानों से भी संपर्क हुआ. उन्हें अपनी विदेश प्रसारण संस्था रेडियो बर्लिन इंटरनेशनल के हिंदी विभाग के लिए एक युवा पत्रकार-उद्घोषक की ज़रूरत थी. जुलाई, 1979 में जब मेरे सामने प्रस्ताव आया तो स्वीकार न करने की कोई वजह नहीं थी. 26 नवंबर को मैं बर्लिन पहुंच चुका था. अब ज़िंदगी का एक नया दौर शुरू होने वाला था.


आवरण तस्‍वीर कौशल मिश्रा की फेसबुक दीवार से साभार, पिछले अंक पढ़ने के लिए यहां जाएं

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