घाट घाट का पानी : जब पांच मिनट में न्यूमोनिया और एक घंटे में मौत का खतरा टल गया


Just the worst time of the year

For a journey,

And such a long journey…

दिल्ली से मास्को, फिर वहां से पूर्वी बर्लिन– जैसी कि एक कम्युनिस्ट की यात्रा होनी चाहिए. मुल्क छोड़ने से पहले राजनीतिक अभिभावकों ने चेताया था: मास्को-बर्लिन पहुंचकर हमारे बच्चे बिगड़ने लगते हैं, जिस काम से गए हैं उसे भूल जाते हैं. शराब में डूब जाते हैं, सिर्फ़ लड़कियों के चक्कर में रहते हैं. हमारी नाक मत कटवाना, कायदे से अपना काम करना, कभी-कभी पार्टी-वार्टी में थोड़ी पी लेना, लेकिन घर में खरीदकर मत लाना, फिर उस पर कंट्रोल रहेगा. और हां, शादी मत कर बैठना. मैं तो कमोबेश अपनी नानी के आदेश के किसी संस्करण को मानने वाला था. उन्होंने कहा था– ठंडा मुल्क है. शाम को गरम दूध में एक चम्मच ब्रांडी डालकर पी लेना.

सीपीआई उन दिनों समाजवादी देशों के लिये टूरिस्ट एजेंसी और नेताओं के बच्चों के लिए वजीफ़ा समिति की तरह थी. लेकिन यहां भी मेरा मामला कुछ अलग था. मैं पार्टी के काम से या पार्टी के कोटे में पढ़ने के लिये नहीं, तकनीकी हिसाब से निजी तौर पर नौकरी के लिए जा रहा था. जिन्हें इस बात का पता था, उनमें से कुछ बेहद ख़ुश थे, कुछ बेहद जल रहे थे. और नसीहत हर किसी से मिल रही थी. दिल्ली में मैं एक रिश्तेदार के घर ठहरा था, लेकिन रोज़ अजय भवन जाता था. बनारस छोड़ते वक्त घर छोड़ने का अहसास नहीं हुआ था, शायद वक्त की कमी की वजह से– जर्मनी जा रहा हूं, यह ख़बर फैल जाने के बाद हमउम्रों के बीच, ख़ासकर उसके आधे हिस्से में मेरा भाव काफ़ी बढ़ चुका था और मैं जमकर उसका फ़ायदा उठा रहा था. दिल्ली में दस दिन बिताने पड़े, कोई काम-धाम नहीं था और पहली बार लगा कि मैं मुल्क छोड़कर जा रहा हूं, कब लौटूंगा पता नहीं. एक बंगाली लेखक ने कहा है कि घर छोड़कर विदेश जाने से पहले एक अजीब सी मनस्थिति हो जाती है, पड़ोस में किसी बिल्ली के मरने पर भी बंदा रोने लगता है. कनॉट प्लेस के बीच में घास के मैदान में बेंच पर बैठे-बैठे मैं भी एकदिन रो पड़ा था. अपने बनजारेपन का सारा घमंड काफ़ूर हो चुका था.

अजय भवन में आया था, जर्मनी जा रहा हूं जानकर एक परिचित सीनियर कामरेड तहकीकात के लिए आए. वे सोवियत संघ की यात्रा कर चुके थे, शायद ओम्स्क, इर्कुटस्क या व्लादिवोस्टोक की. काफ़ी ब्‍योरे के साथ उन्होंने यात्रा के लिये मेरी तैयारी का जायज़ा लिया. ध्रुवमामा (डा. डी. जे. मुखर्जी) का ओवरकोट, नाना के सूट को ऑल्टर करके एक नया सूट (वे तीस के दशक में इंगलैंड की यात्रा कर चुके थे, और नानी ने कहा कि इस सूट में बिल्कुल साहब लगते थे), अपने परिवार और बनारस के स्टैंडर्ड के मुताबिक बाटा के नये जूते, ऊन के मोज़े, मां के बुने हुए ऊन के दस्ताने, मफ़लर – सीनियर कॉमरेड काफ़ी संतुष्ट दिखे. फिर उन्होंने पूछा कि गरम टोपी ली है या नहीं. टोपी की बात दिमाग में थी ही नहीं. उन्होंने अपना माथा पटक लिया. “कॉमरेड, तुम्हें पता ही नहीं है कि वहां का जाड़ा क्या होता है. चालीस-पचास-साठ…“, फिर कुछ ठहरकर उन्होंने कहा “माइनस में“. एक दिन बाद उड़ान थी. सोचा, देखा जाएगा.

26 नवंबर, 1979. पहली बार न सिर्फ़ मुल्क से बाहर जा रहा था, बल्कि पहली बार उड़ भी रहा था. 26 साल के नौजवान के लिए यह कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, लेकिन मैं अपने-आपको उस समय बिल्कुल बच्चे जैसा महसूस कर रहा था. प्लेन अभी ज़मीन पर ही थी, लेकिन मैं पूरा नर्वस हो चुका था. उड़ान से पहले ही पता चल चुका था कि एआईएसएफ़ के अध्यक्ष रह चुके टाइगर दयाल की रूसी पत्नी और बेटी भी उसी फ़्लाइट से मास्को जा रही हैं. अपनी सीट पर बैठने के बाद देखा कि उन्हें भी मेरे साथ सीट मिली हुई है. रूसी भाभी अच्छी हिंदी बोलती थी, बेटी अंग्रेज़ी. थोड़ी ढांढस मिली.

लेकिन मेरे दिमाग में चालीस-पचास-साठ…क्या पता एक सौ साठ– माइनस की दहशत छाई हुई थी. कामरेड ने बड़ी बारीकी से समझाया था कि कैसे दो मिनट के अंदर न्युमोनिया हो सकती है और एक घंटे के अंदर मौत. आने से पहले एक बहुत बड़े नेता ने पूछा था कि मैं फ़ॉरेन एक्सचेंज ले रहा हूं कि नहीं. मैंने इसके बारे में सोचा भी नहीं था, सो पूछा: ज़रूरी है क्या? उन्होंने तुरंत कहा, नहीं-नहीं, बर्लिन एअरपोर्ट पर ही रेडियो के लोग तुम्हें रिसीव कर लेंगे. फिर उन्होंने कहा, ये दो सौ रूपए रख लो, यहां एअरपोर्ट पर डॉलर में बदल लेना. बर्लिन पहुंचकर अपनी चाची को दे देना. मेरी चाची, यानी उनकी पत्नी, जो उन दिनों पूर्वी बर्लिन में थीं. जेब में पहली बार डॉलर थे, उनकी गर्मी का अहसास अच्छा लग रहा था, भले ही वे अपने न हों.

हर टरमॉएल पर लग रहा था कि प्लेन अब क्रैश होने वाला है. कुछ एक सहयात्रियों के चेहरे पर ऊब देखकर बेहद ढांढस मिल रही थी. दिमाग के अंदर गूंज रहा था: टोपी-टोपी-टोपी…जेब में सरसरा रहे थे 25 डॉलर, भले ही वे अपने न हों. एअर इंडिया की फ़्लाइट थी, मातृभूमि की सुंदर विमान परिचारिकाएं थीं, मन को समझाने की कोशिश कर रहा था– जी भर कर देख लो बेटा, इसके बाद सिर्फ़ गोरी लड़कियां होंगी. सोचने की कोशिश करने लगा, गोरी लड़कियां कैसी होती हैं. पता है कि स्वच्छंद होती हैं, लेकिन मातृभूमि की बदनामी नहीं होने देनी है. अगला टरमॉएल आया, तो आंखें बंदकर सोचने लगा कि गोरी लड़कियां अपने मौलिक रूप में कैसी दिखती होंगी. हिप्पियों की राजधानी बनारस में मुझे इसका अनुभव हो चुका था, लेकिन सिर्फ़ एकबार… और अपने उस सौभाग्य से मैं इतना उत्तेजित था कि ठीक से कुछ देखा ही नहीं था. आंखे खुली, तो बगल में रूसी भाभी बैठी हुई थी. शर्माकर मैं दूसरी ओर देखने लगा. जैसे-तैसे दो ढाई घंटे बीत गए, और मैं मास्को पहुंचा.

मास्को का शेरेमेत्येवो एअरपोर्ट. 1980 के ओलंपिक खेलों की तैयारी में उसे आधुनिक बनाया गया था. यूरोपीय मापदंड से औसत, लेकिन बनारसी तो उसका तामझाम देखकर दंग रह गया. इसके सामने तो पालम बिल्कुल फेल था. उस ज़माने में हम भारत को बड़े फ़ख्र के साथ तीसरी दुनिया का हिस्सा कहते थे, शिवपालगंज के लोगों की तरह देश के स्वाधीन पिछड़ेपन पर हमें अभिमान था. यहां लेनिन की धरती से पहली मुलाकात में अपनी ज़िंदगी का मिशन मेरे लिए बिल्कुल साफ़ हो गया: आज हम पालम हैं, कल शेरेमेत्येवो बनेंगे, जहां कोई भूखा नहीं होगा. वह दिन ज़रूर आएगा.

लेकिन मुझे भूख सता रही थी. एअर इंडिया फ़्लाइट का खाना अच्छा था, लेकिन मुझ बनारसी के लिए बिल्कुल नाकाफ़ी. चारों ओर बड़े-बड़े रेस्त्रां दिख रहे थे, मेरी जेब में 25 डॉलर भी थे, लेकिन वे मेरे अपने नहीं थे. दो घंटे बाद बर्लिन की फ़्लाइट थी. दुकानों में घूम-घूमकर देखने लगा. आधी दुकान लकड़ी के पुतलों से भरी थी, पुतलों के चेहरों में पूरी बराबरी, जैसी कि कम्युनिजम में होनी चाहिए. वैसे मुझे कुछ अजीब सा लगा कि इन दुकानों में सोनी, फिलिप्स या नेसले जैसी पश्चिमी कंपनियों के माल भरे पड़े हैं. दुकानों के नाम भी एक ही थे– बेर्योज़का. मुझे कहां से पता होता कि हार्ड करेंसी की दुकानों की समाजवादी अर्थनीति कितनी बीहड़ होती है…!

यूरेका !!! टोपियां !!! सफ़ेद-लाल-नीली-पीली-काली…टोपियां. हुम्…पीली शायद नहीं. पर क्या फ़र्क पड़ता था. मैं उस उपभोक्तावाद की उन्मादना के साथ टोपियों को देखने लगा, जो भारत में दस-पंद्रह साल बाद आने वाला था. कीमतें? आठ, दस, बारह, पंद्रह, बीस या उससे ऊपर. इस बीच मेरी बुद्धि थोड़ी काम करने लगी थी और मैं समझ गया था कि पालम की तरह यहां भी ड्यूटी फ़्री शॉप है, और ये कीमतें बेशक डॉलर में होंगी. दो समस्याएं थीं: ये महिलाओं की टोपियां थीं और मेरी जेब के 25 डॉलर मेरे अपने नहीं थे. खैर, पैसे अगर जेब में हों, तो अपने ही होते हैं. और जहां महिलाएं हों, क्या पुरुष नहीं होंगे? टोपी की शकल में ही सही.

अंदर गया, तो एक शेल्फ़ पर काली फ़र की टोपियां थीं, जैसा कि वार एंड पीस फ़िल्म में कज़्ज़ाक अफ़सरों को पहनते देखा था. सेल्समैन से दिखाने को कहा, मगर सारी टोपियां मेरे सिर से बड़ी थीं, खैर उन्हीं में से छांटकर सबसे छोटी टोपी ली. कीमत 7, तो दस डॉलर का नोट दिया. सेल्समैन ने इशारे से कहा काफ़ी नहीं है, और दो. पांच का नोट बढ़ाया, उसने रसीद काटी तो पता चला कि वह सात रूबल की टोपी थी, यानी 12 डॉलर 75 सेंट. आनेवाले दिनों में आंख पर उतर आने वाली यह कज़्ज़ाक फ़र टोपी बर्लिन में मेरा ट्रेडमार्क बनने वाली थी, जिसकी कहानी बाद में सुनाउंगा लेकिन फ़िलहाल मैं ख़ुश था कि पांच मिनट में न्यूमोनिया और एक घंटे में मौत का खतरा टल गया.

मास्को से बर्लिन तक की उड़ान वैसी ही रही, सिर्फ़ थोड़ी सी चिंता थी कि एअरपोर्ट पर कोई होगा या नहीं. सुटकेस आसानी से मिल गया, उसे ढोते हुए बाहर निकला. इमिग्रेशन से बाहर निकलते ही शुद्ध हिंदी में सुनाई दिया: नमस्कार, मैं श्र्लेंडर हूं. बर्लिन में आपका स्वागत. ये अगले 27 साल तक मेरे बॉस होने वाले थे. मेरे हाथ से उन्होंने सुटकेस लिया, जो बहुत बड़ा तो नहीं था, लेकिन अप्रत्याशित रूप से भारी था. इसके अंदर क्या है? चौंककर उन्होंने पूछा. रवींद्रनाथ की संपूर्ण रचनावली, मैंने कहा. वह अपनी गाड़ी से मुझे मेरे लिये निर्धारित फ़्लैट में ले आए. कहा कि मैं अगले दिन सुबह 9 बजे तैयार रहूं, वे मुझे दफ़्तर ले जाएंगे. बेहद थका हुआ था, मैं कुछ ही मिनटों में सो गया. अगले दिन से मेरी नई ज़िंदगी शुरू होने वाली थी.


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