दो अक्‍टूबर, इस देश के असमय यतीम हो जाने का सामूहिक बोध दिवस है!

गांधीजी मुझे हमेशा से आकर्षक लगते रहे हैं। इसकी एक खास वजह है। उनके बुढ़ापे में एक खास किस्‍म का सौंदर्य है। उन्‍हें देखकर आप आश्‍वस्‍त हो सकते हैं। गोदी में जाकर खेलने का मन कर जा सकता है। उनके टूटे दांत और पोपले मुंह वाली तस्‍वीर बहुत क्‍यूट है। सुंदर बूढ़े अब इस देश में कम बचे हैं। वैसे, अपने यहां बुढ़ापे का सौंदर्य-विमर्श है ही नहीं। पश्चिम में आप पाएंगे कि एंथनी हॉपकिंस से लेकर हैरिसन फोर्ड, पार्कर स्‍टीवेंसन जैसे बूढ़ों को सुंदर माना जाता है। खूबसूरती का पैमाना वहां शरीर सौष्‍ठव है। ऐसे बूढ़े सुंदर नहीं, हैंडसम भले कहे जा सकते हैं। जैसे आजकल अपने यहां मिलिंद सोमण के बारे में बात होती है। ये सब सुंदर नहीं हैं, बस टाइट हैं। इनमें करुणा नहीं, मैचोमैन(ता) है। इनके मुकाबले क्रिकेट के अम्‍पायर डेविड शेफर्ड कहीं ज्‍यादा सुंदर लगते थे।

बूढ़ी महिलाओं में ज़ोहरा सहगल को याद करिए। बाद के दिनों में बेग़म अख्‍़तर को गाते हुए देखिए। सब छोडि़ए, बड़ी-बड़ी मूंछों वाले उस्‍ताद बड़े गुलाम अली खां साहब को देखिए- देखकर मन प्रफुल्लित हो जाता है। कई साल पहले मैंने कुमाऊं के एक गांव में 95 साल की एक बूढ़ी महिला को देखा था। क्‍या बला की सुंदर थीं। आठ किलोमीटर दूर से लकड़ी लादे ले आ रही थीं। फ़रीदा जलाल सत्‍तर की हो रही हैं, उन्‍हें याद करिए। किसी ने ‘लव शव ते चिकन खुराना’ देखी हो तो उसमें विनोद नागपाल का किरदार याद करिए। हबीब तनवीर को याद करिए। टॉलस्‍टॉय का दाढ़ी वाला बूढ़ा चेहरा सोचिए। बनारस के लोग टंडनजी को याद कर लें- बीएचयू के बाहर टी स्‍टॉल वाले समाजवादी टंडनजी। बनारस में उनसे सुंदर बूढ़ा कोई नहीं था।

बुढ़ापे की सुंदरता थोड़ा दुर्लभ चीज़ है। सबमें नहीं मिलती। जहां मिलती है, वहां आदमी के भीतर की सुंदरता को खरोंच-खरोंच कर निकाल लेना चाहिए। उस सौंदर्य के पीछे जीवन भर की गठरी होती है। गठरी से माल चुरा लेना चाहिए। मुझे गांधी इसलिए पसंद हैं क्‍योंकि आज़ादी के बाद उनसे खूबसूरत बूढ़ा चेहरा मैंने नहीं देखा। उनसे पहले गुरुदेव टैगोर हो सकते थे। दादाभाई नौरोजी हो सकते थे। गांधीजी को इस मामले में अपने यहां एके हंगल या ओशो रजनीश थोड़ी दूर तक टक्‍कर दे सकते हैं लेकिन उतना चौड़ा जीवन वे कहां से लाएंगे। गांधी बड़ा आदमी था। बहुत बड़ा। गांधी सुंदर आदमी था। अप्रतिम सुंदर। गांधी गार्जियन था इस देश का, जैसे हर बूढ़ा होता है अपने कुनबे का। दो अक्‍टूबर गांधी का जन्‍मदिन नहीं, इस देश के असमय यतीम हो जाने का सामूहिक बोध दिवस है।



लेखक मीडिया विजिल के कार्यकारी सम्पादक हैं।

 



 

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