द एडवोकेट: मानवाधिकार योद्धा वकील कन्नाबिरन की अनोखी दास्तान

इस कठिन कठोर कोरोना काल में संजय जोशी दुनिया की बेहतरीन दस्तावेज़ी फ़िल्मों से आपका परिचय करवा रहे हैं. इस बार से उनका स्तम्भ सिनेमा-सिनेमा  पाक्षिक हो रहा है। दिन वही रहेगा यानी सोमवार। इससे पहले उनके साप्ताहिक स्तम्भ की दस कड़ियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं जो आप इस लेख के नीचे दी गई एक कड़ी के ज़रिये पा सकते हैं। इस स्तम्भ का मक़सद है कि हिन्दुस्तानी सिनेमाके साथ–साथ पूरी दुनिया के सिनेमा जगत की पड़ताल हो सके और इसी बहाने हम दूसरे समाजों को भी ठीक से समझ सकें -संपादक

 

इस वकील की अभी सख़्त ज़रुरत है

 

दक्षिण भारत की मशहूर दस्तावेज़ी फ़िल्मकार दीपा धनराज ने दक्षिण के ही एक दूसरे मशहूर आदमी पर साल 2007 में उनपर दो घंटे की फ़िल्म बनाई और उसके तीन साल बाद ही वे चल बसे. आज फ़िल्म के निर्माताओं की मेहरबानी से ‘एडवोकेट’ नाम की यह फ़िल्म यू ट्यूब पर उपलब्ध है और इस कठिन समय में इस मशहूर आदमी यानि वकील के जी कन्नाबिरन की कहानी से हम कितना कुछ समझ सकते हैं, कितना हौसला बटोर सकते हैं. फ़िल्म के आख़िरी में आने वाले क्रेडिट से पता चलता है कि फ़िल्म के निर्माता कोई सरकारी या प्राइवेट एजेंसी नहीं बल्कि कन्नाबिरन का ही समूचा परिवार है. शायद इस वजह से भी कन्नाबिरन जैसे थे वो पूरी ईमानदारी से हमारे सामने आता है. 

यह कन्नाबिरन की कहानी के साथ –साथ आज़ाद भारत में मानवाधिकार आन्दोलनों के शुरू होने और उनके संस्थाबद्ध होने की भी कहानी है. गौरतलब है कि के कन्नाबिरन आन्ध्र प्रदेश के सफल वकील होने से पहले आन्ध्र प्रदेश में शुरू हुए मानवाधिकार आन्दोलन के अग्रणी नेता थे जिस वजह से उनकी प्रैक्टिस का एक बड़ा हिस्सा इस मुद्दे के लिए समर्पित रहा. 

9 नवम्बर 1929 को मदुराई में जन्मे के जी कन्नाबिरन पढ़ाई मद्रास (अब चेन्नई) में हुई और उन्होंने अपनी वकालत मद्रास से शुरू की और जल्द ही हैदराबाद में बस गए और यहीं वकालत करते हुए नामी वकील बने और फिर मानवधिकार कार्यकर्ता के रूप में मशहूर हुए. वे पी यू सी एल ( पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ ) और ए पी सी एल सी ( आंध्र प्रदेश सिविल लिबर्टीज़ कमेटी) के संस्थापक सदस्य थे. वे 1995 से 2009 तक पी यू सी एल के अध्यक्ष भी रहे. 

के जी कन्नाबिरन पर केन्द्रित यह 120 मिनट की पूरी फ़िल्म दस्तावेज़ी सिनेमा की अद्भुत उपलब्धि है. पूरी फ़िल्म कन्नाबिरन से तीन –चार लोकेशन पर लिए इंटरव्यू और उनके अलावा नारीवादी कार्यकर्त्ता और उनकी जीवन संगिनी वसंथ कन्नाबिरन, दूसरे अन्य कानूनविद जैसे कि प्रोफ़ेसर उपेन्द्र बक्षी, मानवाधिकार आन्दोलन के उनके सहयोगी डॉ के बालगोपाल और माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े संस्कृतिकर्मी कवि वरवर राव और नाट्यकर्मी गद्दर से लिए गए इंटरव्यू पर आधारित है. इन सभी व्यक्तियों से बातचीत के साथ –साथ फ़िल्म में बीच –बीच में कुछ अभिलेखीय सामग्री का इस्तेमाल भी फिल्मकार ने किया है. पूरी फ़िल्म बातचीत प्रधान है, दृश्यों या लैंडस्केप का इस्तेमाल तभी होता है जब किसी अभिलेखीय सामग्री का इस्तेमाल साक्ष्य की तरह कन्नाबिरन की बात को और वजनदार बनाने के लिए फिल्मकार को करना होता है. इतनी सारी बातचीत के बाद भी यह फ़िल्म हमारा ध्यान बनाए रखती है क्योंकि एक ख़ास समय पर खुद कन्नाबिरन के परिवार और फ़िल्मकार ने इस दस्तावेजीकरण के महत्व को समझा और इसे भविष्य के लिये हम सबकी ख़ातिर दर्ज कर लिया.   

के जी कन्नाबिरन अपने समय के जरुरी वकील ही नहीं बेहद सफल वकील भी थे. उनके सफल होने यानि खूब पैसा कमाने का जिक्र बहुत सामान्य जिक्र की तरह फ़िल्म में आता. आम बायोपिक की तरह यह फ़िल्म किसी मशहूर शख्सियत के खूब पैसा कमाने तक सिमटने की बजाय उनके असल योगदान को अच्छे से रेखांकित करती और इस तरह विधा के रूप में भी दस्तावेज़ी फ़िल्म कला को महत्व दिला पाती है. 

यूं तो पूरी फ़िल्म की बातचीत को ही ट्रांसक्राइब कर एक पुस्तिका के रूप में वकालत पढ़ने वाले हर विद्यार्थियों के बीच मुफ्त वितरित करनी चाहिए ताकि उन्हें ठीक से समझ आये कि बड़े वकील होने का मतलब सिर्फ़ बहुत मोटी फीस ही नहीं बल्कि अपने काम से पागलपन की हद तक प्यार करना होता है. ऐसा पागलपन कि एक क्लाइंट से मोटी फ़ीस लेकर अपने सैकड़ों जरूरतमंद क्लाइंटों को न सिर्फ़ गुणवत्ता वाली कानूनी सलाह देना बल्कि दूर गाँव से शहर आने पर कोई ठिकाना न होने पर अपने बड़े बंगले में जगह देना, खाना खिलाना और गाँव लौटते वक़्त बस के भाड़े के पैसे भी देना. 

वसंथ कन्नाबिरन

पूरी फ़िल्म मजेदार तरीके से सुनाये गए जरुरी किस्सों से भरी पड़ी है जिन्हें सुनते हुए महसूस होता है कि अगर आन्ध्र प्रदेश की वकील बिरादरी को एक भी कन्नाबिरन न मिला होता तो क्या होता. इन सारे किस्सों का विवरण देना आपको इस फ़िल्म को पूरा देखने के उत्साह से वंचित कर देगा लेकिन फिर भी कुछ- कुछ जरुरी किस्सों को रेखांकित कर देना मैं जरुरी समझता हूँ. 

चलिए एकदम शुरू से ही बात करते हैं. मजे –मजे में बात करते हुए कन्नाबिरन कहते हैं कि ‘अगर आप सामान्य जीवन चुनते हैं तो साठ साल के बाद रिटायर हो जाते हैं और आराम से रामायण, महाभारत, गीता पढ़ते हुए बाकी ज़िंदगी काट देते हैं लेकिन जब आप इस तरह का जीवन चुनते हैं तो पहली बात तो यह कि   रिटायर होना बहुत मुश्किल होता है दूसरी तरफ आँख की रोशनी कम होने पर आपको पढ़ने में दिक्कत आती है, एक-एक अंगुली से लिखते हुए लम्बा –लम्बा कंप्यूटर पर लिखना होता है. हर चीज मुश्किल तरह से और यही है कन्नाबिरन.’ यह मुश्किल होना ही कन्नाबिरन की खासियत है जो उन्हें एक नामीगिरामी वकील से आगे उठाकर न्यायपालिका के लिए ऐसा मुश्किल आदमी बना देती है जो वर्षों तक अपने सवाल से अपने कंसर्न से न्यायपालिका और कार्यपालिका के लिए कठिन सवाल खड़ा करता रहा और आम लोगों का संघर्षरत लोगों का गहरा दोस्त बनता गया.         

कन्नाबिरन की जीवन यात्रा आन्ध्र प्रदेश में मानवाधिकार आन्दोलन की विकास यात्रा के साथ –साथ  कम्युनिस्ट आन्दोलन के विकास और ठहराव का भी दस्तावेज़ है. असल में कन्नाबिरन की वकालत का दूसरा क्रांतिकारी पक्ष तभी शुरू होता है जब 1969 में आंध्र प्रदेश के सशस्त्र कम्युनिस्ट आन्दोलन को कुचलने के लिए बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां और हत्याएं शुरू होती हैं. राज्य की ज्यादती से उपजे नकली एनकाउन्टर के बारे कन्नाबिरन विस्तार से बताते हैं. उस समय राज्य की ज्यादतियों की जांच –पड़ताल लिए कोई संगठन ही नहीं था और इसी जरुरत से शुरू होता है आन्ध्र प्रदेश का मानवाधिकार आन्दोलन. इतिहास के इस दौर के महत्व को फ़िल्म में नारीवादी कार्यकर्त्ता और कन्नाबिरन की जीवन संगिनी वसंथ कन्नाबिरन बहुत अच्छे से रखती हैं. वे कहती हैं ‘ 1969-70 में जब कन्ना ने इन सब गतिविधियों में दिलचस्पी लेनी शुरू की तो सहसा सुकूनदायक मध्यवर्गीय जीवन से हमारी ज़िंदगी दूसरी पटरी पर आ गई.’ वसंथ जी के इंटरव्यू का फ़िल्म में कई बार इस्तेमाल किया गया. उनकी मूल्यवान बातचीत से न सिर्फ़ उस समय की जरुरी बहसें दर्ज हुई बल्कि क्रांतिकारी आन्दोलन की बहुतेरी कमियों पर भी रोशनी पड़ी जिसमे से सबसे महत्वपूर्ण है महिला मुद्दों पर आन्दोलन का कम संवेदित होना. 

दीपा धनराज

असल में कन्नाबिरन कई विरुद्धों के बीच एक अडिग पुल की तरह थे. इसी वजह से कई बार राज्य सरकार और नक्सलियों के बीच बातचीत में ठहराव आ जाने पर उन्होंने जमी बर्फ़ को पिघलाने का काम किया. कई बार उन्होंने एन टी रामाराव और चन्द्र बाबू नायडू जैसे शक्तिशाली मुख्यमंत्रियों को फटकार लगाई तो कई बार नक्सलियों की अपहरण की नीति को गलत बताते हुए उनकी नीति में बदलाव करवाने में भी सक्षम रहे. 

कन्नाबिरन सबसे पहले मानवाधिकार कार्यकर्ता थे उसके बाद कुछ और. शायद यही वजह थी की जहाँ उन्होंने कम्युनिस्टों के 300 से अधिक मुकदमे लड़े वहीं जरुरत पड़ने पर आर एस एस कार्यकर्त्ता के लिए भी अपनी सेवाएं दीं .

आज जब बहुमत के नाम पर हर तरह के निरंकुश क़ानून को हम पर लादा जा रहा है और देश की तमाम जेलों में बिना अपराध साबित हुए सैकड़ों नागरिक गिरफ़्तार कर प्रताड़ित किये जा रहे हैं इस दो घन्टे के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ को देखना न सिर्फ़ नई रोशनी हासिल करना है बल्कि अपने हौसले को कायम रखना और आगे बढ़ाना भी है.  

 फ़िल्म के लिंक–

 

  Part 1 : https://www.youtube.com/watch?v=haGd9ICmD8w&t=770s

  Part 2: https://www.youtube.com/watch?v=lrLStnOMP4s

  Part 3: https://www.youtube.com/watch?v=4QsQ75fPFEM

  Part 4 : https://www.youtube.com/watch?v=ZCPx1i_pDD8   


‘सिनेमा-सिनेमा ‘की पिछली कड़ियों  पर जाने के लिए नीचे के लिंक पर क्लिक करें। इस लेख के अंत में पिछले लेखों के सारे लिंक मिल जायेंगे-

एक ज़रूरी बात कही-लिखी..फिर फ़िल्म बनाकर दिलों में उतार दी…!    

 



इस शृंखला में वर्णित अधिकाँश फ़िल्में यू ट्यूब पर उपलब्ध हैं और जो आसानी से नहीं मिलेंगी उनका इंतज़ाम संजय आपके लिए करेंगे. 

दुनियाभर के जरुरी सिनेमा को आम लोगों तक पहुचाने का काम संजय जोशी पिछले 15 वर्षो से लगातार ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ अभियान के जरिये कर रहे हैं.संजय से thegroup.jsm@gmail.com या 9811577426 पर संपर्क किया जा सकता है -संपादक

 



 

 

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