भाजपा राज में दंगों का खेल: खबरें, दावे, जाँच, अदालत में अपील और भी बहुत कुछ, सब समझिए!

 

खून का स्वाद लग चुका है और चुनाव से पहले प्रतिबंध का प्रयास चल रहा है, पर खबर किसी ने दी? 

 

मेरे पांच अखबारों में पहले पन्ने की खबरें द टेलीग्राफ की लीड के मुकाबले बहुत कम महत्वपूर्ण है। इसलिए पहले सिर्फ द टेलीग्राफ की खबर और उससे संबंधित कुछ और खबरें जो दूसरे अखबारों में पहले पन्ने पर छोटी या बहुत छोटी सी हैं। विषय है, सांप्रदायिक दंगा जो भारत में रामनवमी के समय आम है और देश भर में कहीं ना कहीं अक्सर हो ही जाता है। समस्या आजादी के समय से चली आ रही है और हर बार हिन्दू भी नुकसान उठाते हैं पर खत्म नहीं हुई है। दस साल के भाजपा राज में भी नहीं। दिल्ली दंगे में जो कार्रवाई हुई वह भाजा शासन में दंगे पर प्रशासन की कार्रवाई का उदाहरण हो सकता है। दंगे में बहुसंख्यक हिन्दुओं को नुकसान न हो यह भी सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। इसका कारण है – जो नहीं समझते हैं वो नहीं समझेंगे इसलिए वह मुद्दा नहीं है। मुद्दा तो खबर ही है और कहने की जरूरत नहीं है कि दंगा हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच होता रहा है और भारतीय जनता पार्टी का दावा रहा है कि उसके शासन में दंगे नहीं होते हैं। हालांकि, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के हाल के दावों को राज्यसभा सदस्य कपिल सिब्बल ने जुमला करार दिया था और एनसीआरबी के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा था कि साल 2014 से 2020 के बीच 5,415 सांप्रदायिक दंगों की सूचना मिली है। अकेले साल 2019 में 25 सांप्रदायिक दंगे हुए हैं।

मेरा मानना है कि दंगे तभी होते हैं जब पुलिस निष्पक्ष होती है या दंगा होने देती है। गुजरात दंगे के संबंध में एक मशहूर वाक्य भी है और उसकी पुष्टि करने वाला वर्षों से जेल में। फिर भी सोचने वाली बात है कि पुलिस बहुसंख्यकों के साथ हो तो किसकी हिम्मत होगी पंगा लेने की या दंगा करने की। इसलिए मुद्दा दंगा नहीं है। दंगे क्यों होते हैं – वह है। और इस बार जिस ढंग से गैर भाजपा शासित राज्यों में दंगे हुए और जो आरोप लगे, दावे किए गए उस हिसाब से दंगा खबरों और चर्चा का एक प्रमुख विषय होना चाहिए था पर हुआ नहीं। आज के अखबारों में मेरी नजर सबसे पहले हिन्दुस्तान टाइम्स में सिंगल कॉलम में छपी खबर पर गई। यह खबर पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर है और विस्तार अंदर होने की सूचना। कोलकाता डेटलाइन की इस खबर के अनुसार राज्य में रामनवमी के आसपास झड़पों पर पश्चिम बंगाल पुलिस की एक रिपोर्ट ने प्रथम दृष्टया संकेत दिया है कि हिंसा पूर्व नियोजित थी। कलकत्ता हाईकोर्ट ने सोमवार को यह जानकारी देते हुए कहा कि घटनाओं की जांच के लिए एक केंद्रीय एजेंसी बेहतर और उपयुक्त हो सकती है। इस शातिराना कार्रवाई से साम्प्रदायिक तनाव पैदा हुआ है और राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया है।

यही नहीं, बिहार के नवादा जिले के अंतर्गत हिसुआ में एक जनसभा में शाह ने कहा था, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 2024 में बहुमत के साथ (बिहार में) 40 में से 40 सीटें देकर सत्ता में लौटने दें और भाजपा को 2025 के विधानसभा चुनाव में अपनी सरकार बनाने में मदद करें. दंगाइयों को उल्टा लटकाकर सीधा करने का काम भाजपा करेगी।’ उन्होंने कहा, ‘दंगे हमारे शासन में नहीं होते हैं।’ मतलब दंगा होना या नहीं होने देना चुनावी प्रचार का विषय भी है। कहने की जरूरत नहीं है कि राजनीतिक विवाद तो राजनीतिज्ञ ही खड़ा कर सकते हैं और आम जनता का दंगे से चाहे संबंध हो, विवाद से नहीं हो सकता है और राजनीतिक विवाद का मतलब है कि दंगा भी राजनीतिक हो सकता है। जांच इस आधार पर होनी चाहिए। लेकिन, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ अंदाज में हो तो कोई नतीजा नहीं निकलेगा।

दंगों के मामले में मेरी निजी राय यही है कि इसकी कभी ढंग से जांच ही नहीं हुई और जब हुई तो रिपोर्ट ठंडे बस्ते में चली गई कार्रवाई नहीं हुई या कार्रवाई के नाम पर राजनीति हुई। अभी मैं उसके विस्तार में नहीं जाउंगा पर यह तथ्य है कि कलकत्ता हाईकोर्ट की यह टिप्पणी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा हिंसा की संघीय जांच की मांग करने वाली याचिका पर आई है। इसका मतलब यह हुआ कि पश्चिम बंगाल में दंगा हुआ, पुलिस की जांच से लग रहा है कि यह सुनियोजित था, दंगे का आरोपी पकड़ा गया है उसके भाजपा से संबंध बताये गए हैं और जवाब में आरोप लगाया गया है कि उसके बंगाल में सत्तारूढ़ टीएमसी के नेताओं से भी संबंध हैं तो जांच कैसे होगी?

अगर केंद्र सरकार यह कहती है (हाईकोर्ट में याचिका इसी संबंध में होगी) कि बंगाल या सरकार या पुलिस की जांच निष्पक्ष नहीं होगी तो यह क्यों माना जाए कि केंद्र सरकार जो जांच कराएगी वह निष्पक्ष होगी? खासकर तब जब केंद्र सरकार पर सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप पुराना है। वैसे भी, केंद्र की भाजपा सरकार जब तमाम मामलों की जांच नहीं करने-कराने पर पूरी ताकत लगाती है तो बंगाल के मामले में केंद्र सरकार की एजेंसियों से जांच कराने की मांग का क्या मतलब? आम जनता के लिए तो दोनों सरकार है पर सरकारों की यह राजनीति क्या जनता को बताई-समझाई नहीं जानी चाहिए ताकि वोट देने के समय वह इस बात का ख्याल रखे। चूंकि अखबारों में ऐसी खबरें नहीं के बराबर होती हैं (खासकर पहले पन्ने पर) इसलिए आज मैं द टेलीग्राफ की रिपोर्ट की विस्तार से चर्चा करूंगा। वैसे, खबर तो आज यह भी है कि गोमूत्र मानव उपयोग के लिए उपयुक्त नहीं है। एक अध्ययन के अनुसार इसमें 14 तरह के नुकसानदेह बैक्टीरिया होते हैं।

हिन्दी पट्टी में गोभक्ति का प्रचार करने वाली पार्टी और उसके लोग गायों और गो भक्ति का उपयोग कई तरह के हिसाब करने के लिए करती है। इसके साथ यह भी तथ्य है कि इस बार पश्चिम बंगाल के अलावा झारखंड के जमशेदपुर और बिहार के बिहारशरीफ में भी दंगा या सांप्रदायिक तनाव हुआ है। बिहार का मामला दिलचस्प है क्योंकि नीतिश कुमार भाजपा के साथ भी मुख्यमंत्री रहे हैं और उसके खिलाफ भी। अभी खिलाफ हैं तो भाजपा की दंगाई राजनीति को (अगर हो तो) अच्छी तरह समझते और जानते होंगे लेकिन उन्होंने इसपर कुछ खास नहीं कहा है। यह उनका लचीलापन भी हो सकता है जिसकी वजह से वे दोनों तरफ रह पाए हैं। पर वह अलग मुद्दा है। ममता बनर्जी ने बंगाल में कुछ भी होने पर टीम भेजने की केंद्र सरकार की आदत पर एतराज किया है और कहा है कि रामनवमी पर राज्य में कई जगह हिन्सा की योजना महीने भर पहले पार्टी कार्यालय में बनी थी। इससे पहले वे यह भी कह चुकी हैं, हावड़ा की हिन्सा के पीछे न तो हिन्दू और न ही मुस्लिम थे। हथियारों के साथ हिन्सा में भारतीय जनता पार्टी, बजरंग दल और ऐसे अन्य संगठनों के साथ शामिल थी।

उत्तर प्रदेश में दंगा कराने की कोशिशों से संबंधित खबरें तो छपती ही रही हैं खबर छाप कर (या अफवाह फैलाकर) दंगा कराने की कोशिश में अब पार्टी के मुखपत्र के शामिल होने की भी सूचना है। ऐसे में यह मामला जितना गंभीर है उतनी गंभीरता से अखबारों में या समाज में चर्चा में नहीं है। इसके बावजूद भारत को मदर ऑफ डेमोक्रेसी (लोकतंत्र की मां) कहा जाता है और सच्चाई यह है कि भारत माता के बच्चे चुनावों की तैयारी कर रहे हैं। द टेलीग्राफ ने इसी का खुलासा किया है और इसी आशय का शीर्षक है। इसके साथ एक खबर पटना डेटलाइन से देवराज की भी है। इसका शीर्षक है, व्हाट्सऐप्प पर बजरंग (दल) की साजिश। इस खबर के अनुसार, पुलिस सूत्रों ने कहा कि बजरंग दल के नेताओं द्वारा संचालित 454 सदस्यों वाले मजबूत व्हाट्सएप समूह के कई सदस्यों ने मार्च के अंत में रामनवमी के जुलूस के बाद बिहारशरीफ शहर में सांप्रदायिक हिंसा को उकसाने और भड़काने में मदद की।

ऐसा फर्जी खबरें फैलाकर, आग लगाने वाले और अपमानजनक संदेशों और उत्तेजक तस्वीरों तथा वीडियो प्रसारित करके किया गया था, जो हिंसा के साथ साइबर उन्माद में कई अन्य समूहों और सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर फैल गया था। पटना के आर्थिक अपराध इकाई (ईओयू) थाने में दर्ज (पता नहीं क्यों) एक प्राथमिकी में व्हाट्सएप ग्रुप के कुल 16 लोगों को आरोपी बनाया गया है। इनमें से पांच – मनीष कुमार, तुषार कुमार तांती, धर्मेंद्र मेहता, भूपेंद्र सिंह राणा और निरंजन पांडे को गिरफ्तार किया जा चुका है जबकि दो अन्य ने अदालत में आत्मसमर्पण कर दिया है। शेष नौ आरोपितों की तलाश की जा रही है। प्रतिक्रिया मांगने पर बजरंग दल के अभिभावक संगठन विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने कहा कि नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली बिहार सरकार बजरंग दल के सदस्यों को फंसा रही है। वीएचपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष आरएन सिंह ने सोमवार रात इस अखबार को बताया कि हमलोगों ने राज्यपाल से मुलाकात की और उन्हें ज्ञापन सौंपा है कि राज्य सरकार एक पक्षीय जांच कर रही है। पहले पन्ने पर छपी खबर में पश्चिम बंगाल की तरह बिहार सरकार के खिलाफ अदालत में केंद्र सरकार की अपील की सूचना नहीं है।

द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर एक तस्वीर छपी है और इसका कैप्शन पीटीआई की एक खबर है जो जाहिर है दूसरे ग्राहक अखबारों को भी मिली होगी लेकिन पहले पन्ने पर नहीं है। फाइल फोटो का कैप्शन इस प्रकार है, (काजल) हिंदुस्तानी जिसे मोदी फॉलो करते हैं : एक महिला जो खुद की पहचान काजल “हिंदुस्तानी” (अंग्रेजी में HINDUstani और इसलिए हिन्दूस्तानी भी लिखा जा सकता है) के रूप में बताती है, एक दक्षिणपंथी कार्यकर्ता है, जिसके ट्वीटर पर 92,000 फॉलोअर्स में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी भी हैं, को एक अदालत ने 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया है। गिर सोमनाथ, गुजरात में, सोमवार को रामनवमी पर कथित रूप से नफरत फैलाने वाले भाषण देने के आरोप में उनकी गिरफ्तारी के बाद उना शहर में सांप्रदायिक झड़प हुई। और दो दिनों तक तनाव रहा। उसने रविवार को ऊना में पुलिस के समक्ष समर्पण कर दिया। अदालत ने उसकी जमानत याचिका खारिज कर दी। पुलिस ने उसका रिमांड नहीं मांगा था। ट्वीटर बायो में वह अपना परिचय एक उद्यमी, अनुसंधान विश्लेषक, डिबेटर, सामाजिक कार्यकरता, राष्ट्रवादी और गर्व करने वाली हिन्दुस्तानी बताती है। कोर्ट ने उसकी जमानत याचिका खारिज कर दी।

खून का स्वाद लगा, फैसले से पहले प्रतिबंध का प्रयास

नई दिल्ली डेटलाइन से आर बालाजी की खबर इस प्रकार है, चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि अगर किसी पर औपचारिक रूप से पांच साल या उससे अधिक की जेल की सजा वाले दंडनीय अपराध का आरोप लगा है, तो वह उसे चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित करने की सिफारिश करता है। वर्तमान कानून के तहत, दो साल या उससे अधिक की जेल की औपचारिक सजा के बाद ही कोई व्यक्ति चुनाव लड़ने से रोका जाता है – जेल की सजा पूरी होने के छह साल बाद तक।

मानहानि के मामले में गुजरात की एक अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने के बाद राहुल गांधी को बिजली की तेजी से अयोग्य ठहराये जाने की पृष्ठभूमि में आयोग का यह प्रस्ताव बदनीयति की संभावनाओं से भरा है। अगर चुनाव आयोग की सिफारिश मान ली जाती है तो सत्तारूढ़ दल प्रमुख और जाने-पहचाने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ पांच साल या उससे अधिक की सजा के मामले अपने नेतृत्व वाली राज्य सरकार या सहयोगी दलों से चुनाव से छह महीने या उससे भी पहले दर्ज करा सकती है। यदि कोई अदालत औपचारिक रूप से चार्जशीट को स्वीकार कर लेती है, तो यह अभियुक्तों को बिना दोषसिद्धि के भी चुनाव से बाहर करना सुनिश्चित करेगी।

वैसे तो यह प्रस्ताव 1990 के दशक से अस्तित्व में है, लेकिन इससे पहले कभी भी देश में ऐसा शासन नहीं था जो किसी भी उपलब्ध विकल्प का उपयोग करके विपक्ष को दबाने के लिए तैयार रहा हो। “आयोग ने प्रस्ताव दिया है कि कानून में संशोधन किया जाना चाहिए ताकि यह प्रावधान किया जा सके कि कोई भी व्यक्ति जो पांच साल या उससे अधिक के कारावास से दंडनीय अपराध का दोषी है, उसे मुकदमे के लंबित होने पर भी चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित किया जा सके, बशर्ते सक्षम अदालत द्वारा उसके खिलाफ आरोप तय किए गए हों।” चुनाव आयोग ने हाल ही में शीर्ष अदालत को दिए एक हलफनामे में ऐसा कहा है।

“हालांकि, सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा प्रेरित मामलों के खिलाफ एहतियात के तौर पर, यह प्रावधान किया जा सकता है कि केवल वे मामले जो चुनाव से छह महीने पहले दर्ज किए गए थे, अकेले प्रस्तावित के रूप में अयोग्यता का कारण बनेंगे।” हलफनामे में कहा गया है, “आयोग… आपराधिक न्यायशास्त्र के सामान्य सिद्धांतों के प्रति पूरी तरह सचेत है कि दोषी साबित होने तक किसी व्यक्ति को निर्दोष माना जाता है। लेकिन प्रस्तावित संशोधन राष्ट्रीय हितों में होगा जिसे व्यक्तियों के हितों के मुकाबले प्राथमिकता दी जानी चाहिए।” चुनाव आयोग ने कहा कि उसने पहली बार 1998 में सिफारिश की थी और फिर 2004 तथा 2016 में इसे दोहराया था, हालांकि इस मामले में फैसला संसद को करना है। आयोग ने यह भी कहा है कि कि जांच आयोग द्वारा दोषी पाए गए लोगों को भी चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

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