हमारे देश की आज़ादी से पहले का इतिहास है अंग्रेजी उपनिवेशवाद के अधीन नील की खेती का और गांधीजी का इसके खिलाफ संघर्ष का. यह इतिहास स्वाधीनता-पूर्व उन दुर्भिक्षों से भी जुड़ता है, जो भारत ने भुगता-भोगा था. लाखों लोगों के भूख से मरने की कहानियां अभी भी हमारी स्मृतियों से बाहर नहीं हुई हैं, जबकि लाखों टन अनाज उस समय भी सरकारी गोदामों में भरे पड़े थे. तब नेहरूजी की नई स्वाधीन सरकार ने कृषि के क्षेत्र में आत्म-निर्भरता की नीतियों को अपनाने की घोषणा की थी.
आत्म-निर्भरता की इन नीतियों की तीन बुनियादी बातें थीं : भूमि सुधार और किसानों को खेती के कच्चे माल के लिए सब्सिडी; समर्थन मूल्य पर उसके अनाज की खरीदी और उसके भंडारण की व्यवस्था तथा इस अनाज का राशन दुकानों के जरिये आम जनता में वितरण. इसका प्रभाव स्पष्ट था. खेती-किसानी की लागत कम हुई और खाद्यान्न उत्पादन के मामले में देश आत्मनिर्भर हुआ. ज्यादा उत्पादन होने पर भी फसलों का बाज़ार में भाव नहीं गिरा, क्योंकि सरकारी खरीद की गारंटी थी. कम उत्पादन या अकाल की स्थिति में भी खाद्यान्न का बाज़ार में भाव नहीं चढ़ा, क्योंकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली मौजूद थीं. आवश्यक वस्तु अधिनियम में खाद्यान्न के आने से कालाबाजारी और जमाखोरी पर रोक लगी. अब आत्म-निर्भरता की इन तीनों बुनियादी बातों को अलविदा कहा जा रहा है.
इस वर्ष जून में जो कृषि संबंधी अध्यादेश जारी किए गए थे, विधेयकों का रूप लेकर अब वे कानून बनने की प्रक्रिया में है. सार-रूप में ये अध्यादेश हैं :
1- ठेका कृषि पर अध्यादेश : यह अध्यादेश सभी खाद्यान्न फसलों, चारा व कपास को किसानों के साथ “आपसी सहमति” के आधार पर अपनी जरूरत के अनुसार ठेके पर खेती करवाने का किसी भी कंपनी को अधिकार देता है.
2- मंडी समिति, एपीएमसी कानून पर अध्यादेश : यह संशोधन किसानों की फसलों को किसी भी कीमत पर मंडी से बाहर खरीदने की कॉर्पोरेट कंपनियों को छूट देता है.
3- आवश्यक वस्तु कानून 1925 में संशोधन : यह संशोधन आम आदमी के भोजन की सभी वस्तुओं गेहूं, चावल समेत सभी अनाजों, दालों व तिलहनों को तथा आलू-प्याज को आवश्यक वस्तु की श्रेणी से बाहर करता है.
लोक-लुभावन भाषा में प्रस्तुत इन विधेयकों को ‘किसान मुक्ति’ का रास्ता बताया जा रहा है, क्योंकि अब किसान कहीं भी, किसी के भी साथ व्यापार कर सकेगा. यह सब ‘एक देश, एक बाज़ार’ के नाम पर किया जा रहा है. लेकिन इन विधेयकों के अंदर जो प्रावधान किए गए हैं, वे ढोल की पोल खोलने वाले हैं. ये विधेयक किसानों की मुक्ति का नहीं, किसानों और उपभोक्ताओं की तबाही का रास्ता तैयार करते हैं.
दुनिया के किसी भी देश में कृषि की जो प्रगति हुई है, वह संरक्षणवादी नीतियों के जरिये ही हुई है. अमेरिका और दुनिया के तमाम साम्राज्यवादी देश, जो तीसरी दुनिया की खेती-किसानी को अपनी लूट का निशाना बनाए हुए हैं, खुद अपने देश में कृषि क्षेत्र में संरक्षणवादी नीतियों को लागू कर रहे हैं और भारी सब्सिडी दे रहे हैं. भारत में भी जीडीपी में कम योगदान के बावजूद हमने खाद्यान्न आत्मनिर्भरता हासिल की है, तो इसका कारण सरकारों द्वारा कृषि को संरक्षण दिया जाना ही है. इन कानूनों के जरिये अब संरक्षणवादी नीतियों को हटाया जा रहा है. याद रहे, मुक्त व्यापार हमेशा दौलत-संपन्न बलशालियों के पक्ष में होता है, विपन्नों के पक्ष में नहीं. इन विपन्नों की सुरक्षा संरक्षण के जरिये ही हो सकती है.
कृषि का क्षेत्र त्रि-आयामी है और उत्पादन, व्यापार व वितरण से इसका सीधा संबंध है. इसके किसी भी आयाम को कमजोर करेंगे, तो कृषि के क्षेत्र पर उसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा. यहां तो अब एक साथ तीनों आयामों पर ही हमला किया जा रहा है. ये तीनों विधेयक मिलकर कॉर्पोरेट कंपनियों के लिए हमारे देश के किसानों और आम उपभोक्ताओं को लूटने का एक पैकेज तैयार करते हैं. हिन्दुत्ववादी कॉर्पोरेट का यह नंगा चेहरा है.
बात उत्पादन से शुरू करें. तीन दशक पहले नव-उदारवादी नीतियों को लागू किया गया था. कृषि के क्षेत्र में सब्सीडियां घटाने का नतीजा था कि खेती-किसानी की लागत महंगी हुई है. खेती-किसानी के घाटे का सौदा होने और क़र्ज़ में डूबने के कारण पिछले तीस सालों में कम-से-कम चार लाख किसानों ने रिकॉर्ड आत्महत्या की हैं. एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले वर्ष भी ‘मोदी राज के अच्छे दिनों में’ 10357 खेतिहरों ने आत्महत्या की हैं. इसके बावजूद अब ठेका खेती की इजाजत दी जा रही है.
ठेका खेती के दो अनुभवों को याद करें. पहला, बहुराष्ट्रीय कंपनी पेप्सिको ने गुजरात के 9 गरीब किसानों पर उसके द्वारा रजिस्टर्ड आलू बीज से आलू की अवैध खेती करने के लिए 5 करोड़ रूपये मुआवजे का दावा ठोंका था और व्यापारिक मामलों को देखने वाली गुजरात की कोर्ट पेप्सिको के साथ खड़ी हो गई थी. दूसरा मामला छत्तीसगढ़ का है, जहां मजिसा एग्रो-प्रोडक्ट नामक कंपनी ने इस प्रदेश के सात जिलों के 5000 किसानों से 1500 एकड़ से अधिक के रकबे पर काले चावल की फसल की खरीदी का समझौता किया था, लेकिन उत्पादन के बाद इस कंपनी ने या तो फसल नहीं खरीदी या फिर चेक ही बाउंस हो गए. आज तक किसानों को उनके नुकसान के 22 करोड़ रूपये नहीं मिले हैं. ये दो अनुभव अब देश के पैमाने पर किसानों के आम अनुभवों का हिस्सा बनने जा रहे हैं, किसानों की तबाही की नई कहानियों के साथ.
ठेका खेती का अर्थ है कि कॉर्पोरेट कंपनियां अब अपनी मनमर्जी से अपनी शर्तों के अनुसार किसानों को खेती के लिए बाध्य करेगी. “आपसी सहमति” का प्रावधान तो केवल दिखावा है. इन विधेयकों के प्रावधान भी कॉर्पोरेटों के पक्ष में ही रखे गए हैं, जो स्पष्ट रूप से कहते हैं कि किसानों को खेती-किसानी का पूरा सामान कंपनी से उसके भाव पर खरीदना होगा. इसका अर्थ है कि उसे जमीन गिरवी रखकर क़र्ज़ लेना होगा. यदि बिक्री के समय फसल का बाज़ार भाव ‘कंपनी से किए गए अनुबंध से कम’ है, तो कंपनी फसल न खरीदने या कम कीमत देने के लिए स्वतंत्र है. ऊपर से तुक्का यह कि अनुबंध तोड़ने के लिए कंपनी को किसी भी कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकेगी. लेकिन यदि बाज़ार में फसल का भाव अनुबंध से ज्यादा है, तो भी किसान को अपनी फसल कंपनी को बाज़ार भाव से कम दाम पर ही बेचना होगा और वह अपनी फसल बाज़ार में नहीं बेच सकता. लुब्बो-लुबाब यह कि जोखिम तुम्हारा, मुनाफा हमारा! इस प्रकार यह विधेयक किसानों को लाभकारी दाम नहीं, कंपनियों के लिए मुनाफा सुनिश्चित करता है. तो यह है किसानों की मुक्ति की असलियत!!
अब व्यापार पर बात करें. हमारे देश का खाद्य बाज़ार 62 लाख करोड़ रुपयों का है. दो-दो केन्द्रीय बजट इसमें समा जाते हैं – इतना बड़ा! देश की 35000 कृषि उपज मंडियों के जरिये इस बात को सुनिश्चित करने की कोशिश की जाती है कि किसानों को समर्थन मूल्य मिलें और केवल लाइसेंस प्राप्त व्यापारी ही इन मंडियों में प्रवेश करें. मंडियों के बाहर फसलों की खरीदी-बिक्री पर अभी रोक है और इसके लिए जुर्माने का प्रावधान है. लेकिन कंपनियों के लिए अब यह प्रतिबंध हटाया जा रहा है और उसे कोई शुल्क अदा किए बिना मंडियों से बाहर खरीदने, और यहां तक कि किसानों की खेतों से फसल उठाने, की छूट दी जा रही है. किसानों से कहा जा रहा है कि यदि उसे अच्छी कीमत मिलती है, तो उसे रायपुर का अपना माल दिल्ली ले जाकर बेचने की भी छूट है. यह ठीक वैसा ही सपना है, जैसा संविधान के अनुच्छेद-370 को हटाते हुए इस देश के लोगों को ‘कश्मीर में जाकर जमीन खरीदने’ का दिखाया जा रहा था. हकीकत तो यह है कि इस देश का गरीब किसान अपनी फसल ट्रेक्टर-ट्रोलियों में लादकर मंडियों में ले जाने, नीलामी के लिए कई-कई दिन इंतजार करने और फिर अपनी फसल का मूल्य पाने के लिए और कुछ दिन इंतजार करने की भी हालत में नहीं होता.
इस कानून के प्रावधानों का कुल मिलाकर यह असर होने जा रहा है कि मंडियों में किसानों की सामूहिक सौदेबाजी की जो ताकत बनती है, उस ताकत को ही ख़त्म किया जा रहा है. अब कॉर्पोरेट कंपनियों को यह अधिकार मिलने जा रहा है कि बिना कोई शुल्क चुकाए किसानों के खेतों से ही फसल उठवा लें और समर्थन मूल्य देने की भी उस पर कोई कानूनी बाध्यता नहीं रहेगी. कृषि व्यापार में अंतर्राज्यीय बाधाएं ख़त्म हो जाने के बाद अब कंपनियां भी अपनी निजी मंडियां स्थापित कर लेंगी और गांव-गांव में कम भाव में किसानों की फसल खरीदने के लिए दलाल नियुक्त करेगी, जो स्वाभाविक रूप से उस इलाके के ताकतवर लोग ही होंगे. इन्हें कानून में एग्रीगेटर (जमाकर्ता) कहा गया है. यही लोग ऑनलाइन व्यापार भी स्थापित करेंगे, जो फसल के बाज़ार में आने के समय भाव गिराने का खेल पूरे देश के पैमाने पर खेलेंगे. कागजों में सरकारी मंडियां तो होंगी, लेकिन किसानों की फसल खरीदने वाला कोई नहीं होगा और इसलिए बेहतर दाम पाने के लिए ‘मंडियों के चयन की’ कोई ‘स्वतंत्रता’ भी नहीं होगी, जिसका दावा विधेयक में किया गया है. फसलों का मूल्य निर्धारण और सब कुछ सरकारी नियंत्रण से बाहर होगा. यह है मुक्त व्यापार की असलियत!!
और अब वितरण पर बात. स्वाभाविक है कि सरकारी मंडियों के जरिये किसानों का अनाज नहीं बिकेगा, तो समर्थन मूल्य की बाध्यता से तो सरकार मुक्त होगी ही, राशन दुकानों के जरिये इसके सार्वजनिक वितरण की जिम्मेदारी से भी छुट्टी मिलेगी, क्योंकि सरकारी गोदाम तो खाली रहेंगे. इन तीनों कृषि विरोधी विधेयकों के पीछे सरकार का मकसद भी यही है कि कृषि क्षेत्र में इन जिम्मेदारियों से वह मुक्त हो. लेकिन आवश्यक वस्तुओं की सूची से खाद्यान्न को ‘बाहर’ निकालने का अर्थ यह है कि अब व्यापारी असीमित स्टॉक जमा कर सकेगा, कार्टेल बनाकर कृत्रिम संकट पैदा करेगा और कालाबाजारी के जरिये मुनाफा कमाएगा. अतः ये विधेयक केवल किसानों की ही नहीं, आम उपभोक्ताओं की लूट के दरवाजे भी खोलता है.
विधेयक में स्पष्ट कहा गया है कि जब तक अनाज व तेल के दाम पिछले साल के औसत मूल्य की तुलना में डेढ़ गुना व आलू-प्याज, सब्जी-फलों के दाम दुगुने से ज्यादा नहीं बढ़ेंगे, तब तक सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी. इसका अर्थ है कि खाद्य वस्तुओं में महंगाई को 50-100% की दर से और अनियंत्रित ढंग से बढ़ाने की कानूनी इजाजत दी जा रही है और 30 रूपये किलो बिकने वाले आटे को अगले साल 45 रूपये में और उसके अगले साल 67 रूपये में बेचने की अनुमति है. इसी तरह इस समय बिक रहा 60 रूपये किलो का टमाटर अगले साल 120 रूपये किलो और उसके अगले साल 240 रूपये किलो बिकेगा, फिर भी सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी. इस प्रावधान का उपयोग वायदा कारोबार में सट्टेबाजी के लिए किया जाएगा. इसका मतलब है, खेती-किसानी के बाद जनता की थाली की सब्जी-रोटी, दाल-भात निशाने पर है. इस प्रकार, ये तीनों विधेयक सार-रूप में इस बात की घोषणा करते हैं कि अब भविष्य में कॉर्पोरेट कंपनियां ही खेती-किसानी करवायेंगी, खाद्यान्नों का देश के अंदर और बाहर (आयात-निर्यात) व्यापार करेगी और वितरण करेगी. इन कामों में सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होगा और वह केवल मक्खी मारने का काम करेगी.
इन तीनों विधेयकों का मिला-जुला प्रभाव किसानों और देश के आम उपभोक्ताओं के जीवन-अस्तित्व के लिए बहुत खतरनाक होगा, क्योंकि :
1- अब फसल की खरीदी कंपनियां करेंगी और इस काम से सरकार व मंडियों का नियंत्रण समाप्त हो जाएगा.
2- अब यह कंपनियां किसानों से अपनी शर्तों पर बंधुआ के रूप में खेती करा पाएंगी, जिसमें जोखिम किसानों का ही होगा.
3- कंपनियों की खरीदी व्यवस्था स्थापित होते ही सरकार आसानी से न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने और फसल की खरीदारी करने की व्यवस्था से पीछे हट जायेगी. जब खाद्यान्न ‘आवश्यक वस्तु’ ही नहीं रहेगी, तो इनके भाव और व्यापार पर भी सरकारी नियंत्रण समाप्त हो जाएगा.
4- जब सरकारी खरीद ही रूक जायेगी, तो इसके भंडारण और सार्वजानिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था भी समाप्त हो जायेगी. इसी प्रकार, बीज, कीटनाशक व खाद की आपूर्ति करने और कृषि के लिए बिजली-पानी की व्यवस्था करने का जिम्मा कंपनियों पर छोड़ दिया जायेगा. इसके लिए इन कंपनियों को भारी सब्सीडी भी दी जाएगी.
5- इन कानूनों का सबसे बड़ा नुकसान भूमिहीन खेत मजदूरों और सीमांत व लघु किसानों को होगा, जो हमारे देश में कुल खेतिहर परिवारों का 85% से ज्यादा है. खेती-किसानी अवहनीय हो जाने से वे धीरे-धीरे अपनी जमीन और जीविका के साधन से वंचित हो जायेंगे. अलाभकारी कृषि से उन पर और कर्ज़ चढ़ेगा, किसान आत्महत्याओं में और तेजी से वृद्धि होगी.
6- इसका नुकसान हमारे देश के पर्यावरण को भी होगा, क्योंकि ज्यादा मुनाफा कमाने के लालच में ये कंपनियां जीएम बीजों, अत्यधिक हानिकारक रसायनों के इस्तेमाल और खेती के हानिकारक तरीकों को बढ़ावा देगी. इससे भूमि की बंजरता बढ़ेगी और निकट भविष्य में खाद्यान्न आत्म-निर्भरता ख़त्म होगी. अनाज के लिए विकसित देशों पर निर्भरता बढने से हमारी राजनैतिक संप्रभुता को भी खतरा पैदा होगा, जो खाद्यान्न संकट का इस्तेमाल राजनैतिक ब्लैकमेल के लिए करते है.
ये विधेयक राज्यों के अधिकारों का भी हनन करते हैं. देश के संघीय ढांचे में कृषि राज्यों का विषय है. लेकिन राज्यों से बिना विचार-विमर्श किए जिस प्रकार केन्द्रीय कानून बनाए जा रहे हैं, वे राज्यों को कृषि क्षेत्र के विनियमन के अधिकार से ही वंचित करते हैं. यह देश के संघीय ढांचे का सीधा उल्लंघन और संविधान विरोधी कदम है.
अपने पाशविक बहुमत के आधार पर मोदी सरकार भले ही इन विधेयकों को संसद से पारित करवा लें, लेकिन इसे लागू होना उस जमीन पर ही है, जिसे हमारे देश के बहुसंख्यक छोटे किसान सदियों से जोतते-बोते आ रहे हैं. वे इसका प्रतिरोध करेंगे कि कॉर्पोरेट कंपनियां उनकी जमीन को हड़प कर जाएं. संसद के अंदर का जनतांत्रिक विपक्ष का प्रतिरोध अब सड़क की लड़ाई लड़ने के लिए उतर रहा है. जून से ही जारी किसानों का राज्य स्तरीय प्रतिरोध अब देशव्यापी प्रतिरोध में संगठित हो रहा है और नए जोश से मैदान में उतर रहा है. इस संगठित किसान आंदोलन को देश की आम जनता की मदद, समर्थन और एकजुटता की दरकार है – खेती-किसानी बचाने के लिए, खाद्य आत्म-निर्भरता बचाने के लिए और देश बचाने के लिए!!
संजय पराते, छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष हैं.