अयोध्या: बीजेपी ने सत्ता पाने के लिए राम की छवि के साथ ‘खेला’ कर दिया!

आरएसएस और बीजेपी नेता बार-बार कहते थे कि कोर्ट आस्था से जुड़े मसलों का फैसला नहीं कर सकता। लेकिन केंद्र पर काबिज होने के बाद ऐसी आड़ की ज़रूरत नहीं रह गयी। 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित स्थल को तीन भागों में बाँट कर सबको संतुष्ट किया था लेकिन मामला सुप्रीम कोर्ट में आ गया। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में अपने फैसले से पूरी जमीन राममंदिर पक्ष के हवाले कर दी। लेकिन इस फैसले में यह भी कहा गया कि 22-23 दिसंबर 1949 को जबरदस्ती घुसकर मस्जिद में मूर्तियाँ रखी गयी थीं, बाबरी मस्जिद तोड़ना एक आपराधिक कृत्य था और बाबर द्वारा मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने के कोई प्रमाण नहीं हैं। ये सभी बातें राममंदिर आंदोलन के दौरान किये गये बीजेपी के तमाम प्रचार की कलई खोलती हैं। लेकिन इसकी उसे परवाह भी कहाँ है। राम मंदिर के नाम पर वह भारत की केंद्रीय सत्ता पर काबिज हो चुकी है। सवाल तो राम का है कि उन्हें अपनी पूरानी छवि कैसे हासिल हो जिसे देखकर भक्तों के चित्त में युद्ध का घोष नहीं शांति का शंख बजता था।

प्रख्यात समाजशास्त्री आशीष नंदी ने अपने एक लेख (गॉड्स एंड गॉडसेस इन साउथ एशिया) में एक दिलचस्प जानकारी है। उन्होंने लिखा है कि जब महात्मा गाँधी एक बार राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की ‘शाखा’ देखने गये तो वहाँ महाराणा प्रताप और शिवाजी जैसे वीरों की तस्वीरें थीं लेकिन राम की नहीं। गांधीजी ने स्वाभाविक रूप से पूछा, ‘आपने राम का चित्र भी क्यों नहीं लगाया?’ एक आरएसएस प्रतिनिधि ने उन्हें जवाब दिया, “नहीं, हम ऐसा नहीं कर सकते। राम हमारे उद्देश्य की पूर्ति के लिए बहुत ही ‘स्त्रैण’ हैं!”

सीता, लक्ष्मण और हनुमान के साथ हल्की मुस्कान के साथ अभयमुद्रा वाली जो छवि सदियों से भक्तों के चित्त को शांति देती थी, वह आरएसएस के लिए किसी काम की नहीं थी। विडंबना है कि आरएसएस ने बाद में राम को ही अपने उद्देश्यों की पूर्ति के ज़रिया बनाया। इसके लिए उसने स्वयं को नहीं राम को ही बदल दिया। जो समाज सीता के बिना राम की कल्पना नहीं कर सकता था और ‘सियाराम मय सब जग जानी’ में डूबता-उतराता था उसने पोस्टरों में क्रोधित नज़र आने वाले ऐसे धनुषटंकार करते श्रीराम के दर्शन किये जिसमें ‘स्त्रैणता’ की कोई छाया नहीं थी। कोमल संवेदनाओं की प्रतीक रहीं सीता की इस पोस्टर में कोई जगह नहीं थी। बिना किसी भेद के हाथ जोड़कर ‘जय सीताराम’ कहकर अभिवादन करने वाले समाज ने मुट्ठी तानकर उग्र स्वरों में ‘जय श्रीराम’ का घोष सुना।

अयोध्या में राममंदिर लेकर कानूनी विवाद 1949 को शुरू हुआ जब बाबरी मस्जिद में जबरदस्ती मूर्तियाँ रख दी गयीं थीं। पर न आरएसएस या 1951 में बने जनसंघ की ही इसमें कोई दिलचस्पी थी। 1977 में जनता पार्टी मे विलय होने तक राममंदिर का सवाल जनसंघ के मंच से कभी नहीं उठा। 1980 में इंदिरा गाँधी के तूफान के सामने जनता पार्टी की बुरी पराजय हुई और दोहरी सदस्यता के सवाल ने आरएसएस के प्रति प्रतिबद्धता न छोड़ने वालों को बाहर जाने को मजबूर कर दिया। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी नाम से नया दल बनाया।

आज भारतीय जनता पार्टी की आधिकारी वेबसाइट पर विचारधारा के रूप में ‘गाँधीवादी समाजवाद’ ढूँढना मुश्किल है, लेकिन 6 अप्रैल 1980 को गठन के समय इसे ही पार्टी की मार्गदर्शक विचारधारा घोषित किया गया था। उम्मीद थी कि ‘गाँधीवाद’ और ‘समाजवाद’ जैसे संकल्पों के जरिए यह नयी पार्टी समाज के व्यापक हिस्से को संबोधित कर सकेगी लेकिन 1984 के आम चुनाव में उसकी बुरी हार हुई। इंदिरा गाँधी की शहादत से उपजी सहानुभूति लहर में लगभग पूरा विपक्ष ही बह गया। बीजेपी को सिर्फ दो सीटें मिल सकीं। यह 1952 में जनसंघ के पहले चुनाव में मिली तीन सीटों से भी ख़राब प्रदर्शन था। अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज भी चुनाव हार गये थे। बीजेपी ने आखिर उदारवाद का मुखौटा उतार देना ही बेहतर समझता। 1986 में वाजपेयी की जगह लालकृष्ण आडवाणी अध्यक्ष बनाये गये और 11 जून 1989 के हिमाचल प्रदेश के पालमपुर हुई राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में पार्टी ने अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने का प्रस्ताव पारित किया।

आरएसएस ने 1964 में विश्व हिंदू परिषद का गठन किया था जिसने आगे चलकर राममंदिर आंदोलन की कमान संभाली। लेकिन हैरानी की बात है कि 23 मार्च 1983 तक इस मामले में उसकी कोई रुचि नहीं थी। इस तारीख को मुजफ्फरनगर में हुए एक हिंदू सम्मेलन में जब रामजन्मभूमि को लेकर प्रस्ताव पास हुआ तो वीएचपी इस मौके को भुनाने मे जुट गयी। 25 सितंबर 1984 को बिहार के सीतामढ़ी से रामजानकी रथ यात्रा अयोध्या के रास्ते दिल्ली के लिये रवाना की गयी। एक मोटर को रथ की शक्ल देकर उसमें राम-जानकी की मूर्तियों को कैद दिखाया गया था ताकि हिंदुओं में आक्रोश पैदा हो। इस अभियान की मुख्य माँग थी कि मस्जिद का ताला खोलकर जमीन मंदिर निर्माण के लिए हिंदुओं को दे दी जाये। इस अभियान में बड़े पैमाने पर संत-महात्माओ को भी जोड़ा गया था जो अपने प्रवचनों में राममंदिर का मुद्दा उठाते थे और जनमानस प्रभावित होता था।

1986 में कोर्ट के आदेश पर मस्जिद में रखी मूर्तियों के दर्शन पर पड़ा ताला खुल जाने से ये मुद्दा और गरमा गया। कुल मिलाकर माहौल बन चुका था और चुनावी बिसात पर लगातार मात खा रही बीजेपी ने इस मुद्दे को अपनी ताकत बना लिया था। बीजेपी ने 1989 में वी.पी.सिंह के नेतृत्व में बने राष्ट्रीय मोर्चा के साथ चुनावी गठबंधन किया और लोकसभा की 85 सीटें जीतने में कामयाब रही। चुनावी राजनीति के लिहाज से यह उसकी पहली बड़ी छलाँग थी जिसकी पृष्ठभूमि मे अयोध्या में प्रस्तावित राममंदिर की तस्वीर भी थी। लेकिन जब 9 अगस्त 1990 को वी.पी.सिंह लाल किले से मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कोरने की घोषणा की तो पार्टी को जमीन खिसकती नजर आयी। 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण की घोषणा एक सवर्ण वर्चस्व वाली पार्टी के लिए किसी झटके की तरह थी। बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व कोई स्पष्ट बात कहने से बचता रहा लेकिन हिमाचल प्रदेश में शांता कुमार के नेतृत्व में चल रही बीजपी की सरकार ने मंडल कमीशन लागू न करने का खुला ऐलान कर दिया। मंडल के खिलाफ़ छात्रो का जो उग्र प्रदर्शन हुआ उसे भी बीजेपी का प्रछन्न समर्थन था।

आखिरकार मंडल का जवाब कमंडल से देने का फैसला हुआ। 25 सितंबर को सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा करने का ऐलान किया गया। एक टोयटा ट्रक को रथ का स्वरूप दिया गया जिस पर आडवाणी सवार हुए। पार्टी की कोशिश राममंदिर के मुद्दे के ज़रिए ऐसा भावनात्मक उबाल लाना था जिसके सामने जाति या भागीदारी का सवाल छोटा पड़ जाये। इस ‘राम रथ यात्रा’ के जरिए आडवाणी लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचे। रथयात्रा के स्वागत के नाम पर हिंदू गौरव की पुनर्स्थापना का आह्वान किया जाने लगे जिसे मंडलकमीशन की सिफारिशों से आहत ‘सवर्ण मानस’ का भरपूर समर्थन मिला। साथ ही इस अभियान ने बड़े पैमान पर देश में सांप्रदायिक उन्माद पैदा किया। कई राज्यों में दंगे हुए। रथयात्रा को 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुँचना था पर बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने 23 अक्टूबर को समस्तीपुर में आडवाणी को गिरफ्तार करवा दिया। बीजेपी ने इसे मुद्दा बनाकर तुरंत ही वी.पी.सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया।

आडवाणी की गिरफ्तारी के बावजूद 30 अक्टूबर को कारसेवकों की भारी भीड़ अयोध्या पहुँच गयी। उनके निशाने पर बाबरी मस्जिद थी। तब मुलायम सिंह यादव यूपी के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने सख्ती दिखायी और कारसेवकों की उग्र भीड़ को रोकने के लिए चली पुलिस की गोली में 16 कारसेवकों की जान चली गयी। बीजेपी ने इन सभी घटनाओं को राजनीतिक मुद्दा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। नतीजा ये हुआ कि 1991 के लोकसभा चुनाव में उसे 120 सीटें हासिल हुईं और यूपी में भी कल्याण सिंह के नेतृत्व में वह सरकार बनाने में कामयाब हुई। इस अभियान को नया रंग देना अब आसान था। कल्याण सिंह सरकार ने बाबरी मस्जिद से लगी हुई 2.77 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण करके आने वाले दिनों का संकेत देदिया। बीजेपी पूरे रंग में राममंदिर आंदोलन को लेकर कार्यक्रम आयोजित करते हुए अपनी शक्ति बढ़ा रही थी। 6 दिसंबर 1992 को फिर कारसेवा का ऐलान हुआ जिसे रोकने में बतौर मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कोई रुचि नहीं दिखायी और तमाम बड़े बीजेपी नेताओं की उपस्थिति में आखिरकार बाबरी मस्जिद तोड़ दी गयी। पूर्व राष्ट्रपति के.आर.नारायणन ने इसे महात्मा गाँधी की हत्या के बाद आजाद भारत की दूसरी सबसे दुर्भाग्यपूर्ण घटना करार दिया था।

बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के बाद यूपी, मध्यप्रदेश, राजस्थान और हिमाचल की बीजेपी सरकारों को बरखास्त कर दिया गया। हैरानी की बात है कि बीजेपी सिर्फ राजस्थान में वापसी कर पायी। वजह बना कांशीराम के नेतृत्व में गठित बहुजन समाज पार्टी का आंदोलन। इसके प्रभाव से हिंदी पट्टी मे पेरियार मेले लग रहे थे और शंबूक पर भी चर्चा हो रही थी। डा.आंबेडकर के ‘हिंदुत्व विरोधी’ साहित्य का बड़े पैमाने पर प्रसार हो रहा था। बीजेपी के पास इन सवालों का जवाब नहीं था। पिछड़ों के सबसे बड़े नेता बन कर उभर चुके मुलायम सिंह यादव सपा और बसपा ने मिलकर 1993 के चुनाव मे बीजेपी को पटकनी देकर यूपी मे सरकार बना ली। दलित-पिछड़ों के इस उभार की काट के लिए बीजेपी ने तीन बार मायावती को समर्थन देकर मुख्यमंत्री बनाया। बदले में बीएसपी ने पेरियार मेले लगाकर डा.आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं का पाठ बंद कर दिया जिसमें राम की पूजा न करने का निर्देश था। बीजेपी को यूपी में नये ढंग से सोशल इंजीनियरिंग करके अपने बलबूते सत्ता पाने में 25 साल लग गये। यूपी में 1991 के बाद 2017 में ही बीजेपी की सरकार अपने दम पर बन सकी।

ऐसा नहीं है कि इस मुद्दे के शांतिपूर्ण हल के प्रयास नहीं हुए थे। 1987 में वीर बहादुर सिंह के मुख्यमंत्री रहते बिना मस्जिद को नुकसान पहुँचाये मंदिर बनने की योजना पर विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल ने भी सहमति दे दी थी। लेकिन आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने उन्हें डाँट लगाते हुए कहा कि “इस देश में 800 राममंदिर हैं, एक और बन जाये तो 801वाँ होगा। लेकिन यह आंदोलन जनता मे लोकप्रिय हो रह था। उसका समर्थन बढ़ रहा था, जिसके बल पर हम राजनीतिक रूप से दिल्ली में सरकार बनाने की स्थिति में पहुँचते। तुमने इसका स्वागत करके वास्तव में आंदोलन की पीठ में छुरा भोंका है।” (अयोध्या: रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद का सच, पेज 110, लेखक-शीतला सिंह)

ये बताता है कि आएसएस राममंदिर आंदोलन के जरिये मंदिर नहीं सत्ता पर कब्जा करना चाहता था। इसीलिए उसने स्कंद पुराण में वर्णित अयोध्या के स्थलों को भी मानने से इंकार कर दिया क्योंकि उसके अनुसार रामजन्म स्थान बाबरी मस्जिद के गर्भगृह में नहीं कहीं और निकल रहा था। न वह बातचीत से समझौता करने को तैयार था और न कोर्ट को ही मान्यता देता था। राम के प्रति आस्था को अपनी राजनीतिक शक्ति में बदलकर बीजेपी 1996 में 13 दिन, 1998 में 13 महीने और 1999 में पूरे पाँच साल की सरकार बनाने में कामयाब हुई। यह अलग बात है कि इसके लिए उसे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाना पड़ा और राममंदिर मुद्द को ठंडे बस्ते मे डालना पड़ा।

आरएसएस और बीजेपी नेता बार-बार कहते थे कि कोर्ट आस्था से जुड़े मसलों का फैसला नहीं कर सकता। लेकिन केंद्र पर काबिज होने के बाद ऐसी आड़ की ज़रूरत नहीं रह गयी। 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित स्थल को तीन भागों में बाँट कर सबको संतुष्ट किया था लेकिन मामला सुप्रीम कोर्ट में आ गया। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में अपने फैसले से पूरी जमीन राममंदिर पक्ष के हवाले कर दी। लेकिन इस फैसले में यह भी कहा गया कि 22-23 दिसंबर 1949 को जबरदस्ती घुसकर मस्जिद में मूर्तियाँ रखी गयी थीं, बाबरी मस्जिद तोड़ना एक आपराधिक कृत्य था और बाबर द्वारा मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने के कोई प्रमाण नहीं हैं। ये सभी बातें राममंदिर आंदोलन के दौरान किये गये बीजेपी के तमाम प्रचार की कलई खोलती हैं। लेकिन इसकी उसे परवाह भी कहाँ है। राम मंदिर के नाम पर वह भारत की केंद्रीय सत्ता पर काबिज हो चुकी है। सवाल तो राम का है कि उन्हें अपनी पूरानी छवि कैसे हासिल हो जिसे देखकर भक्तों के चित्त में युद्ध का घोष नहीं शांति का शंख बजता था।

 

डॉ. पंकज श्रीवास्तव मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।

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