राजस्थान: राजभवन के कंगूरे पर बैठे बीजेपी के शिकारी और जादूगर गहलोत के खरगोश

राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा सत्ता की छीना-झपटी की कोशिश शुरू होने पर हमने रेखांकित किया था कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत असली जीवन के पुराने जादूगर हैं। वह जरूरत पड़ने पर अपना हैट उठा कर खरगोश की लाइन लगाने की जादूगरी दिखा सकते हैं. 

भारत की स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर 14 अगस्त से राज्य विधान सभा के आहूत विशेष सत्र में यह  सियासी जादूगरी देखने के लिए सब तैयार हो जाएं तो बेहतर. अशोक गहलोत ने कांग्रेस के ‘बाग़ी’ सचिन पायलट की जगह पार्टी के नये प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह दोतसरा के पदभार ग्रहणकरने के मौके पर विधायकों से कहा, “ इतिहास बन रहा है. हम जीतेंगे।

प्रदेश में कांग्रेस के नेतृत्व वाले सत्ता-पक्ष और भाजपा की अगुवाई में विपक्ष के बीच शक्ति परीक्षण की दरकार पर राजस्थान हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में भी सप्ताह भर न्यायिक रस्साकसी चली. सत्ता के लिए पक्ष और विपक्ष के बीच शक्ति परीक्षण की जगह न्यायालय नहीं, राष्ट्रपति भवन या राजभवन भी नहीं बल्कि लोकसभा या विधानसभा ही है. इस संवैधानिक व्यवस्था पर सुप्रीम कोर्ट अपनी मुहर बहुत पहले लगा चुका है. संसदीय लोकतंत्र के वैश्विक फलक पर विकसित परम्पराओं, विधिक मान्य-सिद्धांतों और अदालती-नज़ीर यही है कि किसी भी सरकार के बहुमत परीक्षण की जगह  विधानसभा ही है. 

गवर्नर कलराज मिश्र विधानसभा का सत्र बुलाने के लिए राजी हो गए हैं। उन्होंने 14 अगस्त से सत्र बुलाने की अनुमति दे दी है। श्री मिश्र ने इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में कहा: “कैबिनेट द्वारा भेजे गए नये प्रस्ताव पर मैं सदन को 14 अगस्त, 2020 से बुला रहा हूँ।” 

मोदी सरकार– प्रथम में काबीना मंत्री और उत्तर प्रदेश में भी कई बार कैबिनेट मंत्री रहने के अलावा प्रदेश में भाजपा के अध्यक्ष भी रह चुके श्री मिश्र सियासी दांव-पेंच के पुराने साक्षी है। मगर वो गवर्नर बनकर शायद भूल गए कि शक्ति परीक्षण सदन में हो, इसके लिए वह उत्तर प्रदेश के राजभवन जाकर मांग करने वालों में शामिल थे। इस बारे में मीडिया विजिल में पहले ही उस समय की तस्वीर समेत लेख प्रकाशित हो चुका है। तस्वीर यहाँ भी देख सकते हैं-

यह भी उल्लेख करना चाहेंगे कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर उत्तर प्रदेश विधान सभा में 1990 के मध्य में मुख्यमंत्री पद के दो दावेदारों- जगदम्बिका पाल और कल्याण सिंह के बीच शक्ति परिक्षण के लिए विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी के आसान के अगल-बगल दोनों के लिए कुर्सी लगायी गयी थी। मुख्यमंत्री की दो कुर्सियों का वह अभूतपूर्व दृश्य श्री मिश्र भूल सकते हैं, दुनिया नहीं भूलेगी।  

श्री मिश्र ने सत्र को देरी से बुलाने के लिए राज्य सरकार की कैबिनेट को जिम्मेदार ठहराया है। उन्होंने कहा, “इस (कोरोना) महामारी और अप्रत्याशित राजनीतिक परिस्थितियों के दौर में सरकार इतनी संक्षिप्त नोटिस पर नियमित सत्र क्यों बुलाना चाहती थी उसके कारणों की व्याख्या नहीं थी। 

राज्य सरकार ने सत्र बुलाने 21 दिन पहले नोटिस भेजने के गवर्नर के निर्देशों को पूरा करते हुए 14 अगस्त से सत्र बुलाने के नये प्रस्ताव राजभवन भेज दिये। राज्य के कानून एवम संसदीय कार्यमंत्री शांति कुमार धारीवाल के अनुसार सत्र बुलाने का पहला प्रस्ताव 23 जुलाई को राज्यपाल के पास भेजा गया था। गवर्नर ने आखिरकार चौथे प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। 

कर्नाटक  

शक्ति परीक्षण के लिए निर्वाचित विधायिका के ही सर्वोत्तम जगह होने की संवैधानिक व्यवस्था पर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मुहर कर्नाटक के ही मुख्यमंत्री रहे एस.आर.बोम्मई की एक याचिका पर बहुत लंबी चली सुनवाई के बाद दी थी. तब तक राज्य में नए चुनाव का समय आ गया था. 

बहरहाल, कुछ अरसा पहले कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने पर निवर्तमान मुख्यमंत्री बीएस येद्दयूरप्पा  ने राज्यपाल की कृपा से फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी हथिया ली. उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक रहे और गुजरात में मोदी सरकार के मंत्री रह चुके राज्यपाल वजुभाई वाला की कृपा से  अल्पसंख्यकसरकार बनाने में क़ामयाब हो गये लेकिन जोड़-तोड़-जुगाड़ के बावजूद विधान सभा में बहुमत सिद्ध नहीं कर सके। 

चुनाव परिणामों के गणित में कांग्रेस भी नहीं जीत सकी थी। पर उसने चुनाव बाद फुर्ती से पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी देवेगौड़ा के जनता दल-सेकुलर को नई सरकार के लिए बिना शर्त समर्थन-पत्र की प्रति राज्यपाल को सौंप दी। कांग्रेस का यह कदम उसके लगभग पूरे भारत में चुनावी हार पर हार  के चंगुल से निकल कर अपने अस्तित्व को बचाने का नया लंबा पथ था। यह भारत की राजसत्ता के केंद्र में सत्तारूढ़  भाजपा कीकेन्द्रीकृतवाद” की जड़ पर असरकारी चोट करने करने का कदम भी था। यह देश का राजकाज “संघीयतावादी” संविधान के अनुसार चलाने में  क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के साथ मिलकर मोर्चाबंदी को सुदृढ़ करने की अनिवार्यता पर कांग्रेस की सहमति भी थी। 

तब राज्यपाल के पास एकमात्र विकल्प था कि वह जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करें जो स्पष्ट बहुमत हासिल होने का पुख्ता दावा कर जो सदन में बहुमत साबित करने तैयार था। जब सुप्रीम कोर्ट में मामला पहुंचा तो उसने फिर इस संवैधानिक व्यवस्था पर पहले ही लगाई अपनी मुहर की नज़ीर देकर राज्यपाल को सदन में बहुमत परीक्षण करने के कदम उठाने के निर्देश दिया. परिणामस्वरूप येदुरप्पा जी के हाथ पैर फूल गए। उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ पतली गली से सत्ता से बाहर निकल लेना ही श्रेयस्कर समझा. वैसे जनता दल सेकुलर (जेडी-एस) अध्यक्ष देवेगौड़ा के पुत्र एवं पूर्व मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्‍वामी की कांग्रेस के आंतरिक समर्थन से बनी नई सांझा सरकार ज्यादा टिक नहीं सकी। येदियुरप्पा जी केंद्र की  मोदी सरकार के समर्थन और धनबल-बाहुबल के जोर पर विधायकों को तोड़कर फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो गए। कर्नाटक, दक्षिण भारत का एकमात्र राज्य है जहां भाजपा सत्ता में है। 

भाजपा के रणनीतिकारों को पता होगा कि 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में उसकी पहली सरकार अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में बन गयी थी। लेकिन वह 13 दिन में ही गिर भी गई थी। श्री देवेगौड़ा उसके बाद ही कायम संयुक्त मोर्चा  के प्रधानमन्त्री बने थे।  भाजपा के नए रणनीतिकारों को यह भी पता होगा कि 1998 के लोकसभा चुनाव के बाद अटल बिहारी वाजपेयी की दूसरी सरकार, सदन में पेश विश्वास-प्रस्ताव सिर्फ एक वोट के अंतर से ही हार गयी थी। 

हम मीडिया विजिल के अपने चुनाव चर्चा स्तम्भ में लगातार रेखांकित करते रहे हैं कि चुनाव-पश्चात के सूक्ष्म प्रबंधन में भाजपा कांग्रेस से कुछ ज्यादा माहिर हो चुकी है।  भाजपा हर हालत में नई सरकार बना सकती है। कांग्रेस गोवा की तरह कई राज्यों में जीती हुई बाजी हार चुकी है जबकि भाजपा हारी हुई बाजी को जीतने में कामयाब हो चुकी है। वह मध्य प्रदेश में चुनावी जीत के बाद पूर्व केंद्रीय मंत्री कमलनाथ के मुख्यमंत्रित्व में सरकार बना लेने के बाद भी कांग्रेस के ज्योतिरादित्य सिंधिया को पाला बदलवाने की अपनी चाल में सफल रहने के बाद पिछले दरवाजा से फिर सत्ता में दाखिल होने का करतब दिखा चुकी हैं। 

बहरहाल देखना है कि जादूगर अशोक गहलोत के हैट से निकले खरगोश भाजपा के सियासी शिकार से कैसे और कब तक बच पायेंगे. 



चंद्रप्रकाश झा, उर्फ सी.पी. वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक मामलों के विशेषज्ञ हैं। मीडिया विजिल में हर मंगलवार को उनका साप्ताहिक स्तम्भ चुनाव चर्चा भी प्रकाशित होता है।



 

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