वैश्विक स्तर पर पत्रकारिता की दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार माने जाने वाले पुलित्ज़र पुरस्कार के इस वर्ष के विजेताओं की घोषणा कर दी गयी है। लगातार मुश्किल होते जा रहे पत्रकारिता के दौर में स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए संघर्ष कर रहे पत्रकारों के लिए यह हौसला बढ़ाने वाली ख़बर हो सकती है कि जम्मू-कश्मीर के पत्रकारों मुख़्तार खान, दार यासीन और चानी आनंद को ‘फ़ीचर फ़ोटोग्राफ़ी’ श्रेणी में पुलित्ज़र पुरस्कार से नवाज़ा गया है।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कश्मीर के पत्रकार, खासकर फ़ोटो जर्नलिस्ट सरकार के निशाने पर रहे हैं। इतिहास में जाने की ज़रूरत नहीं, अभी हाल में ही महिला फ़ोटो जर्नलिस्ट मसरत ज़हरा, ‘द हिंदू’ के रिपोर्टर पीरज़ादा आशिक़ और लेखक-पत्रकार गौहर गीलानी पर यूएपीए जैसे मामले डाल दिये गये थे। ऐसे में पुलित्ज़र की ख़बर मुश्किल हालात में काम कर रहे पत्रकारों मनोबल निसंदेह बढ़ाएगी।
साथ ही, इसे कश्मीरी पत्रकारों का सरकार के दमन का जवाब भी कहा जा सकता है।
दिल्ली से संचालित मीडिया को आंखों में थोड़ी शर्म लानी चाहिए
पत्रकारिता के गर्व करने के इस मौके पर दिल्ली से संचालित मीडिया, खासकर हिंदी मीडिया को शर्म आनी चाहिए। इसका कारण जानने के लिए हमें पुरस्कृत तस्वीरों पर नज़र डालनी चाहिए। क्या भारतीय टीवी मीडिया ने 5 अगस्त 2019 के बाद कश्मीर की कोई भी ऐसी तस्वीर हमें दिखाई, जिसमें कश्मीर ऐसा दिखता हो?
क्या प्रिंट मीडिया ने ही ऐसी कहानियां छापी, जो यह अकेली तस्वीर कह देती है:
भारतीय टीवी या प्रिंट मीडिया ने कश्मीर को लेकर कश्मीर के बाहर की दुनिया को अंधेरे में रखने की कोशिश की। लगातार हमारी मीडिया यही कहती रही कि ‘कश्मीर में सब सामान्य है’, ‘घाटी में लोग 370 हटने से खुश हैं’। जबकि यह कहीं से भी सत्य नहीं था। कोई यह पूछने वाला भी नहीं बचा था कि क्या लॉकडाउन सामान्य स्थिति में लगाया जाता है? तालाबंदी में कोई खुश कैसे हो सकता है? आज हम कोरोना की वजह से लॉकडाउन में फंसे हुए हैं, क्या हम खुश हैं? ज़ाहिर है, नहीं! इस बेईमानी को पुलित्ज़र से पुरस्कृत कश्मीर का सच बताती इन तस्वीरों ने उधेड़ कर रख दिया है।
दिल्ली की दरबारी मीडिया ने यह बेईमानी केवल पत्रकारिता के पेशे के साथ ही नहीं दिखायी है, बल्कि मनुष्यता के साथ भी दिखायी है। और यह बेईमानी आपराधिक है। जो मीडिया इस वक़्त बलूचिस्तान के पत्रकार साजिद हुसैन की क़त्ल की ख़बर को पाकिस्तान को गरियाने का बहाना जानकर खूब दिखा रही है, लेकिन जब कश्मीर की कोई महिला पत्रकार वहां के हालात बयान करती है तो उसके पुलिसिया दमन को यही मीडिया पचा लेती है और कोई ज़िक्र तक नहीं करती। जिन पत्रकारों को पत्रकारिता का सर्वोच्च सम्मान मिलता है, उसे कभी भारतीय मीडिया जगह नहीं देता, प्रकाशित नहीं करता, सरकार तो उन्हें दुश्मन की तरह देखती ही है। कहा जाता रहा है कि कश्मीर लिटमट टेस्ट है, जिसके सामने सब फेल हो जाते हैं। यह कहावत लगता है हमेशा प्रासंगिक रहने वाली है।
कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार जलिल राठौड़ की इस टिप्पणी से बात रोकनी ठीक रहे शायद, जिसमें वे कहते हैं:
“कश्मीर एक उदास कहानी है, और इसे कहने वाले हमेशा कश्मीरी ही रहे हैं। बाक़ी सब बस पटकथा रचते हैं। इधर सब चंगा नहीं सी।”