हिंदी: सड़े हुए लोगों का दु:ख और 12 कटु सत्य !

साइबर युग में हिंदी दि‍वस का वही महत्‍व नहीं है जो आज से बीस साल पहले था। संचार क्रांति‍ ने पहली बार भाषा वि‍शेष के वर्चस्‍व की वि‍दाई की घोषणा कर दी है। संचार क्रांति‍ के पहले भाषा वि‍शेष का वर्चस्‍व हुआ करता था, संचार क्रांति‍ के बाद भाषा वि‍शेष का वर्चस्‍व स्‍थापि‍त करना संभव नहीं है। अब कि‍सी भी भाषा को हाशि‍ए पर बहुत ज्‍यादा समय तक नहीं रखा जा सकता। अब भारत की सभी 22 राजकाज की भाषाओं का फॉण्‍ट मुफ्त में उपलब्‍ध है। भारतीय भाषाओं का साफ्टवेयर बनना स्‍वयं में भाषायी वर्चस्‍व की समाप्‍ति‍ की घोषणा है। संचार क्रांति‍ ने यह संदेश दि‍या है कि‍ भाषा अब लोकल अथवा स्‍थानीय नहीं ग्‍लोबल होगी। भाषा की स्‍थानीयता की जगह भाषा की ग्‍लोबल पहचान ने ले ली है। अब प्रत्‍येक भाषा ग्‍लोबल है। कोई भाषा राष्‍ट्रीय,क्षेत्रीय अथवा आंचलि‍क नहीं है।

उपग्रह क्राति‍ के साथ ही संचार क्रांति‍ हुई और हम सब नए भाषायी पैराडाइम में दाखि‍ल हुए हैं। भाषा की स्‍थानीयता खत्‍म हुई है। बहुभाषि‍कता का प्रसार हुआ है। अब वि‍भि‍न्‍न भाषाओं में लोग आसानी के साथ संवाद कर रहे हैं। एक- दूसरे को संदेश और सामग्री संप्रेषि‍त कर रहे हैं। अब हिंदी की स्‍थानीय अथवा राष्‍ट्रीय स्‍वीकृति‍ की समस्‍या नहीं है। बल्‍कि‍ संचार क्रांति‍ ने हिंदी और अन्‍य सभी भाषाओं को ग्‍लोबल स्‍वीकृति‍ दि‍लायी है। आज वे कंपनि‍यां और कारपोरेट घराने हिंदी का कारोबार करने के लि‍ए मजबूर हैं जो कभी यह मानते थे कि‍ वे सि‍र्फ अंग्रेजी का ही व्‍यवसाय करेंगे। इस प्रसंग में रूपक मडरॉक के स्‍वामि‍त्‍व वाले ‘न्‍यूज कारपोरेशन’ का उदाहरण देना समीचीन होगा। इस कंपनी की प्रति‍ज्ञा थी कि‍ वह समाचारों का सि‍र्फ अंग्रेजी में ही प्रसारण करेगा, और उसने सारी दुनि‍या में अंग्रेजी के ही न्‍यूज चैनल खोले, लेकि‍न भारत में आने के बाद पहली बार उसे अपनी प्रति‍ज्ञा हिंदी के आगे तोड़नी पड़ी और स्‍टार न्‍यूज का हिंदी में पहली बार प्रसारण शुरू हुआ। हिंदी सत्‍ता और महत्‍ता का लोहा एमटीवी संगीत चैनल ने भी माना। एमटीवी के सारी दुनि‍या में अंग्रेजी संगीत चैनल हैं, इस कंपनी ने भारत में जब संगीत चैनल खोलने का फैसला कि‍या तो हिंदी संगीत चैनल के रूप में एमटीवी आया। संचार क्रांति‍ के दबावों के कारण ही भारत सरकार ने तकरीबन 1300 करोड रूपया भारतीय भाषाओं के सॉफ्टवेयर के नि‍र्माण और मुफ्त सप्‍लाई पर खर्च कि‍या है। भाषाओं के उत्‍थान के लि‍ए इतना ज्‍यादा पैसा पहले कभी खर्च नहीं कि‍या गया। इसका सुफल जल्‍दी ही सामने आने वाला है। अब तेजी से हिंदी और भारतीय भाषाओं में भाषान्‍तरण हो रहा है भाषाओं का पहले की तुलना में आज भाषान्‍तरण और संवाद तेजी से हो रहा है। आप सहज ही अपनी भाषा में लि‍खी सामग्री को कि‍सी भी देशी वि‍देशी भाषा में रूपान्‍तरि‍त कर सकते हैं। सि‍र्फ कम्‍प्‍यूटर चलाना आता हो और इंटरनेट कनेक्‍शन हो। उपग्रह क्रांति‍ ने भाषाओं रीयल टाइम में संवाद और संचार को जन्‍म दि‍या है। भाषाओं में तत्‍क्षण संवाद की संभावना पहले कभी नहीं थीं। व्‍यक्‍ति‍ के मि‍लने के बाद ही संवाद होता था,अब तो व्‍यक्‍ति‍ नहीं भाषाएं मि‍ल रही हैं। भाषाओं के लि‍ए संचार क्रांति‍ रैनेसां लेकर आयी है।

उपग्रह क्रांति‍ के कारण यह संभव हो पाया है कि‍ आज भारतीय भाषाओं के टीवी और रेडि‍यो चैनल वि‍श्‍वभर में कहीं पर भी डीटीएच सेवाओं के जरि‍ए देखे और सुने जा सकते हैं। इंटरनेट के जरि‍ए भाषायी प्रेस सारी दुनि‍या में पढा जाता है। इस प्रक्रि‍या में भाषाओं की स्‍थानीयता खत्‍म हुई है। भाषाओं के रैनेसां का युग है। हिंदी आज स्‍वाभावि‍क तौर पर भारत की पहचान का मूलाधार बन गयी है। यह सब संचार क्रांति‍ के कारण संभव हुआ है।

14 सितम्बर को सारे देश में केन्द्र सरकार के दफ्तरों में हिन्दी दिवस का दिन है। सरकार की आदत है वह कोई काम जलसे के बिना नहीं करती। सरकार की नजर प्रचार पर होती है वह जितना हिन्दीभाषा में काम करती है उससे ज्यादा ढोल पीटती है। सरकार को भाषा से कम प्रचार से ज्यादा प्रेम है,हम लोग प्रचार को हिंदी प्रेम और हिंदी सेवा समझते हैं !

सवाल यह है कि दफ्तरी हिन्दी को प्रचार की जरूरत क्यों है ॽ जलसे की जरूरत क्यों है ॽ भाषा हमारे जीवन में रची-बसी होती है। अंग्रेजी पूरे शासनतंत्र में रची-बसी है,उसको कभी प्रचार की या हिन्दी दिवस की तरह अंग्रेजी दिवस मनाने की जरूरत महसूस नहीं हुई। भाषा को जब हम जलसे का अंग बनाते हैं तो राजनीतिक बनाते हैं। छद्म भाषायी उन्माद पैदा करने की कोशिश करते हैं। हिन्दी दिवस की सारी मुसीबत यहीं पर है। यही वह बिन्दु है जहां से भाषा और राजनीति का खेल शुरू होता है। भाषा में भाषा रहे, जन-जीवन रहे, लेकिन अब उलटा हो गया है। भाषा से जन-जीवन गायब होता जा रहा है। हम सबके जन-जीवन में हिन्दी भाषा धीरे धीरे गायब होती जा रही है, दैनंदिन लिखित आचरण से हिन्दी कम होती जा रही है। भाषा का लिखित आचरण से कम होना चिन्ता की बात है। हमारे लिखित आचरण में हिन्दी कैसे व्यापक स्थान घेरे यह हमने नहीं सोचा, उलटे हम यह सोच रहे हैं कि सरकारी कामकाज में हिन्दी कैसे जगह बनाए। यानी हम हिन्दी को दफ्तरी भाषा के रूप में देखना चाहते हैं! मीडिया भाषा के रूप में देखना चाहते हैं।

हिन्दी सरकारी भाषा या दफ्तरी भाषा नहीं है। हिन्दी हमारी जीवनभाषा है, वैसे ही जैसे बंगला हमारी जीवनभाषा है। हम जिस संकट से गुजर रहे हैं,बंगाली भी उसी संकट से गुजर रहे हैं। अंग्रेजी वाले भी संभवतः उसी संकट से गुजर रहे हैं। आज सभी भाषाएं संकटग्रस्त हैं। हमने विलक्षण खाँचे बनाए हुए हैं। हम हिन्दी का दर्द तो महसूस करते हैं लेकिन बंगला का दर्द महसूस नहीं करते। भाषा और जीवन में अलगाव बढ़ा है । इसने समूचे समाज और व्यक्ति के जीवन में व्याप्त तनावों और टकरावों को और भी सघन बना दिया है।

इन दिनों हम सब अपनी-अपनी भाषा के दुखों में फंसे हुए हैं। यह सड़े हुए आदमी का दुख है। नकली दुख है। यह भाषाप्रेम नहीं,भाषायी ढ़ोंग है। यह भाषायी पिछड़ापन है। इसके कारण हम समग्रता में भाषा के सामने उपस्थित संकट को देख ही नहीं पा रहे। हमारे लिए आज महत्वपूर्ण यह नहीं है कि भाषा और समाज का अलगाव कैसे दूर करें, हमारे लिए जरूरी हो गया है कि सरकारी भाषा की सूची में अपनी भाषा को कैसे बिठाएं। सरकारी भाषा का पद जीवन की भाषा के पद से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है और यही वह बुनियादी घटिया समझ है जिसने हमें अंधभाषा प्रेमी बना दिया है। हिन्दीवाला बना दिया है। यह भावबोध सबसे घटिया भावबोध है। यह भावबोध भाषा विशेष के श्रेष्ठत्व पर टिका है। हम जब हिन्दी को या किसी भी भाषा को सरकारी भाषा बनाने की बात करते हैं तो भाषाय़ी असमानता की हिमायत कर रहे होते हैं। हमारे लिए सभी भाषाएं और बोलियां समान हैं और सबके हक समान हैं। लेकिन हो उलटा रहा है। तेरी भाषा-मेरी भाषा के क्रम में हमने भाषायी विद्वेष को पाला-पोसा है। प्रतिस्पर्धा पैदा की है। बेहतर यही होगा कि हम भाषायी विद्वेष से बाहर निकलें। जीवन में भाषाप्रेम पैदा करें। सभी भाषाओं और बोलियों को समान दर्जा दें। किसी भी भाषा की निंदा न करें, किसी भी भाषा के प्रति विद्वेष पैदा न करें। दुख की बात है हमने भाषा विद्वेष को अपनी संपदा बना लिया है, हम सारी जिन्दगी अंग्रेजी भाषा से विद्वेष करते हैं और अंग्रेजी का ही जीवन में आचरण करते हैं। हमने कभी सोचा नहीं कि विद्वेष के कारण भाषा समाज में आगे नहीं बढ़ी है। प्रतिस्पर्धा के आधार पर कोई भी भाषा अपना विकास नहीं कर सकती। भाषा का विकास शिक्षा से होता है। शिक्षा में हिंदी पिछड़ गयी है। फलत: समाज में भी पिछड़ गयी है।

मेरे लिए हिन्दी जीवन की भाषा है। इसके बिना मैं जी नहीं सकता। मैं सब भाषाओं और बोलियों से वैसे ही प्यार करता हूँ जिस तरह हिन्दी से प्यार करता हूँ। हिन्दी मेरे लिए रोजी-रोटी की और विचारों की भाषा है।भाषा का संबंध आपके आचरण और लेखन से है। राजनीति से नहीं। भाषा में विचारधारा नहीं होती। भाषा किसी एक समुदाय,एक वर्ग, एक राष्ट्र की नहीं होती वह तो पूरे समाज की सृष्टि होती है। यहां मुझे रघुवीर सहाय की कविता “भाषा का युद्ध” याद आ रही है। उन्होंने लिखा-

“जब हम भाषा के लिये लड़ने के वक़्त
यह देख लें कि हम उससे कितनी दूर जा पड़े हैं
जिनके लिये हम लड़ते हैं
उनको हमको भाषा की लड़ाई पास नहीं लाई
क्या कोई इसलिये कि वह झूठी लड़ाई थी
नहीं बल्कि इसलिए कि हम उनके शत्रु थे
क्योंकि हम मालिक की भाषा भी
उतनी ही अच्छी तरह बोल लेते हैं
जितनी मालिक बोल लेता है

वही लड़ेगा अब भाषा का युद्ध
जो सिर्फ़ अपनी भाषा बोलेगा
मालिक की भाषा का एक शब्द भी नहीं
चाहे वह शास्त्रार्थ न करे जीतेगा
बल्कि शास्त्रार्थ वह नहीं करेगा
वह क्या करेगा अपने गूंगे गुस्से को वह
कैसे कहेगा ? तुमको शक है
गुस्सा करना ही
गुस्से की एक अभिव्यक्ति जानते हो तुम
वह और खोज रहा है तुम जानते नहीं ।”

जेएनयू में मेरा पहला मुकाबला नामवर जी से हुआ और यह बेहद मजेदार,शिक्षित करने वाला था। जेएनयू में 1979 में संस्कृत पाठशाला की अकादमिक पृष्ठभूमि से आने वाला मैं पहला छात्र था। मेरे शास्त्री यानी स्नातक में मात्र 50 फीसदी अंक थे। संभवतः इतने कम अंक पर किसी का वहां दाखिला नहीं हुआ था, मैंने प्रवेश परीक्षा और इंटरव्यू बहुत अच्छा दिया और मुझे दाखिला मिल गया।

कक्षाएं शुरू होने के 10 दिन बाद पहला टेस्ट घोषित हो गया, उसके लिए गुरूवर नामवरजी ने दो विषय दिए, पहला,जॉन क्रौरैंसम का न्यू क्रिटिसिज्म, दूसरा संस्कृत काव्यशास्त्र में रूपवाद। संभवतः पहलीबार मेरे लिए नामवरजी ने संस्कृत काव्यशास्त्र पढाया। खैर, मैंने परीक्षा दी और अपने लिए न्यू क्रिटिसिज्म को चुना। उत्तर सही दिया। लेकिन गुरूदेव का दिल नहीं जीत पाया। उन्होंने मुझे बी-प्लस ग्रेड दिया। मैं खैर खुश था,चलो फेल तो नहीं हुआ। कक्षा में उत्तरपुस्तिका दी गयी, सभी छात्र अपनी पुस्तिका पर नामवरजी के कमेंट्स पढ़ रहे थे। मेरी उत्तर पुस्तिका पर लालपैन से सही का निशान था और नामवरजी का कोई कमेंट नहीं था, सिर्फ बी प्लस ग्रेड लिखा था।

बातचीत में नामवरजी प्रत्येक छात्र को एक-एक करके बता रहे थे कि उसके लेखन में क्या कमी है, ऐसे नहीं वैसे लिखो, दिलचस्प बात यह थी कि जिस छात्र को ए प्लस दिया था उसकी उत्तर पुस्तिका में काफी कांट-छांट किया था नामवरजी ने। मेरा नम्बर आया तो मैंने व्यंग्य में कहा, सर,आपने इतने ज्यादा अंक दिए हैं! इतने नम्बर तो कभी नहीं मिले! वे तुरंत  बोले मैं आपसे नाराज हूँ, मैंने पूछा क्यों, बोले आपने संस्कृत काव्यशास्त्र में रूपवाद वाले सवाल पर क्यों नहीं लिखा, मैंने संस्कृत  काव्यशास्त्र आपके लिए खासतौर पर तैयार करके पढ़ाया था, मैंने कहा सर, मैं संस्कृत पढ़ते हुए बोर गया था इसलिए न्यू क्रिटिसिज्म पर लिखा। वे बोले-मैं परेशान हूँ कि आप अंग्रेजी नहीं जानते न्यू क्रिटिसिज्म पर कैसे लिख सकते हैं! मैंने झूठ कहा कि सर आपके क्लास नोटस से तैयार करके परीक्षा दी है। वे बोले-‘ नहीं मैंने तोड़ती पत्थर कविता का उदाहरण कक्षा में नहीं बताया, लेकिन आपने लिखा है।’ मैंने पूछा- ‘सर,यह बताइए जो लिखा है वह सही है या गलत लिखा है?’ वे बोले-‘सही लिखा है।’  मैंने फिर पूछा-‘ जो उदाहरण दिया है, वह सही है या गलत?’  बोले- ‘सही है।’ मैंने पूछा कि फिर समस्या कहां पर है? वे बोले-‘न्यू क्रिटिसिज्म किताब पढ़ कैसे सकते हो?’ मैंने बताया-‘उस किताब को पढ़कर सुनाया मित्र असद जैदी और कुलदीप कुमार ने, वह किताब कुलदीप के पास थी, इन दोनों ने टेस्ट के पहली वाली रात को सारी रात जगकर न्यू क्रिटिसिज्म को मुझे सुनाया और मैंने सुबह जाकर परीक्षा दे दी।’ इसके बाद गुरूदेव चुप थे। मैंने कहा, ‘सर,मैंने कहा था अंग्रेजी समस्या नहीं है, समझ में नहीं आएगा तो मित्रों से समझ लेंगे। इस तरह मेरे लिए अंग्रेजी मित्रभाषा आज भी बनी हुई है।’

मैंने अपने छात्र जीवन में अंग्रेजी न जानते हुए इराकी, ईरानी, फ्रेंच, फिलिस्तीनी, अफ्रीकी,मणिपुरी, नागा आदि जातियों के छात्रों के साथ गहरी मित्रता की और उनका दिल जीता। मेरा जेएनयू में पहला रूम-मेट एक दक्षिण अफ्रीकी छात्र था,मैं और वो एक ही साथ सोशल साइंस  बिल्डिंग ( आज की पुराने सोशल साइंस इमारत) में जो कि 1979 में बनकर तैयार हुई थी,उसमें एक साथ रहे। उसके बाद दूसरे सेमेस्टर में सतलज होस्टल में  मेरा रूममेट एक नागा लड़का था। यानी एमए का पहला वर्ष इन दोनों के साथ गुजरा। दोनों हिन्दी नहीं जानते थे, अंग्रेजी भी बहुत कम जानते थे। अफ्रीकी छात्र कालांतर में नेल्सन मंडेला के मंत्रीमंडल में मंत्री बना, नागा लडका बड़ा नागा नेता बना। इनके अलावा जो फिलिस्तीनी लड़का सबसे अच्छा मित्र था वह लंबे समय तक फिलीस्तीनी नेता यासिर अराफात का निजी सचिव था। वह झेलम में रहता था। इन सबके साथ रहते हुए भाषा कभी समस्या के रूप में महसूस नहीं हुई।

मैं जब जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष पद के लिए 1984 में चुनाव लड़  रहा था, तो उस समय कुछ तेलुगूभाषी छात्रों ने कहा कि वे मुझे वोट नहीं देंगे। हमारे पूर्वांचल में रहने वाले मित्रों ने संदेश दिया कि 20-25 तेलुगूभाषी छात्र हैं जो मेरे हिन्दी में बोलने के कारण नाराज हैं और वोट नहीं देंगे। मैंने कहा कि मेरी उनसे मीटिंग तय करो, मैं बैठकर सुनता हूँ, फिर देखते हैं,उनका मन बदलता है या नहीं। मेरी उन सभी तेलुगूभाषी छात्रो के साथ मीटिंग तय हुई, एक कमरे में हम बैठे, मेरी मदद के लिए तेलुगूभाषी कॉमरे़ड थे जिससे भाषा संकट न हो लेकिन तेलुगूभाषी छात्रों ने कहा कि वे मुझसे अलग से और बिना किसी भाषायी मददगार के बात करेंगे,उन्होंने सभी तेलुगू भाषी कॉमरेडों को  कमरे के बाहर ही रोक दिया। अंदर कमरे में तेलुगूभाषी थे और मैं अकेला। मेरी मुश्किल यह थी कि मैं हिन्दी के अलावा कोई भाषा नहीं जानता था, वे लोग हिन्दी एकदम नहीं जानते थे। बातचीत शुरू हुई। मैंने टूटी फूटी अंग्रेजी में शुरूआत की, गलत-सलत भाषा बोल रहा था,वे लगातार सवाल पर सवाल दागे जा रहे थे और मैं धारावाहिक ढ़ंग से हर सवाल का अंग्रेजी में जवाब दे रहा था, मेरी अंग्रेजी बेइंतिहा खराब, एकदम अशुद्ध लेकिन संवाद अंग्रेजी में जारी था। तकरीबन एक घंटा मैंने उनसे अंग्रेजी में अपनी बात कही और उनसे अनुरोध किया कि आप लोग एसएफआई को पैनल वोट दें, मुझे वोट जरूर दें। कमरे के बाहर तमाम कॉमरेड खड़े थे और परेशान थे कि मैं अंग्रेजी नहीं जानता फलतःराजनीतिक क्षति करके ही लौटूँगा। मैं बातचीत खत्म करके बाहर हँसते हुए आया तेलुगूभाषी छात्र भी हँसते हुए बाहर निकले, बाहर खड़े तेलुगूभाषी कॉमरेडों ने उन छात्रोंसे पूछा अब बताओ किसेे वोट दोगे, वे बोले रात को मेरा भाषण सुनने के बाद बताएंगे, उनलोगों से  दूसरे दिन सुबह पूछा गया कि अब बताओ जगदीश्वर को वोट दोगे या नहीं, सभी तेलुगूभाषी लड़कों ने कहा हम उसे जरूर वोट देंगे। तेलुगूभाषी कॉमरेड ने कहा आश्चर्य है मैंने समझाया तो वोट देने को राजी नहीं हुए और जगदीश्वर से बात करने के बाद उसे वोट देने को राजी कैसे हो गए ,इस पर एक छात्र ने कहा कि उसकी सम्प्रेषण शैली और दिल जीतने की कला ने हम सबको प्रभावित किया ।उससे बात करने के बाद पता चला कि भाषा भेद की नहीं जोड़ने की कला है।

 जब बाजार में कम्प्यूटर आया तो मैंने सबसे पहले उसे खरीदा,संभवतःबहुत कम हिन्दी शिक्षक और हिन्दी अधिकारी थे जो उस समय कम्प्यूटर इस्तेमाल करते थे। मैंने कम्प्यूटर की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली। मैं कम्प्यूटर के तंत्र को नहीं जानता,लेकिन मैंने अभ्यास करके कम्प्यूटर पर लिखना सीखा, अपनी लिखने की आदत बदली, कम्प्यूटर पर पढ़ने का अभ्यास डाला। कम्प्यूटर आने के बाद से मैंने कभी हाथ से नहीं लिखा,अधिकांश समय किताबें भी डिजिटल में ही पढ़ता हूँ। जब आरंभ में लिखना शुरू किया तो उस समय यूनीकोड फॉण्ट नहीं था,कृति फॉण्ट था,उसमें ही लिखता था। बाद में जब पहलीबार ब्लॉग बनाया तो पता चला कि इंटरनेट पर यूनीकोड फॉण्ट में ही लिख सकते हैं और फिर मंगल फॉण्ट लिया, फिर लिखने की आदत बदली,और आज मंगल ही मंगल है। कहने का आशय यह कि हिन्दी या किसी भी भाषा को विकसित होना है तो उसे लेखन के विकसित तंत्र का इस्तेमाल करना चाहिए। भाषा लेखन से बदलती है,समृद्ध होती है।भाषा बोलने मात्र से समृद्ध नहीं होती।

मैं अंग्रेजी से प्यार करता हूँ लेकिन मैंने कभी अंग्रेजी की शिक्षा नहीं ली, प्रिंट अंग्रेजी किसी तरह डिक्शनरी की मदद से थोड़ा बहुत समझ लेता हूँ,लेकिन मैंने अंग्रेजी कभी नहीं पढ़ी। अंग्रेजी दां लोगों में रहा हूँ। मेरे अनेक मित्र बेहतरीन अंग्रेजी जानते हैं। मैंने अंग्रेजी पढ़ने का अभ्यास जेएनयू में अंग्रेजी के राजनीतिक पर्चे पढ़कर विकसित किया। जेएनयू से लेकर आज तक  मेरा अंग्रेजी का सारा काम मित्रों और छात्रों ने किया। लेकिन मुझे अंग्रेजी न जानने के कारण कभी  कुंठा का सामना नहीं करना पड़ा।

मैंने जेएनयू में पढ़ते समय हिन्दी की भरपूर सेवा की, यह काम मैंने भाषा के नाम पर संगठन बनाकर नहीं किया। मैंने कभी हिन्दी के लिए जिद नहीं की,मैंने कभी अंग्रेजी या अन्य भाषा के प्रति कभी कोई बयान नहीं दिया। मैंने मार्क्सवाद पढ़ते हुए यही सीखा कि सब भाषा और बोलियां हमारी हैं। वे देशी हों या विदेशी हों। मेरा मानना है हिन्दी भाषा या अन्य भाषाओं में भाषा के नाम पर बने संगठन भाषा का उपकार कम और अपकार ज्यादा करते हैं।भाषाय़ी संगठनों को हमलोग न बनाएं और उनमें न जाएं तो बेहतर होगा। भाषा के नाम पर बने संगठन भाषा के कत्लघर हैं।

हमारे एक मित्र हैं ,प्रोफेसर हैं,जब भी कोई उनसे पूछता है भाईसाहब आपकी विचारधारा क्या है तुरंत कहते हैं, हम तो मार्क्सवादी हैं! लेकिन ज्यों ही भाषा की समस्या पर सवाल दाग दो तो उनका मार्क्सवाद मुरझा जाता है! वे उस समय आरएसएस वालों की तरह हिन्दीवादी हो जाते हैं। मार्क्सवाद और संघी विचारधारा के इस खेल ने ही हिन्दी को कमजोर बनाया है। हिन्दी को कमजोर संवैधानिक भाषादृष्टि ने भी बनाया है। हम संविधान में अपनी भाषा के अलावा और किसी भाषा को देखना नहीं चाहते। हम भूल जाते हैं कि हिन्दी संविधान या राष्ट्रवाद या राष्ट्र की नहीं जनता की भाषा है। वह भाषायी मित्रता और समानता में जी रही है,संविधान में नहीं।

पीएम मोदी फैसला लें कि मंत्रीमंडल के फैसले हिन्दी लिखे जाएंगे और उनके सचिव आदि जो भी नोट तैयार करेंगे वह हिन्दी में होगा, भारत का बजट मूलत: हिन्दी में तैयार होगा ,बाद में अन्य भाषा में अनुवाद किया जाय। हमारे देश के पीएम,मंत्री,सांसद,विधायक आदि के मोबाइल सिस्टम की भाषा अंग्रेजी है,इसकी जगह ये लोग मातृभाषा या हिन्दी का प्रयोग क्यों नहीं करते? जबकि चीन, फ्रांस, जापान,रुस आदि के नेता अपनी भाषा का प्रयोग करते हैं।

हिन्दी के अधिकांश मास्टर और हिन्दी अधिकारी हिन्दी में एसएमएस तक नहीं करते, मोबाइल में आधार भाषा के रूप में हिन्दी का प्रयोग तक नहीं करते। ये इतने जड़ क्यों हैं? मोबाइल का भाषा सिस्टम बदलो,हिन्दी को ताकतवर बनाओ।

हिन्दीवाले दिवस के दीवाने क्यों हैं? दीवाने न बनो यूनीकोड फॉण्ट के जरिए हिन्दी माध्यम से पढ़ो- लिखो। फिर रघुवीर सहाय याद आ रहे हैं, उनकी कविता “हमारी हिंदी” पढें-

“हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीबी है
बहुत बोलने वाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली

गहने गढ़ाते जाओ
सर पर चढ़ाते जाओ

वह मुटाती जाए
पसीने से गन्धाती जाए घर का माल मैके पहुँचाती जाए

पड़ोसिनों से जले
कचरा फेंकने को लेकर लड़े

घर से तो ख़ैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता
औरतों को जो चाहिए घर ही में है

एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी
एक नागिन की स्टोरी बमय गाने
और एक खारी बावली में छपा कोकशास्त्र
एक खूसट महरिन है परपंच के लिए
एक अधेड़ खसम है जिसके प्राण अकच्छ किये जा सकें
एक गुचकुलिया-सा आँगन कई कमरे कुठरिया एक के अंदर एक
बिस्तरों पर चीकट तकिए कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े
फ़र्श पर ढंनगते गिलास
खूंटियों पर कुचैली चादरें जो कुएँ पर ले जाकर फींची जाएँगी

घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए
सीलन भी और अंदर की कोठरी में पाँच सेर सोना भी
और संतान भी जिसका जिगर बढ गया है
जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है
और ज़मीन भी जिस पर हिंदी भवन बनेगा

कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिंदी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे ।”

हिन्दी के 12 कटु सत्य हैं –

1.हिन्दीभाषी अभिजन की हिन्दी से दूरी बढ़ी है ।

2.राजभाषा हिन्दी के नाम पर केन्द्र सरकार करोड़ों रूपये खर्च करती है लेकिन उसका भाषायी,सांस्कृतिक,अकादमिक और प्रशासनिक रिटर्न बहुत कम है।

3.इस दिन केन्द्र सरकार के ऑफिसों में मेले-ठेले होते हैं और उनमें यह देखा जाता है कि कर्मचारियों ने साल में कितनी हिन्दी लिखी या उसका व्यवहार किया। हिन्दी अधिकारियों में अधिकतर की इसके विकास में कोई गति नजर नहीं आती।संबंधित ऑफिस के अधिकारी भी हिन्दी के प्रति सरकारी भाव से पेश आते हैं। गोया ,हिन्दी कोई विदेशी भाषा हो।

4.केन्द्र सरकार के ऑफिसों में आधुनिक कम्युनिकेशन सुविधाओं के बावजूद हिन्दी का हिन्दीभाषी राज्यों में भी न्यूनतम इस्तेमाल होता है।

5.हिन्दीभाषी राज्यों में और 10 वीं और 12वीं की परीक्षाओं में अधिकांश हिन्दीभाषी बच्चों के असंतोषजनक अंक आते हैं. हिन्दी भाषा अभी तक उनकी प्राथमिकताओं में सबसे नीचे है।

6.ज्यादातर मोबाइल में हिन्दी का यूनीकोड़ फॉण्ट तक नहीं है।ज्यादातर शिक्षित हिन्दी भाषी यूनीकोड फॉण्ट मंगल का नाम तक नहीं जानते।ऐसी स्थिति में हिन्दी का विकास कैसे होगा ?

7.राजभाषा संसदीय समिति और उसके देश-विदेश में हिन्दी की निगरानी के लिए किए गए दौरे भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े अपव्ययों में से एक है.

8.विगत 70सालों में हिन्दी में पठन-पाठन,अनुसंधान और मीडिया में हिन्दी का स्तर गिरा है।

9.राजभाषा संसदीय समिति की सालाना रिपोर्ट अपठनीय और बोगस होती हैं।

10.भारत सरकार के किसी भी मंत्रालय में मूल बयान कभी हिन्दी में तैयार नहीं होता। सरकारी दफ्तरों में हिन्दी मूलतः अनुवाद की भाषा मात्र बनकर रह गयी है

11.हिन्दी दिवस के बहाने भाषायी प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिला है इससे भाषायी समुदायों में तनाव पैदा हुआ है। हिन्दीभाषीक्षेत्र की अन्य बोलियों और भाषाओं की उपेक्षा हुई है।

12.सारी दुनिया में आधुनिकभाषाओं के विकास में भाषायी पूंजीपतिवर्ग या अभिजनवर्ग की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हिन्दी की मुश्किल यह है कि हिन्दीभाषी पूंजीपतिवर्ग का अपनी भाषा से प्रेम ही नहीं है।जबकि यह स्थिति बंगला,मराठी, तमिल, मलयालम,तेलुगू आदि में नहीं है।वहां का पूंजीपति अपनी भाषा के साथ जोड़कर देखता है।हिन्दी में हिन्दीभाषी पूंजीपति का परायी संस्कृति और भाषा से याराना है।

अंत में –

हिन्दी- रघुवीर सहाय

हम लड़ रहे थे
समाज को बदलने के लिए एक भाषा का युद्ध
पर हिन्दी का प्रश्न अब हिन्दी
का प्रश्न नहीं रह गया
हम हार चुके हैं
अच्छे सैनिक
अपनी हार पहचान
अब वह सवाल जिसे भाषा की लड़ाई हम कहते थे
इस तरह पूछः
हम सब जिनकी ख़ातिर लड़ते थे
क्या हम वही थे ?
या उनके विरोधियों के हम दलाल थे
– सहृदय उपकारी शिक्षित दलाल ?
आज़ादी के मालिक जो हैं ग़ुलाम हैं
उनके गुलाम हैं जो वे आज़ाद नहीं
हिन्दी है मालिक की
तब आजादी के लिए लड़ने की भाषा फिर क्या होगी ?
हिन्दी की माँग
अब दलालों की अपने दास-मालिकों से
एक माँग है
बेहतर बर्ताव की
अधिकार की नहीं
वे हिन्दी का प्रयोग अंग्रेजी की जगह
करते हैं
जबकि तथ्य यह है कि अंग्रेजी का प्रयोग
उनके मालिक हिन्दी की जगह करते हैं
दोनों में यह रिश्ता तय हो गया है
जो इस पाखण्ड को मिटाएगा
हिन्दी की दासता मिटाएगा
वह जन वही होगा जो हिन्दी बोलकर
रख देगा हिरदै निरक्षर का खोलकर।



 

 

प्रो.जगदीश्वर चतुर्वेदी राजनीतिक-सामाजिक और मीडिया विश्लेषक हैं। जेएनयू छात्रसंघ और हिंदी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय के अध्यक्ष भी रह चुके हैं।



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