राहुल-राजन संवाद: राजनीति के कीच से इतर बड़ी रेखा खींचने की कोशिश

बेहतर होता कि कोरोना महामारी और लॉकडाउन के दौरान आरबीआई के पूर्व गवर्नर और आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ रघुराम राजन जैसी हस्तियों से बातचीत मीडिया के बुनियादी कर्तव्यों में शामिल होता। प्रधानमंत्री समेत केंद्रीय कैबिनेट उनके तमाम सुझावों पर कान देती, रास्ता खोजती। लेकिन अफ़सोस इस महासंकट के समय उनकी दिलचस्पियों के दीगर विषय हैं। मीडिया के सहयोग से देश के मानस को सांप्रदायिक रूप से विभाजित करने का राष्ट्रीय कार्यक्रम चल रहा है। बहरहाल, इस कठिन काल में विपक्ष के नेता बतौर राहुल गाँधी ने लगता है बड़ी रेखा खींचने का फ़ैसला किया है। उन्होंने वीडियो कान्फ्रेंसिंग के ज़रिये विशेषज्ञों से बातचीत का सिलसिला शुरू किया है। पहली बातचीत रघुराम राजन के साथ हुई जिससे निकले सुझावों पर राजनीति से ऊपर उठकर सोचने की ज़रूरत है। राहुल गाँधी का यह कहना ‘देश और हम सब गरीबों और प्रवासी मजदूरों के साथ एक किस्म का व्यवहार कर रहे हैं वहीँ दूसरी ओर सम्पन्न लोगों के प्रति हमारा बिल्कुल अलग रवैया है’ बताता है कि वे बुनियादी सवाल उठाने से हिचक नहीं रहे हैं। यह बातचीत ज़्यादातर अंग्रेज़ी में हुई, इसलिए मीडिया विजिल आपके लिए इस बातचीत का शब्द-शब्द हिंदी में लेकर आया है। पढ़िये–

राहुल गाँधी: लोगों के जहन में, न सिर्फ वायरस अपितु अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध मे अनेकों प्रश्न हैं कि आखिर हो क्या रहा है और भविष्य में क्या होने वाला है।  आपसे बात करके मुझे और काफी लोगों को इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने में मदद मिलेगी और मैं इस सारी स्थिति पर आपके नजरिये को समझने को भी उत्सुक हूँ।     

रघुराम राजन: मुझे आमंत्रित करने और इस विषय पर संवाद आरम्भ करने के लिए बेहद शुक्रिया आज के दौर में इन विषयों पर ज्यादा से ज्यादा जानकारी जुटाना और जितना संभव हो अधिकतम लोगों तक पहुंचाना अत्यंत महत्वपूर्ण है  

राहुल गाँधी:  एक बड़ा प्रश्न, जिस पर मैं लगातार सोच रहा हूँ, वह यह है कि अर्थव्यवस्था को अब किस प्रकार खोला जाए? आपके विचार से अर्थव्यवस्था के ऐसे कौन से क्षेत्र हैं जिन्हें खोलना अत्यंत आवश्यक है और उन्हें खोलने का क्रम क्या होना चाहिए?    

रघुराम राजन: यह बहुत अहम सवाल है एक ओर हम जहाँ लोगों को संक्रमित होने से बचाने और  अस्पतालों और चिकित्सा-सुविधाओं पर बहुत अधिक दबाव न बढ़ने का प्रयास कर रहे हैं वहीँ हमें यह प्रयास प्रारंभ करना भी बेहद ज़रूरी है कि लोगों की आजीविका कैसे शुरू हो लॉकडाउन को अनिश्चित काल तक जारी रखना बड़ा आसान है परन्तु अर्थव्यवस्था पर इसके दीर्घकालिक परिणाम अत्यंत नुकसानदेह हो सकते हैं। 

इसे चरणबद्ध तरीके से खोलने की आवश्यकता है सबसे पहले ऐसे क्षेत्र खोले जाने चाहियें  जहाँ ‘डिस्टेंसिंग’ सुनिश्चित की जा सके – सिर्फ कार्यस्थल पर नहीं अपितु घर से काम के रास्ते पर भी क्या कार्यस्थल पर पहुँचने वाले लोगों के पास साइकल, स्कूटर या कार जैसे निजी वाहन हैं अथवा उन्हें सार्वजनिक परिवहन पर निर्भर रहना होगा?  अगर वे सार्वजनिक परिवहन पर निर्भर हैं तो ‘डिस्टेंसिंग’ कैसे सुनिश्चित होगी? इस दिशा में बहुत काम करने की आवश्यकता है दोनों ही स्तर पर: इस तरह का ढांचा तैयार करना और कार्यस्थल पर सुरक्षा सुनिश्चित करना 

यह भी सुनिश्चित किया जाना बेहद ज़रूरी है कि  वायरस के संक्रमण के केस बढ़ने की स्थिति में पीड़ित व्यक्तियों को, बगैर दूसरा-तीसरा लॉकडाउन किये शीघ्रतिशीघ्र ‘आइसोलेट’ कैसे किया जाएगा अगर हम बिना किसी ऐसी तैयारी के आगे बढे तो इसके अत्यंत विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं 

राहुल गाँधी:  बहुत लोगों का मानना है कि अगर लॉक-डाउन को खोल कर फिर लॉक डाउन की ओर जाना पड़ा, उसके बाद फिर इसे खोलकर एक बार फिर लॉक डाउन करना पड़ा तो आर्थिक गतिविधियाँ एकदम से चरमरा जायेंगी क्योंकि लोगों का विश्वास ही समाप्त हो जाएगा।  क्या आप इससे सहमत हैं? 

रघुराम राजन: मैं बिल्कुल इस से सहमत हूँ कि अगर लॉक डाउन को हटाकर एक बार फिर से सब कुछ बंद करना पड़ता है तो यह सन्देश भी जाता है कि आप असल कामों को कर पाने में असफल सिद्ध हुए हैं इसके बाद फिर लॉकडाउन, एक बार फिर इसे खोलने की प्रक्रिया ऐसे क़दमों से निश्चित रूप से विश्वसनीयता भी घटती चली जायेगीमुझे नहीं लगता कि अर्थव्यवस्था को खोलने की प्रक्रिया शत-प्रतिशत सफलता के लक्ष्य को प्राप्त कर और संक्रमण को शुन्य पर लाने के बाद आरम्भ की जानी  चाहिए, यह फिलहाल पहुँच के बाहर की बात है हमें अर्थव्यवस्था को खोलने की प्रक्रिया को प्रबंधित करना होगा अगर संक्रमण के नये केस आयें तो उन्हें तुरंत ‘आइसोलेट’ किया जाए
राहुल गाँधी:  लेकिन इस पूरी प्रबंधन प्रक्रिया के तहत सबसे पहले यह पता लगाना अत्यावश्यक है कि किन क्षेत्रों में संक्रमण बहुत ज्यादा फैला है। और इससे निपटने के लिए टेस्टिंग ही एकमात्र उपाय है।  भारत के बारे में ऐसा ख्याल है कि हमारी टेस्टिंग क्षमता बेहद सीमित है। अमेरिका और यूरोपीय देशों के मुकाबले तो यह बहुत ही कम है। इतनी कम संख्या में टेस्ट होने की स्थिति को आप किस रूप में देखते हैं?

रघुराम राजन: अमरीका में प्रतिदिन लगभग एक लाख पचास हज़ार टेस्ट किये जा रहे हैं वहां के चिकित्सा-विज्ञानियों और महामारी-विशेषज्ञों का मानना है कि टेस्ट की संख्या को कम से कम तीन गुणा बढाकर इसे पांच लाख तक बढ़ाये जाने की आवश्यकता हैकुछ का तो यह भी मानना है कि यह संख्या दस लाख तक होनी चाहिए  

अगर इसे भारत की आबादी के संदर्भ में देखें तो इस मुताबिक हमें प्रतिदिन करीब बीस लाख टेस्ट करने की आवश्यकता है यह तो स्पष्ट है कि हम इस आंकड़े से सैकड़ों कोस दूर हैं हम प्रतिदिन करीब पच्चीस से तीस हज़ार टेस्ट ही कर पा रहे हैं। 

अगर हम लॉकडाउन खोलते हैं तो हमें बेहद समझदारी से काम लेना होगा एक रास्ता है ‘मास-टेस्टिंग ’ का हम बड़े स्तर पर सैम्पल इकठ्ठा करें मान लीजिये हमने एक हज़ार सैम्पल एकत्र किये तो हम अध्ययन करें कि क्या उनमे संक्रमण के संकेत हैं अगर उसमें कुछ सैम्पल संक्रमित मिलते हैं तो और गहराई से अध्ययन करना चाहिए कि और कौन लोग संक्रमित हो सकते हैं इस तरह से हम परीक्षण के ढाँचे पर दबाव कम कर सकते हैं कुछ अर्थों में यह भले ही अत्यंत सघन प्रयोग नहीं हैं परन्तु यह अत्यंत समझदारी पूर्ण कदम होगा हम सिर्फ प्रतीक्षा नहीं करते रह सकते 

राहुल गाँधी:  अभी तो हम वायरस के प्रभाव की बात कर रहें हैं लेकिन कुछ ही समय में हम अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभाव देखेंगे जो कि निश्चित रूप से अत्यंत गंभीर होने वाले हैं, जो आने-वाले तीन-चार महीनों में परिलक्षित होंगे।  आपके अनुसार आज वायरस से लड़ाई और फिर अर्थव्यवस्था पर इसका जो असर पड़ने वाला है, इन दोनों स्थितियों में कैसे संतुलन बनाया जाए? 

रघुराम राजन:  मुझे लगता है कि हमें अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होंगी। हमारी क्षमता और संसाधन दोनों ही सीमित हैं। पश्चिम के मुकाबले हमारे वित्तीय संसाधन तो अत्यंत सीमित हैं। हमें एक साथ दो मोर्चों पर काम करना है: वायरस से लड़ना भी है और अर्थव्यवस्था को भी सँभालना है । अगर तुरन्त लॉकडाउन पूरी तरह हटा दिया गया तो यह वैसे ही होगा जैसे बीमारी की हालत में बिस्तर से उठ कर चल देना। 

सबसे पहली प्रथमिकता है लोगों को स्वस्थ और जिंदा रखना । इसके लिए भोजन की व्यवस्था बहुत अहम है। ऐसी भी जगहें हैं जहां पीडीएस पहुंचा ही नहीं है। अमर्त्य सेन, अभिजीत बनर्जी और मैंने इस विषय पर बात करते हुए अस्थाई राशन कार्ड जारी करने की बात की थी इस महामारी को एक असाधारण स्थिति के तौर पर देखना होगा।

हर चीज और जरूरत के लिए लीक से हटकर सोचने की आवश्यकता है। सभी बजटीय सीमाओं को ध्यान में रखते हुए फैसले करने होंगे। अनेकों संसाधन हमारे पास नहीं हैं।

राहुल गाँधी:  कृषि-क्षेत्र और मजदूर-वर्ग के लिए, खासकर प्रवासी मजदूरों और उनके वित्तपोषण के  बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?   

रघुराम राजन: इस समय डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर ही विकल्प है ।  गरीबों तक पैसा पहुंचाने वाली हर व्यवस्था की मदद लेनी होगी। विधवा पेंशन और मनरेगा जैसे कई विकल्प मौजूद  हैं। ऐसे लोग जिनके पास, रोजगार और आजीविका चलाने के साधन नहीं है, संकट के अगले तीन-चार महीने तक, की मदद करनी होगी।

प्राथमिकताओं को बात करें तो लोगों को जीवित रखना और उन्हें विरोध के लिए या फिर काम की तलाश में लॉकडाउन के बीच सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर न करना बेहद ज़रूरी हैहमें ऐसे रास्ते तलाशने होंगे जिससे हम ज्यादा से ज्यादा लोगों को पैसा और पीडीएस के जरिए भोजन मुहैया करा पाएं।

राहुल गाँधी:  तो कितना पैसा लगेगा गरीबों की मदद के लिए?

रघुराम राजन: तकरीबन पैसठ हज़ार करोड़ और यह राशि बहुत ज्यादा नहीं है हमारी जीडीपी दो सौ लाख करोड़ रूपये है और उसमें से पैसठ हज़ार करोड़ इतना ज्यादा नहीं है हम कर सकते हैं और अगर यह राशि गरीबों के लिए है और उनकी ज़िन्दगी बचाने के लिए है तो करना चाहिए 

राहुल गाँधी:  अभी तो देश संकट में है।  मगर कोविड के बाद हिन्दुस्तान को इस घटना से कोई फायदा भी होगा? कोई स्ट्रेटेजिक फायदा होगा? दुनिया में क्या ऐसे कुछ बदलाव होंगे जिससे हिंदुस्तान को कुछ लाभ मिल सके? दुनिया किस प्रकार बदलेगी आपके मुताबिक?

सामान्यतौर पर ऐसी घटनाओं का दुनिया के किसी देश पर विरले ही सकारात्मक प्रभाव पड़ता है पर ऐसे रास्ते हैं कि कुछ देश इसका कुछ लाभ उठा सकें जहाँ तक मेरा विचार हैं जब भी हम इस स्थिति से बाहर आयेंगे तो वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़े समस्त पहलुओं पर पुनर्विचार करना होगा। 

अगर भारत के लिए अवसरों की बात करें तो भारत एक नये तरह के संवाद को स्थापित करने करने की  दिशा में नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकता है भारत एक विशाल देश है और इसकी आवाज़ वैश्विक अर्थव्यवस्था में अनसुनी नहीं की जा सकती। 

इस स्थिति में भारत अपने उद्योगों और आपूर्ति-चेन के लिए अवसर तलाश कर सकता है और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भारत इस संवाद को कई देशों को जोड़कर वैश्विक व्यवस्था को एकल-ध्रुवीय अथवा द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था की बजाय बहु-ध्रुवीय व्यवस्था की ओर मोड़ सकता है  

राहुल गाँधी:  क्या आपको नहीं लगता कि केन्द्रीयकरण भी एक संकट है? बड़े स्तर पर सत्ता का केन्द्रीयकरण हो रहा है, संवाद समाप्त हो रहे हैं, जबकि संवाद के माध्यम से, जिन समस्याओं की आप बात कर रहे हैं, को हल करने की दिशा में मदद ही मिलेगी।  

रघुराम राजन: मेरा विश्वास है कि विकेन्द्रीयकरण से दो मुख्य लाभ होते हैं: स्थानीय स्तर पर सूचना का प्रसार  और सामान्यजन का सशक्तिकरण अब जहाँ नज़र दौडाओ, ऐसा आभास होता कि आमजन शक्तिहीन है, फैसले मेरे द्वारा यानि किसी आमजन के द्वारा नहीं अपितु कहीं दूर बैठे लोगों द्वारा लिए जा रहे  हैं। 

मैं मतदान करता हूँ मगर मेरे वोट से कहीं दूर बैठा कोई व्यक्ति निर्वाचित होता है मेरी ग्राम पंचायत और राज्य सरकार के पास काफी कम अधिकार हैं उन्हें नहीं लगता है  कि वे कुछ बदलाव ला सकते हैं ऐसे में वे अन्य किस्म की ताकतों के शिकार हो जाते हैं। 

यही सवाल मैं भी आपसे पूछना चाहूंगा आपको, पंचायती राज व्यवस्था, जिसे आपके पिता राजीव गाँधी वापस लेकर आये थे, के क्या प्रभाव रहे और इसका क्या फायदा हुआ? 

राहुल गाँधी:  इस व्यवस्था के अत्यंत प्रभावशाली परिणाम रहे हैं।  मगर मुझे अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि जितना यह व्यवस्था आगे बढ़ी थी अब उतना ही पीछे की ओर जा रही है।  हम एक बार फिर अफसरशाही और कलेक्टरशाही वाली व्यवस्था की ओर जा रहे हैं।  अगर आप दक्षिण भारत के राज्यों को देखें तो आप पायेंगे कि वहां बेहतर काम हो रहा है क्योंकि वे राज्य कहीं अधिक विकेंद्रीयकृत हैं जबकि उत्तरी राज्यों में सत्ता का केन्द्रीयकरण किया जा रहा है।  इन राज्यों में पंचायतों और ज़मीनी स्तर की संस्थाओं से सत्ता छीनी जा रही है।  

रघुराम राजन: जितना लोगों को साथ जोड़कर निर्णय लिए जाते हैं वे उन फैसलों पर नजर रखने के लिए उतने ही सक्षम होते हैं। मेरा मानना है कि यह एक ऐसा प्रयोग है जिसे किया जाना चाहिए।

राहुल गाँधी:  आपके अनुसार वैश्विक स्तर पर ऐसा क्यों हो रहा है? वृहत स्तर पर केन्द्रीयकरण करने और संवाद को समाप्त करने के पीछे क्या कारण हैं? इसका कोई एक केन्द्रीय कारण है अथवा अनेक कारणों से ऐसा हो रहा है?

रघुराम राजन: मैं मानता हूं कि इसके पीछे मुख्य कारण है वैश्विक बाजार। ऐसी धारणा बन गई है कि अगर बाजार का वैश्वीकरण होता है तो इसके भागीदार यानी व्यापारिक फर्में  हर जगह एक ही तरह के नियम लागू करवाना चाहती हैं  वे हर जगह एक ही तरह की तालमेल बैठाने वाली व्यवस्था चाहते हैं,  एक ही तरह की सरकार चाहते हैं, क्योंकि इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है।

एकरूपता लाने की कोशिशें स्थानीय अथवा राष्ट्रीय सरकारों से ताकत छीन लेती हैं।  नौकरशाही में भी केन्द्रीयकरण की लालसा होती हैअगर मुझे सत्ता हासिल हो सकती है तो मैं क्यों न हासिल करूं – यह एक अनवरत लालसा है। अगर राज्यों को पैसा दिया जाना है तो उसके लिए कुछ नियम हैं जिनके आधार पर पैसा मिलेगा ऐसा नहीं है कि बिना किसी सवाल के राज्य को सिर्फ इसलिए पैसा मिल जाएगा क्योंकि वह भी एक निर्वाचित सरकार है और आपको इस बात का आभास होना चाहिए कि आपके लिए क्या सही है।

राहुल गाँधी:  आजकल एक नया मॉडल है, सत्तावादी मॉडल। यह उदार मॉडल पर सवाल उठा रहा है इसके काम करने का एक अलग तरीका है। और यह अधिक से अधिक स्थानों पर फ़ैल रहा है। क्या आपको लगता है कि यह मॉडल पीछे धकेल दिया जाएगा?

रघुराम राजन: मुझे नहीं पता। एक ऐसी दुनिया जिसमे आप शक्तिहीन हों तो यह सत्तावादी मॉडल, जो काफी मजबूत भी है, कई दफे अत्यंत आकर्षक भी लगता है खासतौर से तब जब आप इससे व्यक्तिगत तालमेल बैठा सकते हैं अगर आपको लगने लगे कि इस मॉडल के लोगों को मुझ पर विश्वास है ये दूसरे लोगों की भी परवाह करते हैं।

समस्या यह है कि यह अधिकारवादी तंत्र अपने आप में ऐसी धारणा बना लेता है जैसे वह ही जनशक्ति है और जैसा वह कहेगा वैसा ही होगा  उसी के  नियम लागू होंगे, उसकी कोई जांच-पड़ताल नहीं होगी,  न ही कोई और संस्था होगी और न ही कोई विकेंद्रीकृत व्यवस्था। सब कुछ को उससे ही होकर गुज़रना होगा।

ऐतिहासिक रूप से देखें तो जब-जब किसी केंद्र पर ज्यादा वज़न पड़ा वह केंद्र ढह गया। 

राहुल गाँधी:  लेकिन वैश्विक आर्थिक व्यवस्था के साथ कुछ तो गलत हो गया है। यह बेहद स्पष्ट है।  क्या यह एक उचित कथन है?

रघुराम राजन: मुझे लगता है कि यह बिल्कुल सही है कि बहुत से लोगों के लिए यह व्यवस्था काम नहीं कर रही। विकसित देशों में दौलत और आमदनी की बढती असमानता निश्चित रूप से चिंता का विषय है। नौकरियों की अनिश्चितता एवं अन्य कई प्रकार की अनिश्चितताएं भी चिंता का कारण हैं। आज यदि आपके पास कोई नौकरी है भी तो यह निश्चित नहीं है कि कल आमदनी का कोई जरिया होगा भी या नहीं।

हमने इस महामारी के दौर में देखा है कि बहुत से लोगों के पास कोई रोजगार ही नहीं है। उनकी आमदनी और सुरक्षा दोनों ही छिन गयें हैं।

विकास दर धीमी होने की समस्या तो है ही, न्यायोचित वितरण-प्रणाली को भी सुनिश्चित करना होगा। हम बाजार से तो मुक्त नहीं हो सकते पर हमें विकास भी चाहिए। अपर्याप्त वितरण भी एक समस्या हैं। जिस तरह का विकास हुआ, उसका उस फायदा लोगों को नहीं मिला। बहुत लोग इससे वंचित रह गए। तो हमें दोनों बारे पहलुओं के बारे में सोचना होगा।

इसीलिए मुझे लगता है कि हमें उत्पादन के वितरण की बजाय वितरण के अवसरों पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। इसके परिणाम बेहतर होंगे 

राहुल गाँधी:  यह दिलचस्प है जब आपने कहा कि बुनियादी ढांचा लोगों को जोड़ता है और यह नए अवसर पैदा करता है।  लेकिन अगर समाज में विभाजन और  नफरत का माहौल हो जो लोगों को एक दूसरे से दूर करता हो तो वह भी एक किस्म का बुनियादी ढांचा ही है।   और यह ढांचा बड़ी समस्याएं खड़ी करता है।  

रघुराम राजन: निसंदेह सामाजिक समरसता में ही सर्वहित निहित्त है। सभी लोगों को यह यकीन होना आवश्यक है कि वे सब इस व्यवस्था का हिस्सा हैं और उन सब की इसमें बराबर की हिस्सेदारी है हम किसी भी सूरत में एक कलह-क्लेश वाला कुनबा होना वहन नहीं कर सकते खासतौर पर तब जब बड़ी-बड़ी चुनौतियाँ सामने खड़ी हैं मैं तो आज कल अपना कुछ समय, हमारे जिन पुरखों ने इस देश की नींव गढ़ी, जिन लोगों ने संविधान की रचना की, जिन्होंने हमें शासन के शुरूआती पाठ पढाये, को नये सिरे से पढने-सीखने में लगाता हूँ उन लोगों ने उस समय ही यह महसूस कर लिया था कि कुछ मुद्दों को किनारे रख देना है और उन्हें छूना ही नहीं है क्योंकि उन मसलों को छेड़ा जाता तो अधिकतर समय आपस में लड़ने-भिड़ने में ही गुज़र जाता    

राहुल गाँधी:  जब हम भविष्य के विजन के बारे में सोचें तो यकीनन हमें इतिहास की ओर मुड़कर देखने की भी ज़रूरत होती है।  मुझे अच्छा लगा जब आपने कहा कि भारत को एक नई दृष्टि की आवश्यकता है।  आपके विचार से उन दृष्टि में कौन-कौन से तत्व होने चाहियें? आपने बुनियादी ढांचे, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की बात की।  यह पिछले 20-30 सालों के सफ़र से किस रूप में भिन्न होगा? कौन से नए स्तम्भ हमें खड़े करने होंगे?

रघुराम राजन: मेरे विचार से हमें सबसे पहले अपनी  क्षमताएं विकसित करनी होंगी। इसके लिए बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं और इंफ्रास्ट्रक्चर बेहद जरूरी हैं। और यह याद रखना भी ज़रूरी है कि कि जब हम इन क्षमताओं को विकसित करने की बात करें तो इस पर अमल भी अवश्य करें।

हमें एक बार फिर से इस पर भी विचार करने की ज़रुरत है कि हमारी औद्योगिक और बाजार व्यवस्था का सूरतेहाल कैसा हैं। पुरानी लाइसेंसी राज व्यवस्था के अवशेष अभी तक खत्म नहीं हुए हैं। हमें सोचना होगा कि  कैसे एक ऐसी व्यवस्था विकसित की जाए जिसमें ढेर सारे बढ़िया रोज़गार पैदा किये जा सकें। 

राहुल गाँधी:  मुझे यह देखकर हैरानी हुई कि “माहौल” अथवा भावना और विश्वास भी अर्थशास्त्र में कितने महत्वपूर्ण है। कोरोना के संकट के बीच मैंने पाया कि विश्वास का मुद्दा दरअसल असली समस्या है। लोगों को समझ ही नहीं आ रहा कि आखिर आगे क्या होने वाला है। इसीलिये, पूरी व्यवस्था में एक भय व्याप्त है।  

बेरोजगारी के मुद्दे को ही लें।  यह बहुत बड़ी समस्या है, जो अब और बढ़ने वाली है। बेरोजगारी के मुद्दे पर कैसे आगे बढ़ें?  अगले 2-3 महीने में कोरोना के संकट से मुक्ति मिल जायेगी  तो बेरोजगारी से कैसे निपटेंगे।

रघुराम राजन: आंकड़े सचमुच बेहद चिंतित करने वाले हैं। सीएमआइई के आंकड़ों पर नज़र डालें  तो पता चलता है कि कोविड के परिणामस्वरुप करीब 10 करोड़ लोग अपना रोज़गार खो चुके हैं। 5 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए हैं और करीब 6 करोड़ लोग श्रम बाजार से बाहर आ चुके हैं। किसी भी सर्वे पर सवाल उठाया जा सकता है, लेकिन हमारे सामने तो यही आंकड़े हैं और ये हिला देने के लिए काफी हैं। हमें सोचना होगा कि कैसे नाप-तौल कर अर्थव्यवस्था खोली जाए, लेकिन यह काम जितनी तेजी से हो सके, उतना तेजी से करना होगा ताकि लोगों को रोज़गार मिलना शुरु हों सके। हमारे पास बहुत लम्बे समय तक सभी वर्गों की मदद की क्षमता नहीं है। तुलनात्मक तौर पर हम एक गरीब देश हैं और लोगों के पास ज्यादा बचत भी उपलब्ध नहीं है।

मैं पलटकर एक सवाल आपसे पूछता हूं।  अमेरिका और यूरोपीय देशों की सरकारों ने वहां की जमीनी हकीकत के ध्यान में रखते हुए बहुत से कदम उठाए। भारत सरकार की जमीनी हकीकत एकदम भिन्न है आपकी नजर में पश्चिम के हालात और भारत की जमीनी हकीकत से निपटने में क्या अंतर है?

राहुल गाँधी:  समस्या की विशालता और इसके मूल में है समस्या की वित्तीय विशालता। असमानता और असमानता की प्रकृति। जाति-समस्या जैसे मुद्दे भी हैं।  भारतीय सामाजिक व्यवस्था अमरिकी एवं यूरोपीय समाज से एकदम अलग है।

अदृश्य होने के बावजूद ,भारत को पीछे धकेलने वाली वैचारिकी की समाज में गहरी पैठ है।  भारत को एक बड़े सामाजिक बदलाव की जरूरत है, और यह समस्या हर राज्य में अलग रूप में है। तमिलनाडु की राजनीति, संस्कृति, भाषा और वहां के लोगों की सोच यूपी वालों से एकदम भिन्न है। ऐसे में उनके अनुरूप ही व्यवस्थाएं विकसित करनी होंगी। पूरे भारत के लिए कोई एक नुस्खा न तो काम करेगा और न हीं कर सकता।

इसके अलावा, हमारी शासन और प्रशासन पद्धति अमेरिका से एकदम भिन्न है।  हमारी  इस पद्धति के केंद्र में नियंत्रण की सोच है। हमारी पद्धति में एक उत्पादक की बजाय एक जिला कलेक्टर नियंत्रक है। हमारी व्यवस्था के मूल में नियंत्रण हैं।   लोग कहते हैं कि अंग्रेजो के जमाने से ही ऐसा है। मेरा ऐसा मानना नहीं है। मेरा मानना है कि यह अंग्रेजों से भी बहुत पहले की व्यवस्था है।

भारत में शासन का तरीका हमेशा से नियंत्रण का रहा है और मुझे लगता है कि आज हमारे सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है। कोविड नाम की बीमारी को  नियंत्रित नहीं किया जा सकता जैसा आपने कहा इसको प्रबंधित करना पड़ेगा।    

एक और चीज है जो मुझे परेशान करती है, वह है असमानता। भारत में बहुत दशकों से ऐसा है। जैसी असमानता भारत में है, वैसी अमेरिका में नहीं दिखेगी। मैं हमेशा सोचता हूं कि यह  असमानता कैसे कम हो सकती है।  जब भी किसी व्यवस्था में असमानता का स्तर शीर्ष पर पहुँच जाएगा तो वह व्यवस्था बिल्कुल निष्क्रिय हो जायेगी।  मुझे गांधी जी की यह पंक्ति बेहद पसंद है कि  कतार के आखिर में जाओ और देखो कि वहां क्या हो रहा है। एक राजनीतिज्ञ के लिए यह बहुत बड़ा सन्देश है पर वास्तविकता में इसे कोई अहमियत नहीं दी जाती लेकिन मुझे लगता है कि रोशनी की गुंजाइश अगर है तो वहीँ से है।

आपको क्या लगता है, असमानता से निपटते हुए आखिर कैसे आगे बढ़ा जाए? कोरोना के संकट में भी यह असमानता साफ़ दिख रही है।  देश और हम सब गरीबों और प्रवासी मजदूरों के साथ एक किस्म का व्यवहार कर रहे हैं वहीँ दूसरी ओर सम्पन्न लोगों के प्रति हमारा बिल्कुल अलग रवैया है ।  ये दो दो अलग-अलग प्रकार के विचार हैं। ये दो अलग-अलग प्रकार के भारत हैं। आप इन दोनों को एक साथ कैसे जोड़ेंगे?

रघुराम राजन: हमारी सामजिक व्यवस्था के पिरामिड के सबसे निचले हिस्से यानि  गरीबों के जीवन-स्तर  को बेहतर करने के कुछ तरीके हम जानते हैं एहतियात से इनपर विचार कर इन लोगों तक पहुंचना होगा मेरा मानना है कि हमारी सरकारों ने भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे मुद्दों पर पहले भी काम किया है और मुझे लगता है कि अब भी हम बेहतर तरीके से कर सकते हैं 

चुनौतियों की बात करें तो मुझे लगता है कि ऐसे सभी लोगों तक पहुँचने और उनका जीवन स्तर ऊँचा उठाने की दिशा में काफी प्रशासनिक चुनौतियां है। पर मेरी नजर में उससे भी बड़ी चुनौती निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग को लेकर है। उनके लिए उपयुक्त रोज़गार जुटाने होंगे जो सिर्फ सरकारी नौकरी और उसके साथ मिलने वाली सुविधा के रूप में न हों। 

मेरा मानना है कि हमें इस मोर्चे पर काम करने की बेहद जरूरत है और इसे केंद्र में रखकर  अर्थव्यवस्था का विस्तार भी आवश्यक है। अनेक लोगों द्वारा हमारी श्रम-शक्ति में जुड़ने के बावजूद विगत कुछ वर्षों में हमने आर्थिक विकास की दर को गिरते देखा है, 

इसलिए मैं यही कहूंगा कि सिर्फ संभावनाओं की ओर न ताकें, बल्कि हर क्षेत्र में नए अवसरों का सृजन करें जो आगे चलकर फले फूलें। भले ही  विगत वर्षों में कुछ गलतियां भी हुई तो भी आगे बढ़ने का यही एकमात्र  रास्ता है। सॉफ्टवेयर और ऑउटसोर्सिंग सेवाओं जैसे क्षेत्रों में हम बहुत आगे बढ़ें हैं। किसने सोचा था कि ये क्षेत्र कभी भारत की ताकत बनेंगे? ,यह सब जब प्रकट हुआ तो कुछ लोगों का तर्क था कि यह इसलिए हुआ क्योंकि सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। हालांकि, मैं ऐसा नहीं मानता। लेकिन हमें हर संभावना पर विचार करना चाहिए बाकी का काम, देश की जनता की उद्यमशीलता कर ही लेगी 

 राहुल गाँधी:   बहुत-बहुत धन्यवाद डा. राजन

रघुराम राजन:  आपका भी बेहद शुक्रिया आप से बात करके अच्छा लगा। 

राहुल गाँधी:  आप सुरक्षित हैं न ?

रघुराम राजन:  जी, मैं बिल्कुल ठीक हूँ आपको शुभकामनायें। 

राहुल गाँधी:  धन्यवाद नमस्ते। 

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लिप्यान्तरण एवं अनुवाद: कुमार मुकेश  

 


 

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