पुलिस उत्पीड़न के ख़िलाफ़ एकजुटता: सबा दीवान और राहुल राय की फ़िल्मों का आज से फ़ेस्टिवल! 

दो साल पहले फरीदाबाद के युवा जुनैद की हत्या के बाद उन्होंने नागरिक प्रतिवाद का एक महत्वपूर्ण अभियान शुरू किया. इस अभियान का नाम था ‘नॉट इन माय नेम’. बहुत जल्द ही अमनपसंद लोगों के बीच यह अभियान लोकप्रिय हो गया और कई प्रमुख शहरों में इसे समर्थन मिला. इस अभियान जुनैद की हत्या के प्रतिवाद तक अपने को सीमित नहीं रखा बल्कि आने वाले समय की हर महत्वपूर्ण घटना पर नागरिक प्रतिवाद की अभिव्यक्ति का मंच बनाया. 

हिन्दुस्तान के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ी फ़िल्मकार राहुल राय और सबा दीवान इन दिनों दिल्ली पुलिस के निशाने पर हैं.सीएए और एनआरसी विरोधी आंदोलन को समर्थन देने के लिए बने एक व्हाट्सऐप ग्रुप की वजह से पुलिस उन्हें साज़िशकर्ता बता रही है.अब तक कई बुद्धिजीवियों को निशाने पर ले चुकी दिल्ली पुलिस अब सांप्रदायिक सद्भाव के लिए दिल्ली में मशहूर ‘नॉट इन माई नेम’ कैंपेन संयोजित करने वाले इस फ़िल्मकार दम्पति को सबक़ सिखाना चाहती है.

ज़ाहिर है, यह सब सत्ता के इशारे पर हो रहा है। सब दीवान और राहुल राय और सबा दीवान  ने पिछले 25 वर्षों में जेंडर और श्रम के मुद्दे पर न सिर्फ़ महत्वपूर्ण फिल्में बनायीं बल्कि इन मुद्दों को संवेदित करने के लिए कई तरफ के फ़िल्म फेस्टिवलों का आयोजन भी किया. ऐसे में फ़िल्मकार बिरादरी उन्हें निशाना बनाये जाने को लेकर काफ़ी उद्वेलित है। उनके प्रति एकजुटता ज़ाहिर करने के लिए ऑनलाइन फ़िल्म फ़ेस्टिवल आयोजित किया जा रहा है जिसमें उनकी फ़िल्में दिखायी जायेंगी।

सबा दीवान की फ़िल्म द अदर सांगगुजरे जमाने की गायिकाओं का एक ऐसा मानीखेज दस्तावेज़ है जिसकी रचना दस्तावेज़ी फ़िल्म जैसे माध्यम में ही संभव थी. यह उनकी दस वर्षों की लगातार की जाने वाली मेहनत का नतीजा भी है. इसी मेहनत और लगन की वजह से वे तवायफ़नामा‘  जैसी किताब भी लिख सकीं. इस कड़ी में उनकी दूसरी फ़िल्मों ‘दिल्ली –मुंबई – दिल्ली’ और ‘नाच’ को भी ज़रूर देखना चाहिए. 

इसी तरह से राहुल राय जेंडर के सवाल पर अपनी फ़िल्म When Four Friends Meet से चर्चा में आये. जेंडर के सवाल के साथ -साथ कामगारों के जीवन और सवाल उनकी फिल्मों के केंद्र में रहे. सुंदरनगरीसे शुरू करके फैक्टरीजैसी महत्वपूर्ण फिल्मों का उन्होंने निर्माण किया. 

दोनों ही फ़िल्मकार अपनी फ़िल्मों की वजह से देश -विदेश के नामी फ़िल्म फेस्टिवलों और विश्वविद्यालयों की अकादमिक चर्चाओं में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं . 

दो साल पहले फरीदाबाद के युवा जुनैद की हत्या के बाद उन्होंने नागरिक प्रतिवाद का एक महत्वपूर्ण अभियान शुरू किया. इस अभियान का नाम था ‘नॉट इन माय नेम’. बहुत जल्द ही अमनपसंद लोगों के बीच यह अभियान लोकप्रिय हो गया और कई प्रमुख शहरों में इसे समर्थन मिला. इस अभियान जुनैद की हत्या के प्रतिवाद तक अपने को सीमित नहीं रखा बल्कि आने वाले समय की हर महत्वपूर्ण घटना पर नागरिक प्रतिवाद की अभिव्यक्ति का मंच बनाया. 

सत्ता को राहुल –सबा का आम लोगों से जुड़ने का यह तरीका बिलकुल पसंद न आया और फ़रवरी 2020 में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा में उन्हें जबरदस्ती फंसाने की पूरी कोशिश शुरू हो गयी है. 

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे समय के इन महत्वपूर्ण फ़िल्मकारों को अपने समय की आवाज़ को लोकतांत्रिक तरीक़े से उठाने के लिए सजा देने की तैयारी चल रही है. 

हम अपने फिल्म फेस्टिवलों के सम्मानित दर्शकों से अपील करते हैं कि इस नाजुक और बेतुके समय में अपना नागरिक हस्तक्षेप करें. राहुल –सबा की जो भी फ़िल्में आपने देखी हैं या आपको पसंद आयीं है  उनपर अपनी वीडियो प्रतिक्रिया देते हुए इस अभियान को सफल बनाएं ताकि नागरिक प्रतिरोध और प्रतिवाद की आवाज़ मजबूत हो सके और हम बेहतर लोकतांत्रिक समाज में साँस ले सकें.

22 अक्टूबर को इस फ़ेस्टिवल का आग़ाज़ राहुल रॉय की फ़िल्म व्हेन फ़ोर फ्रेंड्स मीट से होगा। सन 2000 में बनी ये फ़िल्म दिल्ली के जहाँगीरपुरी में रहने वाले चार नौजवान श्रमिकों की ज़िंदगी से जुड़ी है। 28 अक्टूबर को सबा दीवान की मुंबई डांस बार में काम करने वाली एक महिला की दास्तान सुनाती दिल्ली-मुंबई-दिल्ली देखी जा सकेगी।

पूरे कार्यक्रम का विवरण यहाँ से प्राप्त किया जा सकता है।

इस पूरे अभियान की शुरुआत पांच फ़िल्म समूहों द्वारा शुरू की गयी है. ये फ़िल्म समूह हैं प्रतिरोध का सिनेमा (ग़ाज़ियाबाद), मरुपक्कम ( चेन्नई ), पेडेस्ट्रियन पिक्चर्स (बेंगलुरु), पीपुल्स फ़िल्म कलेक्टिव (कोलकाता) और विकल्प @पृथ्वी (मुंबई).     

 


 

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