दुनियाभर में कोरोना संक्रमण की रफ्तार अब भारत में सबसे ज्यादा तेज है। हर दिन होने वाली मौतें और स्वास्थ्य असुविधाओं से लोग बेहाल हैं। जनता सरकार से पूछ रही है कि सालभर में आपने इस ओर क्या कदम उठाए? मामले पर अब जाने माने इकोनॉमिस्ट और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पति परकला प्रभाकर ने भी सरकार की आलोचना की है। अपने यूट्यूब चैनल मिडवीक मैटर्स पर उन्होंने कई बाते कही…
हम देश में कोरोना संक्रमण को दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ते हुए देख रहे हैं। मौतें आसमान छू रही हैं। देश में एक करोड़ से अधिक लोग संक्रमित हो चुके हैं। यह हेल्थ इमरजेंसी है। यह संकट क्या उजागर करता है। आज हम केंद्र की तैयारी, पॉलिटिकल सिस्टम की जवाबदेही और मानवीय संवेदनाओं को परखेंगे। अपनों की मौत कष्टदायी होती हैं और दूसरों की मौतों संख्या यानी आंकड़ा हो सकती हैं।
मैं जानता हूं कि सन 1981 तक मेरे लिए ऐसी मौतों का कोई मतलब नहीं था। यह सिर्फ सूचनाएं भर होती थीं। अपने जीवन के शुरुआती दिनों में इसी साल मैंने अपने पिता को खोया तो जाना कि मौत कितनी दुखदायी होती है। बीते एक साल में कोरोना ने मेरे कई दोस्तों को छीन लिया है। मैं जानता हूं कि उनके परिवार, पत्नी, पति, बच्चे, मित्र और सहयोगियों पर क्या गुजर रही होगी।
मेरा दोस्त अपनी पत्नी और शादी योग्य दो बेटियों को अपने पीछे छोड़ गया। यहां तक कि परिवार उनका अंतिम संस्कार भी न कर सका। हॉस्पिटल में जिंदगी भर की सारी कमाई चली गई। इस घटना को एक साल हो चुके हैं, लेकिन परिवार इस सदमे से उबर नहीं सका है। एक अन्य मित्र ने अपने 81 वर्षीय पिता को निजी अस्पताल में भर्ती कराया। यहां एक दिन का चार्ज 1 लाख रुपए था। उसे अगले दो दिन के इलाज का पैसा नकद देना पड़ता था। यदि पेमेंट में देरी होती थी तो अस्पताल इलाज रोक देने की धमकी देता था। अस्पताल ने यह तक नहीं बताया कि उन्हें क्या इलाज दिया जा रहा है। 15 दिन हॉस्पिटल में रहने के बाद पिता चल बसे और परिवार ने 20 लाख रुपए का बिल भरा। इस संकट की वजह से लोग आय खो रहे हैं। जमापूंजी और आजीविका गंवा रहे हैं।
हालात बदतर हो रहे
डॉक्टर हमें बता रहे हैं कि हालात बदतर हो रहे हैं। टेस्टिंग घट रही हैं। हॉस्पिटल और लैब सैंपल लेने से मना कर रहे हैं क्योंकि उन पर काम का इतना दबाव है कि वे सभी सैंपल का टेस्ट नहीं कर सकते हैं। बीते रविवार को सिर्फ 3.56 लाख टेस्ट हुए जो उससे एक दिन पहले हुए टेस्ट से करीब 2.1 लाख कम हैं।
कुंभ मेला के शाही स्नान के लिए लाखों लोग जुटे। स्थिति बिगड़ने के बाद धार्मिक नेता कहते हैं कि कुंभ मेले को सांकेतिक रखा जाएगा और राहुल गांधी अपनी रैलियां रद्द कर देते हैं। बंगाल में प्रमुख प्रतिद्वंद्वी भाजपा और टीएमसी कोविड प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ाते हुए रैलियां कर रही हैं। हद तो तब होती है जब कुछ एक्सपर्ट, एनालिसिस और सियासी नेता इन चुनावी रैलियों और कुंभ मेले में जुटी भीड़ को जायज ठहराने में लग जाते हैं। उनको सुनकर मुझे काफी गुस्सा आता है। अब यह सुनकर और धक्का लगा, जब वे तर्क देते हैं कि दूसरों देशों की तुलना में हमारी स्थिति अच्छी है।
वे अर्थहीन, बेमेल और सिलेक्टिव डेटा रख रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन लोगों के दिलों में उनके लिए कोई संवेदना नहीं हैं, जिन्होंने अपनों को खोया है। हम इस ड्राइ नंबर की वजह से पूरे संकट को नजरअंदाज कर रहे हैं। हम इन नंबर के पीछे के चेहरे, परिवारों को इग्नोर कर रहे हैं। यदि हम प्रति 10 लाख आबादी के हिसाब से संक्रमण की दर, मृत्युदर की तुलना दूसरों देशों से करें तो हमारा प्रदर्शन पड़ोसी देश भूटान, नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश से भी खराब है। कोरोना वायरस से लड़ने के लिए हमें 70 करोड़ लोगों का टीकाकरण करना होगा।
इसके लिए कम से कम 140 करोड़ डोज की जरूरत पड़ेगी। रिपोर्ट कहती हैं कि यह महामारी रुकने वाली नहीं है। लेकिन क्या सरकार इसके लिए तैयार है। यह स्पष्ट है कि वैक्सीनेशन धीमे चल रहा है। बीते सोमवार को 23.29 लाख डोज लगी, जो एक दिन पहले की तुलना में 14.55 लाख कम है।
सरकार ने इस बात को नजरअंदाज किया कि लॉकडाउन समस्या का हल नहीं है, बल्कि यह व्यवस्था वैक्सीन बनने तक संक्रमण को रोकने का तरीका है। जब इस समय का इस्तेमाल अस्पतालों का बुनियादी ढांचा सुधारने और क्षमता बढ़ाने पर किया जाना चाहिए था, तब दीया जलाने और ताली बजाने में देश की ऊर्जा को व्यर्थ किया गया।
इसका कोई सबूत नहीं है कि इस समस्या से निपटने के लिए सरकार ने गैर-सरकारी विशेषज्ञों, जिनके पास असीम अनुभव का भंडार है, उनसे मदद लेने का प्रयास किया हो। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता, पॉलिटिकल पूंजी और वाकचतुरता ने उन्हें उनकी सरकार के गैर-जिम्मेदाराना रवैये, अयोग्यता और निष्ठुरता से बचा रखा है। वे जवाबदेही से बच कर निकल पा रहे हैं। सरकार और सरकार को चलाने वाली पार्टी अब प्रचार के सहारे यानी आउटरीच मैनेजमेंट करने में निपुण हो चुकी है। वे जानते हैं कि देश शुरुआती दुख से गहरी चीख-पुकार कर लेने के बाद शांत हो जाएगा।
नोटबंदी के समय भी सरकार ने यही तरीका आजमाया था। फिर जनता की इसी सुषुप्तावस्था की वजह से सरकार और पार्टी अप्रवासी मजदूरों के लंबे पलायन का दुख भी झेल सकी। वे अभी भी अपनी पीठ थपथपाने में लगे हैं। उन्हें लगता है कि वे मौजूदा समस्या को भी इसी तरह पार कर ले जाएंगे। लेकिन लोकप्रियता और पॉलिटिकल पूंजी बिना चेतावनी के खत्म हो जाती हैं।
वाकचतुरता जल्दी ही नाटकीयता में तब्दील हो जाती हैं और राष्ट्र की खामोशी बहुत समय तक नहीं चलेगी। चलती तो मानवता, पारदर्शिता और जवाबदेही ही है। इन्हीं की बदौलत ही नेता इतिहास में अपने लिए जगह और आदर बना पाते हैंं। प्रधानमंत्री को कम से कम अब तो अपने सही आचरण का चुनाव करना चाहिए।