कश्‍मीर : लापता लोगों के बारे में सच्‍चाई कब बताएगी सरकार?

श्रीनगर, जून 2019 में अपने परिजन के लिए ए.पी.डी.पी के साइलेंट प्रदर्शन में भाग लेती एक वृद्ध महिला (क्रेडिट-अमन फारूख, ग्रेटर कश्मीर)

इस साल की ईद हर साल से अलग थी. भारत सरकार द्वारा कश्मीर की पूर्ण तालाबंदी की वजह से हम क़ुर्बानी भी अदा नहीं कर पाए जो हमारे लिए अनिवार्य होती है.

जब मेरा बेटा यासीर एक सुबह रोटी लेने निकला और जल्दी वापस नहीं लौटा, तो मैं घरबाहट में घर के बाहर चक्कर लगाने लगी. मेरे मन में ख़याल आने लगे कि कहीं हर गली में खड़े सुरक्षाबलों ने उसको पकड़ कर परेशान किया हो तो, या उससे भी बुरा कुछ? मेरा डर कश्मीर में रह रहे हर उस व्यक्ति का डर है जो सदमे में हैं और सोच रहे हैं कि “अब आगे क्या?” अंततः वो लौट कर घर आ गया और उसने बताया कि देरी इसलिए हुई क्योंकि पूरे इलाके की इकलौती बेकरी में भीड़ के कारण लम्बी कतारें थी, पर यासीर की तरह मेरा दूसरा बेटा जावेद कभी लौट कर नहीं आया.

सुरक्षा बलों द्वारा रात के छापों के आप कभी भी आदी नहीं हो सकते। वो 18 अगस्त 1990 का दिन था, हम श्रीनगर में रह रहे थे और बग़ावत अपने चरम पर थी. सुबह-सुबह एक पड़ोसी हमें बताने आए कि मेरे मात्र 16 साल के बेटे जावेद को राष्ट्रीय सुरक्षा बल (सैकड़ों अर्ध-सैनिक बलों में से एक) उठा कर ले गए हैं. पहले तो मैं नहीं घबराई, क्योंकि मुझे यकीन था कि यह गलती से हुआ है. मेरे बेटे का कभी किसी से झगड़ा तक नहीं हुआ था, किसी सशस्त्र आंदोलन में हिस्सा लेना तो दूर की बात है.

जैसे-जैसे दिन गुज़रते गए, मेरी चिंताएं बढ़ती गईं क्योंकि उसका पता लगाने की हर कोशिश नाकामयाब रही. मैं एक पुलिस थाने से दूसरे, एक यातना गृह (टॉर्चर सेंटर) से दूसरे हिरासत कैंप तक भागती रही, बस यह सुनने के लिए कि “चिंता मत करो, उसे रिहा कर दिया जाएगा”, पर वो नहीं लौटा.

1997 से लेकर आज तक, जावेद की फ़ाइल एक रहस्य बनी हुई है- उन बाकी सभी कश्मीरी पीड़ितों की तरह जो सेना की हिंसा का शिकार बने. गंभीर मानवाधिकार हनन के आरोपी किसी भी अफसर के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा एक भी अनुमति नहीं दी गई है.

उन्होंने मुझे धमकाया, मुझे खरीदने की कोशिश की. यहां तक कि ये भी कहने की कोशिश की कि अपने साथ अपनी नवजात बेटी को पुलिस थानों और अदालतों के सामने घंटों-घंटों इंतज़ार करवाने और अपने दूसरों बच्चों को घर पर छोड़ आने की वजह से मैं एक बुरी मां हूं। उन्होंने मेरी नीयत को लेकर अफ़वाह फैलाई, मुझे परेशान किया, मेरे खिलाफ फ़र्ज़ी इलज़ाम लगाए- वो चाहते थे कि मैं हार मान लूं पर मैंने सवाल पूछना छोड़ा नहीं कि “मेरा बेटा कहां है?”

8000 से 10,000 कश्मीरी जबरन गायब कर दिए गए हैं. मैं कभी भी सक्रिय राजनीतिक इंसान नहीं थी, पर मेरे ख़ुद के दुख और अन्य मां-बाप के कष्टों ने मुझे ए.पी.डी.पी (एसोसिएशन ऑफ़ पेरेंट्स ऑफ़ डिसअपीयर्ड पर्सन्स) शुरू करने की ज़रूरत महसूस करवाई. मैं कश्मीर के हर हिस्से में जबरन गायब किए लोगों के परिवारों से मिलने जाने लगी, उनको सुनने, सहायता देने और इसको लेकर कार्रवाई करने को उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए.

हमारा संगठन एक्टिविस्टों वाला एक पारम्परिक संगठन नहीं है, बल्कि एक समुदाय है पीड़ितों का, जो अपना दर्द बांटते हैं, एक दूसरे को सहारा देते हैं और इस उम्मीद में ज़िंदा रहते हैं कि हमारे लापता बच्चे हमें वापस मिल जाएंगे. अनौपचारिक सभाओं से लेकर सार्वजनिक स्थानों पर भूख हड़तालों में, पार्कों में प्रदर्शन से लेकर कश्मीर और शैक्षणिक संस्थाओं में गोष्ठियों में, और विश्वविद्यालयों और संयुक्त राष्ट्र के दौरों में हम अपने सवालों के जवाब मांग रहे हैं- तुम हमारे बेटों को कहां ले गए हो? हमारे पति कहां हैं?

मैं नेता नहीं हूं. मैं पीड़ित हूं. 29 साल से लापता मेरे बेटे को देखने की उम्मीद मैं नहीं छोडूंगी. यह मेरे अकेले की लड़ाई नहीं है. अगर सरकार मुझे कहे कि वो आज जावेद को लौटा देंगे, तो मैं उन्हें मना करूंगी. पहले बाकी कश्मीरियों के लापता बच्चों और पतियों को वापस लाओ. जावेद को आखिर में लाना.

हमें भारत पर विश्वास नहीं है. अगस्त से चल रही घेराबंदी से जो उत्पीड़न हम पर किया जा रहा है वो कुछ नया नहीं है, और फिर भी इस बार जब से जम्मू-कश्मीर ने अपनी स्वायत्तता खोई है सब कुछ बहुत अलग है. हमारे पास आपस में संपर्क करने के कोई साधन ही नहीं है, हमारे पास कोई तरीका नहीं है ये जानने के लिए कि कौन बीमार है, किसको सुरक्षा बलों ने उठा लिया है, कौन घायल हुआ है, कौन मारा गया है. जो काम करने बाहर नहीं जा पा रहे हैं, उनके पास आमदनी का कोई ज़रिया नहीं है. ए.पी.डी.पी के कई सदस्य गरीब और वृद्ध महिलाएं हैं, और हम उन्हें नियमित रूप से चिकित्सा दिलाने में मदद करते हैं: पर अब हमें यह पता ही नहीं चल पा रहा है कि उनकी क्या ज़रूरतें हैं, और उनके पास ज़रूरत की दवाइयां हैं या नहीं. हम मर जाएंगे और किसी को पता भी नहीं चलेगा. हम सब यहां एक सामूहिक क़ैदखाने में बंद हैं.

दिमाग में एक ही शब्द आता है: त्राथ, जिसका मोटे तौर पर अर्थ होता है आपदा। यह एक ऐसी आपदा है जो प्रत्यक्ष हिंसा के रूप में नहीं है, न ही डर के रूप में है, क्योंकि जिनके साथ न्याय और सच्चाई हो वो डरते नहीं हैं. यह आपदा आतंक की है: आज कश्मीर में जो चुप्पी थोपी गयी है, उससे मेरा दिल उसी तरह काँप उठता है जैसे अगस्त 1990 से लेकर अब तक यह जानकर आतंकित होता है कि मेरा बेटा जावेद जबरन गायब किए जाने का शिकार हुआ था.

कश्मीर में हर दूसरे दिन किसी जनसंहार की या सरकारी आतंक की या फिर भारत द्वारा अपने वादों से मुकर जाने की वर्षगाँठ होती है. हमने खौफ से भरी कई रातें और दमन से भरे कई दिन देखे हैं. हम अपनी आवाज़ उठाते हैं, पर सवाल ये है कि क्या भारत का नागरिक समाज और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय हमारी बात सुनता है या हमें नज़रअंदाज़ करता है?

हर साल, ए.पी.डी.पी के परिवार 30 अगस्त को इकट्ठा होते हैं, जब संयुक्त राष्ट्र का घोषित ‘अंतर्राष्ट्रीय लापता दिवस’ होता है. यह हमारा एक तरीका होता है एक दूसरे को तसल्ली देने का कि हम इस दुःख में अकेले नहीं हैं. पर, इस साल मानो हमारा दम घोंट दिया गया हो, और हम इकट्ठा भी नहीं हो पाए क्योंकि घेराबंदी करके भारत ने हमसे शोक मनाने का अधिकार भी छीन लिया.

मैं चाहती हूं कि कश्मीर और दुनिया के दूसरे जगहों में हर माँ को, जिसका बेटा लापता किया गया है, उन सब सवालों का जवाब मिले जो उन्हें सालों से परेशान कर रहे हैं: मेरा बच्चा कहां है? तुम उसे कहां ले गए? अगर तुमने उसे मार दिया है तो उसकी लाश ही ले आओ, पर खुदा के लिए उसे वापस ले आओ.


परवीना अहंगार एक मानवाधिकार रक्षक हैं और कश्मीर में ए.पी.डी.पी की अध्यक्ष है. यह यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्टमिनिस्टर के प्रोफ़ेसर दिब्येश आनंद के साथ उनकी बातचीत है, जो द गार्डियनमें 12 सितंबर 2019 को प्रकाशित हुई थी. लेखक की सहमति के साथइसका अनुवाद कश्मीर ख़बरके लिए सुमति ने किया है.

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