कांग्रेस कार्यसमिति अपने आप में एक समस्‍या है, इसे क्‍यों न भंग कर दिया जाए!

आजादी के आंदोलन से निकली देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस, इतिहास के अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। लगातार दो लोकसभा चुनाव में मुंह की खा चुकी पार्टी में आत्ममंथन और आत्मचिंतन का दौर जारी है। इसी क्रम में शनिवार को पार्टी में निर्णय लेने वाली सबसे ताकतवर इकाई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाई गई जिसमें सभी सदस्यों ने सर्वसम्मति से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश को खारिज करते हुए उन्हें पार्टी संगठन में बदलाव करने के लिए अधिकृत किया।

अगर हकीकत में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पार्टी संगठन में बदलाव के इच्छुक हैं तो सबसे पहले उन्हें कांग्रेस कार्यसमिति को ही भंग कर देना चाहिए क्योंकि कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक की तस्वीरें खुद-बखुद पार्टी की समस्या की कहानी बयां कर देती है। ए.के. एंटनी, गुलाम नबी आजाद, पी चिदंबरम, डॉ. मनमोहन सिंह सरीखे वरिष्ठ और गरिष्ठ नेता इसका हिस्सा तो हैं ही लेकिन ऐसा पहली बार हुआ जब गांधी-नेहरू खानदान के तीन सदस्य (सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा) एक साथ कांग्रेस कार्यसमिति का हिस्सा हैं। कभी अलग-अलग विचारधाराओं का छतरी संगठन कही जाने वाली कांग्रेस आज महज एक खानदान और गैर-जमीनी नेताओं का कुनबा बन कर रह गई है।

वरिष्ठ कहे जाने वाले ये नेता हर समय सारी जिम्मेवारी गांधी-नेहरू परिवार को देने की बात इसलिए नहीं करते क्योंकि इनकी इस खानदान में आस्था है। वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि इन्हें अपनी नेतृत्व क्षमता में भरोसा नहीं है। ये परजीवी हो चुके हैं, जो गांधी-नेहरू परिवार से मुफ्त का चंदन घिसवा रहे हैं और तिलक ऐसे नेताओं का करवा रहे हैं जो पार्टी की वैचारिक लड़ाई लड़ ही नहीं सकते। इनमें से ज्यादातर राज्यसभा के सदस्य हैं। उच्च सदन में इन नेताओं के भाषण कांग्रेस के नेतृत्व में स्‍वतंत्रता आंदोलन के स्तुति-गान से शुरू होकर शिव परिक्रमा पर खत्म हो जाया करते हैं।

आजादी के आंदोलन में कांग्रेस का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता लेकिन कांग्रेस की यह पूंजी फिक्स्ड डिपॉजिट की तरह है। अगर नई कमाई नहीं करेंगे और महज फिक्सड डिपॉजिट ही खर्च करते रहेंगे तो एक सीमा के बाद इस पूंजी का अंत भी सुनिश्चित है।

आंदोलन से निकली कांग्रेस के आरामकुर्सी नेता आजादी के बाद कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर पाएं। उलटे जो भी आंदोलन इस देश में हुए, कांग्रेस के ही खिलाफ हुए। देश की बहुत बड़ी आबादी आजादी के आंदोलन से खुद को जुड़ा हुआ महसूस नहीं कर पाती है। आजादी के बाद जो आंदोलन हुए, मसलन इंदिरा गांधी के खिलाफ जेपी आंदोलन और यूपीए के खिलाफ अन्ना आंदोलन, इनकी स्मृति अभी लोगों के जेहन में ताजा है।

पिछले पांच साल में देश में छोटे-मोटे किसान, दलित, आदिवासी आंदोलन हुए लेकिन कांग्रेस किसी भी आंदोलन का नेतृत्व करती नहीं दिखी। कुछ राज्यों में हालांकि आंदोलनों में कांग्रेस के नए चेहरों ने हिस्सा जरूर लिया जिसका राजनीतिक फायदा भी पार्टी को मिला। पिछले दिनों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्‍तीसगढ़ में में कांग्रेस सत्ता में लौटी।

पूर्वोत्तर जो कांग्रेस का परंपरागत गढ़ हुआ करता था, वहां नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर असंतोष अपने चरम पर था लेकिन कांग्रेस को यह डर सताता रहा कि इस बिल का खुला विरोध उस पर कही मुस्लिमपरस्त होने का टैग न चस्पा कर दे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उसूलों पर चलने की बात करने वाली पार्टी क्षणिक राजनीतिक नुकसान को देखते हुए सत्य के सिद्धांत को ही नकारती हुई दिखी। राहुल गांधी का ‘सच भारत’ महज उनके ट्विटर खाते तक सीमित रह गया। नतीजा सबके सामने है, कांग्रेस पूर्वोत्तर में ना घर की हुई ना घाट की।

आज जिस तरह से तमाम संवैधानिक सस्थाएं सत्ता के हाथों की कठपुतली बनी हुई हैं, ऐसे में गांधी-नेहरू के रास्ते पर चलकर ही लोकतंत्र की रक्षा हो सकती है। गांधी के हत्यारे गोडसे के प्रशंसक संसद में इसलिए पहुंच रहे हैं क्योंकि जिनके ऊपर गांधी की विरासत की रक्षा करने की जिम्‍मेदारी थी उन्होंने गांधी को महज उत्सवी रवायत बनाकर रख दिया।

आज पार्टी को स्ट्रीट फाइटर नेताओं की आवश्यकता है, जो लाठी खाएं, कुर्ते फड़वाएं, जेल जाएं और जरूरत पड़े तो गोली भी खाएं। अगर कांग्रेस का मानना है कि यह देश उसकी कुर्बानी और बलिदान से बना है तो कुर्बानी देने का समय एक बार फिर आ गया है।


लेखक दिल्‍ली स्थित पत्रकार हैं और बीते दो महीने चुनाव के दौरान उत्‍तर प्रदेश में रहे हैं

First Published on:
Exit mobile version