कश्‍मीर में जो हुआ वह किसी के हक़ में नहीं है, पंडितों के भी नहीं

Security personnel patrol during a lockdown in Srinagar on August 10, 2019. (Photo by TAUSEEF MUSTAFA / AFP) (Photo credit should read TAUSEEF MUSTAFA/AFP/Getty Images)

नई दिल्ली द्वारा कश्मीर में दसियों हज़ार सैनिक भेजने; इलाके में आम जीवन को ठप्प करके वहां संचार-व्यवस्था को पूरी तरह बन्द करने; सैकड़ों प्रमुख कश्मीरियों को गिरफ़्तार करने; भारत-प्रशासित कश्मीर को स्वायत्तता की गारंटी देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को एकतरफा तरीके से खत्म करने; जम्मू-कश्मीर को दो हिस्सों में बांटने; और राज्य का दरजा खत्म करके उसे महज़ एक केन्द्र-शासित प्रदेश बना देने के कुछ दिन बाद ही मोदी ने इस भूतपूर्व राज्य के बारे में पहला सार्वजनिक भाषण दिया। अपने भाषण में मोदी ने कश्मीर की सभी समस्याओं के लिए उसकी स्वायत्तता को ज़िम्मेदार ठहराया, विकास का वादा किया और एक ऐसे भविष्य का नक्शा खींचा जहां कश्मीर में महज़ बॉलीवुड ही नहीं दुनिया भर की फिल्में शूट की जाएंगी। और हां, इसके अलावा, थोड़ा बहुत शॉल बनाने का काम भी चलता रहेगा। ऐसा लगता है कि भारत के प्रधानमंत्री के लिए कश्‍मीर किसी फ़िल्म के सेट से ज़्यादा मायने नहीं रखता।

मोदी अकेले नहीं हैं जो कश्मीर को किसी फिल्म के सेट की तरह देखते हैं, जहां कश्मीरी ‘एक्स्ट्रा’ की भूमिकाओं में आते-जाते रहते हैं और हिन्दुस्तानी कल्पनाओं में जहां की “गोरी औरतों”, खूबसूरत पहाड़ों, अखरोट और सेब के बगीचों की विलक्षण सुन्दरता हिलोरे मारती है। यूरोपवासियों ने ओटोमन हरमों की जैसी उत्तेजक कल्पनाएं की हैं, ठीक उसी तरह मुस्लिम-बहुल कश्मीर हिन्दुस्तानी फ़िल्मों व साहित्य में हमेशा खूबसूरती व क्रूरता की कल्पनाओं से भरा हिन्दुस्तान का प्राच्य “अन्य” रहा है। इस खाके में हिन्दुस्तानियों को कश्मीर का विकास वैसे करना है जैसे वे चाहते हैं, हिन्दुस्तानियों को कश्मीरी औरतों को मुक्ति दिलानी है और अल्पसंख्यकों की रक्षा करनी है, और इन सब में कश्मीरियों की सहमति कोई मायने नहीं रखती। हालत यह है कि पिछले कुछ दिनों में बॉलीवुड के फ़िल्मकारों के बीच धारा 370 और कश्मीर हमारा है जैसे फ़िल्मी नाम रजिस्टर कराने की होड़ सी मच गई है। कई दक्षिणपंथी नेताओं, एक्टिविस्टों और उनके समर्थकों ने हिन्दुस्तानी मर्दों के लिए “गोरी कश्मीरी औरतें” आसानी से मिलने की ख़्वाहिशों का खुल कर इज़हार किया है।

इन तमाम हिन्दुस्तानी कल्पनाओं में कश्मीर के लोगों की हकीकत व उनकी ज़िन्दगियों की नाज़ुक हालत को पूरी तरह नज़रंदाज़ कर दिया गया है। भारी सैन्यकरण; अपनी ज़मीनों पर कब्ज़ा; लोगों को मारने, अन्धा कर देने, प्रताड़ित करने या उनको गायब कर देने की सुरक्षा बलों की असीमित ताकत; हिन्दुस्तानी शहरों में कश्मीरी विद्यार्थियों को सुरक्षा के लिए खतरा बता कर उनको बेइज्ज़त किया जाना; और हिन्दुस्तानियों से मिलने वाली खैरात के लिए उनका शुक्रगुज़ार न होने के बदले हिन्दुस्तानी मीडिया में कश्मीरियों को बदनाम किया जाना- यह सब कश्मीरियों की आम ज़िन्दगी की हकीकत है।

इन सब के बावजूद कश्मीर में रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हमें इज्ज़त, सामाजिक एकजुटता, सामूहिकता और प्रतिरोध की भावना भी देखने को मिलती है। यह दृढ़ता इस चेतना से आती है कि कश्मीर हिन्दुस्तान पर निर्भर नहीं है, बल्कि हिन्दुस्तान कश्मीर पर निर्भर है और यही वजह है कि बहुत बड़ी कीमत चुका कर भी वह कश्मीर पर कब्ज़ा जमाए हुए है।

हिन्दुस्तान के हालिया कदम का मकसद है विकास के नाम पर कश्मीरियों के प्रतिरोध और उनकी दृढ़ता को तोड़ देना। नैतिक श्रेष्ठता और आर्थिक तार्किकता के अहसास के साथ, संगीनों के साये में, प्रभावित लोगों से बिना किसी राय-मशविरे के विदेशी ताकत की अपनी कल्पनाओं के ताने-बाने में जिस तरह का विकास लोगों पर थोपा जाता है, उसके लिए एक लफ़्ज़ होता है। महज़ इसलिए कि हिन्दुस्तान खुद को एक उत्तर-औपनिवेशिक देश कहता है, यह तथ्य बदल नहीं जाता। हकीकत यह है कि आज के दौर में औपनिवेशिक कार्यवाही करने वालों ने खुद को उपनिवेशवादी कहने की हिम्मत नहीं दिखाई है। लोकतंत्र के नाम पर कश्मीरियों पर हुकूमत की जा रही है और विकास के नाम पर उसका और भी ज़्यादा औपनिवेशीकरण किया जा रहा है।

यह पहला कदम नहीं है। बस थोड़ा-सा पीछे जाइए और आपको कश्मीर के सपनों के क्रूर दमन का मंज़र बार-बार देखने को मिलेगा। 2016-17 में कश्मीर के आम नागरिकों को मानव ढाल की तरह इस्तेमाल किया गया और विरोध प्रदर्शन करने वाले कश्मीरियों की आंखें पैलेट गनों से छीनी गईं। 2014 में कश्मीर को बाढ़ राहत का बिल थमाया गया। 2010 में वहां के लोगों के विद्रोह को महज़ पाकिस्तान-समर्थित आतंकवाद के लेंस से देखा गया।

इससे भी पहले जाएंगे तो 1990 के दशक में टॉर्चर, भारी पैमाने पर बलात्कार और लोगों को गायब कर देने के नज़ारे मिलेंगे; 1980 के आखिरी वर्षों में धार्मिक आधार पर लोगों के बीच जबरन विभाजन की कवायद मिलेंगी: और 1950 से 1980 के दशक तक चुनावों में दखल, नेताओं को जबरन हटाया जाना, स्वायत्तता को धीरे-धीरे खत्म किए जाने की चालें दिखेंगी।

इन सब के पीछे इकलौती वजह है 1947 में किये गये रायशुमारी या जनमत संग्रह के वादे से मुकरना। बेशक अगर हम 1846 की अमृतसर सन्धि तक जाएं जिसमें अंग्रेज़ों ने कश्मीर और उसके बाशिंदों को जनता से कटे हुए और क्रूर डोगरा शासकों के हाथों बेच दिया, तो हमारे लिए हिन्दुस्तान की औपनिवेशिक नीति को अंग्रेज़ों की औपनिवेशिक नीति के सिलसिले की कड़ी की तरह देखना भी मुमकिन हो जाएगा। जैसा कि मैंने अपने काम में पहले कहा है, कश्मीर के बारे में अमूमन हर आख्यान निहित स्वार्थों की लैंडमाइनों से पटा पड़ा है और कश्मीर का राजनीतिक इतिहास तोड़-मरोड़ कर ही पेश किया जाता है।

संभव है कि कुछ लोग इस आख्यान के कुछ खास बिन्दुओं पर एतराज़ करें, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि 15 अगस्त 1947 को जब पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में उसके पड़ोसी आज़ाद हुए तब कश्मीर इन दोनो उत्तर-औपनिवेशिक राज्यों में से किसी का भी नहीं था। यही समस्या की जड़ भी है। कश्मीर की अवाम तमाम तरह के जातीय व धार्मिक समूहों में बंटी हुई थी। एक औपनिवेशिक ताकत ने उनके भविष्य की कुछ शर्तें रखीं जिनको दो नयी सम्प्रभु राजनीतिक इकाइयों को मानना था। इन दोनो राज्यों ने इस ज़मीन पर पहले तो कब्ज़ा किया, फिर उसे बांटा और उसके बाद अपने ज़हरीले राष्ट्रवाद की आग में घी डालने के लिए कश्मीर के लोगों की परवाह किए बगैर उनके आत्म-निर्णय के अधिकार की ही नहीं बल्कि बुनियादी मानवाधिकारों तक की धज्जियां उड़ाईं।

यह ज़रूरी है कि अंतरराष्‍ट्रीय समुदाय कश्मीर पर एक नए तरह का सोच अपनाये– यानी हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की आपसी रंजिश के दुष्चक्र के नज़रिये से देखने के बजाय खुद कश्मीरी अवाम के नज़रिये से देखने का तरीका। इस मसले का शांतिपूर्ण व न्यायपूर्ण हल तभी मुमकिन है जब इसमें कश्मीरी खुद शामिल हों। यह काम आसान नहीं है। पश्चिम में बसे उत्तर-औपनिवेशिक प्रवासी दक्षिणपंथी हिन्दू वहां के अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर तो बहुत हंगामा करते हैं लेकिन अपने मूल देश में वे खुद श्रेष्ठतावादी बरताव करते हैं।

पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का दावा चाहे जो हो, हकीकत में इनमें से कोई भी उदारवादी लोकतंत्र नहीं है। दोनों मुल्कों ने राज्य के चरित्र को बदलने के लिए बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद का इस्तेमाल सफलतापूर्वक किया है। संवैधानिक मूल्यों पर टिके सेकुलर लोकतंत्र के रूप में हिन्दुस्तान की परिकल्पना से उन हिन्दू राष्ट्रवादियों को ज़बरदस्त परहेज़ है जिनके वैचारिक पुरखे शुद्ध राष्ट्र की प्रेरणा के लिए नात्सियों की तरफ देखा करते थे। उनके बहुत सारे समर्थक इस बात को लेकर बिल्कुल मुखर हैं कि वे कश्मीर को हाथ से नहीं जाने देंगे, चाहे इसके लिए कश्मीरियों का संहार ही क्यों न करना पड़े।

इन लोगों ने 1989 में घाटी से कश्मीरी पंडितो के पलायन की कहानी से सांप्रदायिकता, कश्मीरियों के बीच के धार्मिक विभाजनों, अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ हिंसा या तमाम कश्मीरियों के साथ दगा करने वाले राज्यतंत्र के पहलू को गायब करके उसकी जगह उसे हिन्दुओं के उत्पीड़न, इस्लाम की बुनियादी बर्बरता और पाकिस्तानी साजिशों का जामा पहना कर इस घटना को बड़ी चालाकी से एक हथियार में तब्दील कर दिया है। ये लोग कश्मीरी मुसलमानों और पंडितों दोनों समुदायों के साथ हुई हिंसा, बलात्कार, हत्याकाण्ड और नुकसान की न्यायिक जांच की मांग नहीं करते; न ही ये इस टकराव का हल चाहते हैं जिससे वहां अमन कायम हो ताकि कश्मीरी पंडित अपने घरों को लौट सकें और कश्मीरी मुसलमान सुकून से रह सकें। इसके बजाय ये कश्मीर को हिन्दू राष्ट्र का एक अदद मोहरा बनाये रखना चाहते हैं।

कश्मीर पर यह हालिया कार्यवाही न तो हिन्दुस्तानियों के हक में है, न कश्मीरी पंडितों के हक में, न ही किसी और के हक में, सिवाय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) समर्थित मोदी की भाजपा सरकार व उसके सहयोगियों के और उनके समर्थक मुनाफाखोर उद्योगपतियों के। यह कार्यवाही हिन्दुस्तानियों को और ज़्यादा असुरक्षित बनाएगी और पंडितों के भविष्य को कहीं ज़्यादा अनिश्चित कर के उन्‍हें हालात का कैदी बना देगी। इसके चलते प्रतिरोध व हिंसा बढ़ेगी, और ज़्यादा लोग मारे जाएंगे, दुनिया में हिन्दुस्तान की साख गिरेगी और एक सेकुलर लोकतंत्र के रूप में हिन्दुस्तान की परिकल्पना अपनी मौत के और करीब पहुंच जाएगी।

हिन्दुस्तान के नीति-निर्माताओं ने यह सब जानते हुए यह कार्यवाही की है ताकि वे इस विवाद के राजनीतिक चरित्र को नकार सकें और उनकी कार्यवाहियों के हर विरोध को “राष्ट्र-विरोधी” करार दे सकें। यह कार्यवाही असल में भाजपा और उसके वैचारिक समर्थक आरएसएस द्वारा कश्मीर में एक संवैधानिक तख्तापलट की तरह है। हिंसा और ज़ोर-ज़बरदस्ती के जरिए हिन्दू प्रभुत्व थोपने की यह परियोजना हिन्दुस्तान को फ़ासीवाद के शुरुआती दौर के काफी करीब ले जा रही है।

अगर आपको यह लगता है कि यहाँ बातों को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जा रहा है तो बस यह याद रखिए कि आज हिन्दुस्तान में जो हो रहा है, वह महज़ सर्वसत्तावादी तरीकों से लोकतंत्र को पलटने की कोई आम कोशिश नहीं है बल्कि यह एक वैचारिक परियोजना का हिस्सा है जिसका एक ठोस जनाधार है और जिसके पीछे आरएसएस जैसा संगठन है जिसके देश भर में लाखों सदस्य हैं और तमाम संगठनों व पेशों में जिसके समूह हैं। “अखण्ड भारत” यानी पाकिस्तान व बांग्लादेश जैसे पड़ोसी मुल्कों को विशाल भारत का हिस्सा बनाना इनके चहेते सपनों में से एक है। हम लोग जो आज इनके खिलाफ़ बोल रहे हैं- जिसमें मेरे जैसी एक गैर-मुस्लिम कश्मीरी लेखिका व अकादमिक भी शामिल है- बस उन चीज़ों की तरफ लोगों का ध्यान खींच सकते हैं जो हमारे सामने घट रही हैं।

जब आम कश्मीरी हिन्दुस्तान के बारे में बात करते हैं तब वे ज़ुल्म और लानत की बात करते हैं- क्रूर और हिंसक हिन्दुस्तानी हुकूमत को उसकी बेहयाई और अनैतिकता के लिए गालियां दी जाती हैं। अगर आम हिन्दुस्तानी अपनी सरकार की विस्तारवादी हवस और अमानवीय कार्यवाहियों को चुनौती नहीं देंगे तो वह समय दूर नहीं जब वे एक हिन्दू श्रेष्ठतावादी औपनिवेशिक लोकतंत्र के निवासी होंगे, चाहे वे ऐसा चाहते हों या न चाहते हों।


यह लेख फॉरेन पॉलिसी वेबसाइट पर 13 अगस्त 2019 को प्रकाशित हुआ था। निताशा कौल वेस्टमिंस्टर विश्वविद्यालय में राजनीति व अंतरराष्‍ट्रीय संबंधों की प्रोफेसर हैं और ‘रेसिड्यू’ उपन्यास की लेखिका हैं। अनुवाद लोकेश मालती प्रकाश ने किया है। 

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