नेहरू की मानें तो कश्‍मीर में भारतीय राज्‍य मनोवैज्ञानिक रूप से नाकाम रहा है

अंतरराष्ट्रीय राजनीति के जटिलतम भूगोलों में से एक कश्मीर का संकट फिर चर्चा के केन्द्र में आ गया है. अबकी बार वजह बना भारत सरकार का वह क़दम जिसमें जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने वाले अनुच्छेद 370 में राष्ट्रपति के आदेश के ज़रिये फेर बदल कर, जम्मू कश्मीर से, भारतीय गणराज्य के एक राज्य का दर्जा छीन लिया गया और उसके भूगोल को जम्मू-कश्मीर व लद्दाख़, दो केंद्र-शासित प्रदेशों में विभक्त कर दिया गया.

जो लोग कश्मीर को लेकर संघ के पुराने एजेंडे से वाक़िफ़ हैं, उन्हें भारतीय राज्य पर पूर्ण बहुमत के साथ क़ाबिज़ संघ के राजनीतिक फ्रंट बीजेपी के इस क़दम पर बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिए. इसे लागू करने से पहले ही भारत सरकार ने एहतियातन भारी संख्या में फ़ौज और सुरक्षा बलों की तैनाती पूरे राज्य में करते हुए वहां धारा 144 लागू कर दी थी. इंटरनेट, मोबाइल फ़ोन और यहां तक कि पहली बार लैंडलाइन फ़ोन्स की सेवाएं भी रद्द कर दी गईं, जिसके चलते कश्मीरी अवाम की इस मसले पर कोई सटीक प्रतिक्रिया जानने का कोई ज़रिया नहीं रहा. सरकार समर्थक मीडिया घरानों ने हालांकि ख़बरें चलाईं कि कश्मीर में इस क़दम का स्वागत किया गया है लेकिन बीबीसी, न्यूयॉर्क टाइम्स् और अन्य अंतराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों ने दिखाया कि धारा 144 लागू होने के बावजूद कुछ स्थानों पर इस फ़ैसले के विरोध में प्रदर्शन हुए। यहां तक कि करगिल जैसे क्षेत्र, जो कि भारत सरकार और सेना के समर्थक हैं, वहां भी लोगों ने सरकार के इस क़दम को अलोकतांत्रिक और तानाशाहीपूर्ण बताया. लेह से इस फ़ैसले के स्वागत और जश्न की ख़बरें भी आई हैं.

कई मीडिया रिपोर्ट्स और स्थानीय लोगों की डायरीज़ के जो अंश मीडिया के ज़रिये कश्मीर की कहानी कह रहे हैं, वे बताते हैं कि कश्मीर को सूचना शून्य कर दिया गया है और जन-जीवन को अनिश्चित समय के लिए अस्थिरता की तरफ धकेला जा चुका है. फ़ौज की मौजूदगी के बीच अब तक कश्मीर की इस पूरे घटनाक्रम पर कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया नहीं आयी है, या यूं कहा जाना चाहिए कि नहीं आने दी गयी है. विदेश में रह रहे कश्मीरियों के समूहों के विरोध प्रदर्शन के भी कई वीडियो सोशल मीडिया में देखे जा सकते हैं.

कश्मीर के अवाम को सूचना अप्रवाह के कर्फ्यू में धकेल, वहां के स्थानीय नेताओं को नज़रबंद कर, उनके भूगोल और इतिहास पर, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की हुक़ूमत द्वारा इतना बड़ा ऐतिहासिक फ़ैसला ले लिया जाना बताता है कि कश्मीर भारत के दूसरे राज्यों की तरह आम नहीं है. कश्मीर भारतीय लोकतंत्र के कवरेज एरिया से बाहर की एक दूसरी चीज है.

यह सभी को मालूम है कि कश्मीर की ख़ूबसूरत फ़िज़ाओं में ‘आज़ादी’ की मांग गूंजती रही है. एक बड़ी आबादी वहां भारत में रहने को तैयार नहीं. वे अपने लिए एक आज़ाद मुल्क़ की मांग कर रहे हैं. यह भी सच है कि इन्हीं ‘आज़ादी’ के नारों के बीच ‘ज़िहाद’ के नारे भी गूंजते सुनाई दिए हैं जिनका बीते समय में एक बड़ा जनाधार बना है. एक छोटा धड़ा पाकिस्तान में मिल जाने का ख़याल भी रखता है और उतना ही छोटा एक धड़ा हिंदुस्तान के पक्ष में भी बचा है. लेकिन लाखों की तादाद में अपनी सेना तैनात किए हुए कश्मीर में मौजूद भारतीय राज्य के अपने तर्क हैं. ‘अंधराष्ट्रवादी’ उन्माद के ‘कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे’ जैसे अविवेकी नारों के इतर कश्मीर की आज़ादी के पक्ष और विपक्ष में प्रगतिशील हलके में भी पर्याप्त बहस है.

हमने देखा है कि हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी की तरह भारतीय सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए कई अलगाववादियों के जनाजे जब कश्मीर में उठे, तो लाखों की तादाद में आम कश्मीरी लोग उनकी शवयात्राओं में शामिल हुए. यह प्रतीक है कि कैसे कश्मीर में अलगाववादी विचार का बड़ा जनाधार है जो कि जोख़िम उठाकर भी इस विचार को समर्थन देने जा पहुंचता है. ठीक इसी समय इन अलगाववादियों के जनाजों की तस्वीरें जब मीडिया और सोशल मीडिया के रास्ते हिंदुस्तानी आम जनमानस तक पहुंची हैं तो वह कश्मीरियों के प्रति संशय की उसकी पूर्वस्थापित समझ को और मजबूत करती हैं.

”एक ‘आतंकी’ मारा गया था जिसके जनाजे में कश्मीरी शामिल थे”- सोशल मीडिया पर ऐसे संदेशों के साथ ये तस्वीरें ख़ूब प्रचारित होती हैं और मीडिया के ‘अंधराष्ट्रवाद’ का शिकार एक धड़ा जो कि भारतीय मीडिया को डोमिनेट करता है, इसे ‘राष्ट्रवादी उन्माद’ बनाकर परोसता है जिसके भारत भर में बहुतेरे ग्राहक हैं.

कश्मीर की कूटनीतिक पहेली

क्या बुरहान वानी जैसे अलगाववादियों के जनाजे में शोकाकुल भीड़ के उमड़ पड़ने की वजह वाकई इतनी सपाट है? क्या कश्मीरी लोग आतंक और आतंकियों से इस क़दर मुहब्बत करते हैं? या इसकी वजह पिछले छह दशकों में कश्मीर के इतिहास में घटे एक-एक दिन में लिपटी हुई है, जिसमें भारतीय राज्य कश्मीरियों के विश्वास को लगातार खोता गया है? और क्या अब अनुच्छेद 370 में फेरबदल के ज़रिये बिना लोगों को विश्वास में लिए कश्मीर के भविष्य का नया ख़ाका खींचने की भारतीय राज्य की यह कोशिश, इस अविश्वास पर अब एक आख़िरी स्थायी मुहर साबित होगी?

ब्रिटिश हुकूमत के अंत के बाद 1947 में जब आज के भारत और पाकिस्तान इस इलाके में मौजूद सैकड़ों रियासतों को खुद में मिलाकर पहली बार आकार ले रहे थे, कश्मीर रियासत तब से इन दोनों ही मुल्कों के लिए एक कूटनीतिक पहेली बन गयी. नए-नए बने दोनों ही मुल्क कश्मीर के भौगोलिक महत्व को जानते थे और उसे अपनी ओर करने पर आमादा थे. कश्मीर के भीतर भी इन दोनों ही पक्षों का समर्थन करने वाले लोग मौजूद थे और इसके साथ ही कश्मीर में एक आवाज उसे आजाद कश्मीर बनाने की भी थी.

नेहरू की आशंका

इसी उहापोह भरे माहौल में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर के महाराजा हरि सिंह को एक अहम पत्र लिखा. इस पत्र में उन्होंने कश्मीर में भारत के लिए संभावनाओं और आशंकाओं दोनों पर ही टिप्पणी कीः

“… भारत के दृष्टिकोण से यह बात सबसे महत्वपूर्ण है कि कश्मीर भारत में ही रहे. लेकिन हम अपनी तरफ से कितना भी ऐसा क्यों न चाहें, ऐसा तब तक नहीं हो सकता जब तक कि कश्मीर के आम लोग नहीं चाहते. अगर यह मान भी लिया जाए कि कश्मीर को सैन्य बल के सहारे कुछ समय तक अधिकार में रख भी लिया जाए, लेकिन बाद के वक्त में इसका नतीजा यह होगा कि इसके खिलाफ मजबूत प्रतिरोध जन्म ले लेगा. इसलिए आवश्यक रूप से कश्मीर के आम लोगों तक पहुंचने और उन्हें यह अहसास दिलाने की एक मनोवैज्ञानिक जरूरत है कि भारत में रहकर वे फायदे में रहेंगे. अगर एक औसत मुसलमान सोचता है कि वह भारतीय संघ में सुरक्षित नहीं रहेगा, तो स्वाभाविक तौर पर वह कहीं और देखेगा. हमारी आधारभूत नीति इस बात से निर्देशित होनी चाहिए, नहीं तो हम यहां नाकामयाब हो जाएंगे…”

नाकामयाब भारतीय राज्य

नेहरू के उपरोक्त विश्लेषण को अगर आधार बनाया जाए तो उन्हीं की शब्दावली में भारतीय राज्य कश्मीर के मसले पर आज ‘नाकामयाब’ हो चुका है. भारत ने कश्मीर के मसले पर लगातार वही रास्ता अपनाया जिसे लेकर नेहरू ने आगाह किया था. बेशक कश्मीर का एक बड़ा भूगोल आज भारतीय संघ का हिस्सा है लेकिन उसका आधार वही सैन्य बल है जिसे लेकर नेहरू ने चेताया था. वह कश्मीरी आवाम के भीतर ‘भारत में रहने के लाभ को मनोवैज्ञानिक तौर पर स्थापित करने में’ नाकामयाब हो गया. केवल यही बात कश्मीर के असल अर्थों में भारत में बने रहने का रास्ता हो सकती थी.

आज हालत यह है कि भारतीय सेना की तकरीबन 75 फीसदी से अधिक फ़ौज केवल कश्मीर में तैनात है और उसे ‘आफ्सपा’ जैसे मानवाधिकार विरोधी कानूनों से लैस किया गया है. शेष भारत में सेना की लोकप्रियता के चलते आम धारणा में यह बात स्वीकार कर पाना बेहद कठिन है, लेकिन ऐसे कई वाकये हैं जहां सेना ने इन कानूनों का दुरुपयोग किया है.

सेना के दम पर कश्मीर पर क़ब्जा किए रखने की परिणति के चलते ही आज कश्मीरी जन मानस में भारतीय राज्य की स्वीकार्यता लगातार घटती गई है. इसकी असल वजह भारतीय राजनीतिज्ञों की कूटनीतिक नाकामी है.

शेख से बुरहान तक

अलगाववादी चरमपंथी वानी की शवयात्रा में उमड़ पड़े ‘कश्मीर’ से पहले भी कश्मीर का एक लंबा इतिहास है. अलगाववादी विचार और चरमपंथ के चरम पर पहुंच जाने के बीच में और उससे पहले कई ऐसे मौके थे जब भारतीय राज्य कश्मीरी जनता के प्रति ईमानदार और कूटनीतिक प्रयास करके उनका विश्वास जीत सकता था. शुरुआत में जब कश्मीर मसला अपनी जटिलताओं के साथ आकार ले रहा था, कश्मीर के अंदर भारत के लिए बेहद संभावनाएं थीं. इसकी सबसे बड़ी वजह एक ऐसा व्यक्ति था जिसकी उस दौर में कश्मीर की जनता के बीच सबसे गहरी पैठ थी और वह कश्मीर का निर्विवाद रूप से सबसे बड़ा नेता था. नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला का पूरा झुकाव भारत की ओर था. वे पाकिस्तान विरोधी थे और उसे एक सांप्रदायिक और ‘सिद्धांतविहीन दुश्मन’ क़रार देते थे. इसके अलावा वे कश्मीर को अलग राष्ट्र बनाए जाने के भी हिमायती नहीं थे. उनका मानना था कि इस लिहाज से यह बहुत छोटा और गरीब सूबा था. उन्हें संदेह था, ”अगर हम आज़ाद हुए तो पाकिस्तान हमें निगल जाएगा. उसने पहले भी कई बार कोशिश की है और वह आगे भी ऐसा करेगा.”

सूबे के सबसे बड़े जनाधार वाले नेता के इतने स्पष्ट समर्थन के बावजूद पिछले तकरीबन सात दशकों के दौरान भारतीय राज्य एक ऐसी रणनीति नहीं बना सका जिससे कि आम कश्मीरी में उसके प्रति सौहार्द पैदा हो पाता. उल्टा वहां तैनात फ़ौज की तादाद और उनके बूटों की धमक लगातार बढ़ती गई. सेना की दखलंदाजी और उसकी असीम शक्तियों ने कश्मीर के लोगों को भारतीय राज्य से विमुख होने के लिए अधिक प्रेरित किया. इसकी परिणति यह हुई कि हिंदुस्तान का कथित ताज ताज़िंदगी हिंदुस्तान का एक भयानक नासूर बन गया है.

यहां अनुच्छेद 370 में फेरबदल के बाद उभरे हालात ने सूबे की उन राजनीतिक पार्टियों को भी अप्रासंगिक बना दिया है जो कश्मीर के भारत में एक विशेष राज्य के बतौर रहने की बात करती थीं. बेशक अब उनके पास अपने जनाधार और कश्मीरी अवाम को अलगाववादियों के तर्कों से बचाने का कोई हथियार नहीं बचा है. भारत के इस क़दम ने कश्मीर के अलगाववादियों को एक मजबूत तर्क परोसा है जिससे कश्मीर के लोग आसानी से सहमत होंगे. ऐसे में भारत की सत्तारूढ़ पार्टी चाहे इस क़दम को कश्मीर के आतंकवाद पर क़रारा हमला बताये लेकिन इसका असर बिल्कुल उल्टा होने की आशंका अधिक है.

उपरोक्त पत्र में हालांकि नेहरू की जतायी चिंता से बीजेपी या कहें कि आरएसएस को कोई फ़र्क नहीं पड़ता. अपने ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ के एजेंडे के लिए उसे कश्मीर के भूगोल से तो मतलब है, लेकिन अवाम से कोई हमदर्दी नहीं है. उसे स्पष्ट तौर पर मालूम है कि राजनीतिक समीकरण कुछ यूं हैं कि यहां का अवाम न उसका था, न है और न हो सकता है. ऐसे में उसका यह क़दम घाटी के लोगों को भले नाग़वार ग़ुजरे, जो कि यूं भी उसकी कॉंस्टिट्यूएंसी नहीं हैं, लेकिन शेष भारत में, जो कि कश्मीरियों को लेकर एक स्पष्ट पूर्वाग्रह से ग्रसित है, वहां इसका लाभ पूरी तरह से भारतीय जनता पार्टी और प्रकारांतर से संघ के पक्ष में जाएगा.


रोहित जोशी पत्रकार और यायावर हैं। फिलहाल उत्‍तराखण्‍ड के कुमाऊं से टाइम्‍स ऑफ इंडिया के लिए लिख रहे हैं।

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