नौकरियों के लोप के बीच 10 % आरक्षण का प्रस्ताव महज़ राजनीतिक स्टंट !

देश में बेरोज़गारी दर 8-9 फ़ीसदी जा पहुँची है, और शिक्षित बेरोज़गारी दर 16 फ़ीसदी के आसपास है. साल 2018 में ही एक करोड़ से अधिक रोज़गार कम हुआ है.



प्रकाश के रे

केंद्रीय कैबिनेट ने लोकसभा चुनाव की घोषणा से तीन माह पहले अनरक्षित वर्ग यानी सामान्य वर्ग के ग़रीबों के लिए सीधी भर्तियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में 10 फ़ीसदी आरक्षण का प्रस्ताव पारित किया. सरकारी बयानों में कहा गया है कि इस प्रस्ताव को संसद के सामने संविधान संशोधन विधेयक के रूप में लाया जाएगा क्योंकि इसे लागू करने के लिए आरक्षण के स्थापित संवैधानिक निर्देशों में बदलाव करना पड़ेगा तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित 50 फ़ीसदी की निर्धारित सीमा को बढ़ाकर 60 फ़ीसदी करना होगा. इससे ज़ाहिर है कि मौजूदा लोकसभा के सामने यह प्रस्ताव विचार के लिए नहीं लाया जा सकेगा. यदि आयेगा भी, तो संसदीय समिति के पास भेजना होगा. बहरहाल, संसदीय और अदालती पेच का मसला अपनी जगह है, और यह भी चुनाव में साफ़ होगा कि इसका राजनीतिक फ़ायदा कितना हुआ, फ़िलहाल इस मुद्दे से जुड़ी कुछ बातों का चर्चा ज़रूरी है. 

इस प्रस्ताव से दो संभावित सकारात्मक स्थितियाँ बनने का रास्ता खुल गया है. एक तो इससे यह होगा कि आरक्षण-विरोधी एक बड़े समूह का मुँह लंबे समय तक बंद हो जाएगा क्योंकि वह आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था का विरोध करने के लिए अक्सर आर्थिक आधार पर आरक्षण की माँग करने का पैंतरा दिखाता था. दूसरा नतीज़ा यह होगा कि आरक्षण की सीमा की पाबंदी केंद्रीय स्तर पर भी कमज़ोर पड़ जायेगी और कुछ राज्यों की तरह यहाँ भी 68-70 फ़ीसदी आरक्षण की व्यवस्था बनने की संभावना प्रबल होगी. यह दोनों बातें सामाजिक न्याय के लिए सकारात्मक होंगी. 

यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि शिक्षित लोगों के लिए देश में उपलब्ध कुल नौकरियों का सिर्फ़ 0.69 फ़ीसदी यानी एक फ़ीसदी से कम हिस्सा आरक्षित है. आरक्षित सीटों पर घालमेल या उन्हें सामान्य सीटों में बदल देना या ख़ाली रखना जैसी क़वायदें भी ख़ूब होती हैं. इसके बरक्स अनरक्षित सीटों पर कई जगहों पर आरक्षित वर्ग के लोगों का चयन नहीं करने की चालाकियाँ की जाती रही हैं. इसके साथ एक सच यह भी है कि सरकारी क्षेत्र की नौकरियों में कई सालों से नव-उदारवादी नीतियों के तहत लगातार कटौती होती जा रही है. वर्ष 2016-17 के आर्थिक सर्वे के अनुसार, 2006 में सरकारी क्षेत्र में कार्यरत लोगों की संख्या 1.82 करोड़ थी, जो 2012 में घटकर 1.76 करोड़ हो गयी यानी उक्त अवधि में सरकारी नौकरियों में 3.3 फ़ीसदी की कमी आयी. इसके बरक्स निजी क्षेत्र में 2006 में 87.7 लाख नौकरियां थीं, जो 2012 में बढ़ कर 1.19 करोड़ हो गयीं. यह 35.7 फ़ीसदी की बढ़त थी. अगर सामान्य वर्ग के हिसाब से देखें, तो इस नये नियम से कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. सचमुच में यदि आरक्षण का बेहतर फ़ायदा देश को हासिल करना है, तो निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करने की व्यवस्था करनी होगी. जो लोग आर्थिक आधार पर आरक्षण की माँग का समर्थन करते हैं, उनसे यह उम्मीद है कि इस व्यवस्था का विस्तार निजी क्षेत्र में करने के प्रयास में भी सहयोग दें. 

इस आर्थिक आरक्षण की व्यवस्था से उस पुरानी और ज़रूरी माँग को भी बल मिलेगा, जिसका आग्रह है कि संविधान में उल्लिखित ‘प्रतिनिधित्व’ की भावना के अनुरूप आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व मिले. हालाँकि अनेक ऐसे लोग इस नयी व्यवस्था का लाभ भी उठा सकेंगे, जो राज्यों में तो आरक्षित समुदाय से आते हों, पर उन्हें केंद्रीय सूची में आरक्षण नहीं हो. वे आर्थिक आधार पर आरक्षित सीटों के लिए कोशिश कर सकते हैं. 

रिपोर्टों में कहा गया है कि प्रस्तावित व्यवस्था में आर्थिक आरक्षण पाने के लिए अधिकतम आठ लाख रुपए की आमदनी या पाँच एकड़ से कम ज़मीन की शर्त रखी गयी है. जैसा कि जगज़ाहिर है, किसानों की बहुसंख्यक आबादी सीमांत या छोटे किसानों की है. कृषि जनगणना के मुताबिक, 85 फ़ीसदी किसानों के पास दो हेक्टेयर से कम ज़मीन है, यानी ऐसे सभी किसानों की संतानें पाँच एकड़ से कम ज़मीन की व्यवस्था के आधार पर आरक्षण के लिए दावा कर सकती हैं. हमारे देश के एक फ़ीसदी शीर्ष के लोगों के पास देश की 73 फ़ीसदी संपत्ति है, जबकि 67 करोड़ लोगों की संपत्ति में मात्र एक फ़ीसदी की बढ़त हुई. यदि आपका मासिक वेतन 50 हज़ार या ऊपर है, तो आप देश के शीर्ष एक फ़ीसदी सर्वाधिक वेतन पानेवाले लोगों में से हैं. यह भी सामान्य तथ्य है कि तीन फ़ीसदी आबादी से भी कम लोग अपनी आय का ब्यौरा देते हैं. उनमें भी सभी करदाता नहीं होते हैं. हमारे यहाँ कर देने का मामला ढाई लाख की आमदनी से शुरू हो जाता है. इसका मतलब यह हुआ कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की दावेदारी समूचे देश की हो सकती है. 

अब यहाँ दो मामले आते हैं. आर्थिक आधार पर ऐसे जुमले पहले भी उछाले गये हैं, धार्मिक और जातिगत आधार पर भी वोट की राजनीति के लिए आरक्षण की घोषणाएँ हो चुकी हैं. क्या इसके लिए ज़रूरी संशोधन बिना व्यापक बहस के अगली लोकसभा और राज्यसभा के द्वारा पारित कर दिया जायेगा? क्या अदालत की कोई भूमिका नहीं होगी? क्या इस मुद्दे पर संतुलित और समुचित चर्चा देश में होगी? क्या देश प्रतिनिधित्व के मसले पर तथा आरक्षण की बेतुकी सीमा को हटाने पर विचार करेगा? पिछले सालों में जातियों को पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति/जनजाति में जोड़ा जाता रहा है. यह परिपाटी बंद होनी चाहिए और आरक्षण का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए- अनुपात में भी और सरकारी क्षेत्र से बाहर भी. और, सबसे बड़ा सवाल, जो ख़ुद इस सरकार के सबसे वरिष्ठ मंत्रियों में से एक नीतिन गडकरी के पाँच माह पुराने बयान से है- ‘जब नौकरियाँ ही नहीं हैं, तब आरक्षण का क्या फ़ायदा?’ फ़िलहाल हमारे देश में बेरोज़गारी दर 8-9 फ़ीसदी जा पहुँची है, और शिक्षित बेरोज़गारी दर 16 फ़ीसदी के आसपास है. साल 2018 में ही एक करोड़ से अधिक रोज़गार कम हुआ है. यह सबसे बड़ी चुनौती है देश के सामने.

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

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