10% आरक्षण या 100% मूर्ख बनाने का कार्यक्रम!

आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। इसका मक़सद सदियों से वंचित समुदायों को शासन-प्रशासन में हिस्सेदारी देकर उन्हें राष्ट्र का अंग होने का अहसास दिलाना है।

पंकज श्रीवास्तव

तीन राज्यों में मिली हार और राहुल गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेस के पुनर्जीवित होने से बेचैन प्रधानमंत्री मोदी सरकार ने आर्थिक आधार पर 10 फ़ीसदी आरक्षण का शिगूफ़ा छोड़ा है। टी.वी.चैनलों पर खुशी की लहर दौड़ गई है। ऐंकर बता रहे हैं कि कल संविधान संशोधन लाकर मोदी जी ऐसा मास्टर स्ट्रोक चलेंगे कि विपक्ष चारो खाने चित्त हो जाएगा।

कोई यह बताने को तैयार नहीं कि आर्थिक आधार पर 10 फ़ीसदी आरक्षण देना बेरोज़गारों को सौ फ़ीसदी मूर्ख बनाने की चाल है। वह भी तब विधायी कार्य के लिए सरकार के पास कोई समय बचा ही नहीं है। दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत के बिना संविधान संशोधन संभव ही नहीं है और राज्यसभा में तो इस सरकार के पास सामान्य बहुमत के भी लाले हैं। 8 जनवरी को सत्रावसान हो जाएगा। और अगले सत्र के सिर पर आम चुनाव होगा जब आय-व्यय से जुड़े काम ही हो पाएँगे। बजटसत्र पूर्णकालिक नहीं होगा। यानी सरकार का मक़सद महज़ हो हल्ला और एससी/एसटी एक्ट में बदलाव से उपजी सवर्ण नाराजगी पर पानी डालना भर है।  

यह बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि आरक्षण गरीबी हटाने का कार्यक्रम नहीं है। दूसरी बात अगर सरकारी नौकरियों पर हर तरफ़ रोक लगी हुई है तो यह आरक्षण लागू कहाँ होगा?  निजी क्षेत्र में तो आरक्षण है नहीं! हर साल दो करोड़ लोगों को रोज़गार देने का मोदी जी का वादा जुमला ही साबित हुआ है। कुछ दिन पहले ही सेंटर फॉर मानिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) ने बताया है कि 2018 में एक करोड़ नौ लाख लोगों ने रोज़गार खो दिए। यानी  मोदीजी के अच्छे दिनों में रोज़गार बढ़ना तो दूर, पुराने रोज़गार भी नष्ट हो रहे हैं।

लेकिन इस सूचना मात्र से न्यूज़ चैनलों के न्यूज़रूम जिस तरह उछल पड़े हैं, वह या तो अज्ञान का सूचक है या फिर शातिरपने का। जबकि आर्थिक आरक्षण के नाम पर मोदी सरकार न सिर्फ़ सामाजिक न्याय के संवैधानिक संकल्प का मज़ाक उड़ा रही है बल्कि ‘आर्थिक न्याय’ के मोर्चे पर अपनी विराट असफलता को ढँकने की कोशिश भी कर रही है।

दरअसल मोदी सरकार की पूरी कोशिशि है कि भीषण बेरोज़गारी और रोज़गारविहीन विकास की बहस आरक्षण पर सिमटकर रह जाए। ऐसे में कुछ बातें दोहरानी जरूरी हैं ताकि सनद रहे और पाठकों के साथ-साथ पत्रकारों की भी आँखें खुल सकें-

पुनश्च: राजनीतिक प्रेक्षक के रूप में पत्रकारों को ‘निजी क्षेत्र में आरक्षण’ की माँग पर कड़ी नज़र रखनी चाहिए। आने वाले दिनों में यह बड़ा मुद्दा बनेगा क्योंकि निजीकरण की बढ़ती माया से आरक्षण की सिकुड़ती जाती छाया का दर्द लोग समझने लगे हैं। आर्थिक आधार पर 10 फ़ीसदी आरक्षण का झुनझुना इस माँग को और गति देगा।

लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।

First Published on:
Exit mobile version