आइसा के 30 साल: संस्थापक अध्यक्ष और महासचिव की नज़र में

ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोशिएसन (आइसा) की स्थापना के 30 साल पूरे हो गये। 8-9 अगस्त 1990 को इलाहाबाद में आइसा का स्थापना सम्मेलन हुआ था। तब इलाहाबाद विश्वविद्याय में प्रगतिशील छात्र संगठन यानी पीएसओ का बड़ा ज़ोर था जो उत्तर प्रदेश का प्रमुख क्रांतिकारी छात्रसंगठन था। देश के तमाम हिस्सों में सक्रिय क्रांतिकारी धारा के छात्रसंगठनों को जोड़कर एक राष्ट्रव्यापी संगठन बनाने के लिए हुए इस सम्मेलन का मेज़बान पीएसओ ही था। इस संगठन के नेता कमलकृष्ण रॉय उस समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंगठन के अध्यक्ष थे। देश के विभिन्न राज्यों में सक्रिय तमाम छात्रसंगठनों का इस सम्मेलन में का विलय हुआ और आइसा अस्तित्व में आया। मंडल कमीशन लागू करने के ऐलान तले हुए इस सम्मेलन पर छात्ररूपी मनुवादी गुंडों ने हमला करने का प्रयास भी किया लेकिन वे खदेड़ दिये गये। आइसा ने मंडल कमीशन की अनुशंसाओं का समर्थन करते हुए शिक्षा और रोज़गार के आंदोलन की बड़ी लक़ीर खींचने को अपना कार्यभार घोषित किया। पीएसओ के नेता लाल बहादुर सिंह आइसा के अध्यक्ष और बिहार के प्रमुख छात्रनेता धीरेंद्र झा महासचिव चुने गये। लालबहादुर सिंह 1993 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष भी चुने गये थे।

इस 30 वर्ष की यात्रा को याद कर रहे हैं संस्थापक अध्यक्ष लाल बहादुर सिंह और संस्थापक महासचिव धीरेंद्र झा…

 

लाल बहादुर सिंह, संस्थापक अध्यक्ष, आइसा

आइसा के स्थापना दिवस के इस मौके पर, जब 1990 में अपनी स्थापना के बाद के 30 गौरवशाली वर्षों की यात्रा आप पूरी कर रहे हैं, मैं आइसा  की आज की पीढ़ी के नेताओं, कार्यकर्तों, सदस्यों, समर्थकों का अभिनंदन करता हूँ।

आपने जिस ऊंचाई पर आज आइसा को पहुंचाया है, आप जिस साहस और क्रांतिकारी भावना के साथ, जिस कौशल के साथ लड़े हैं, आपने हमें गौरवान्वित किया है। हमें गर्व है की हम भी आपके अंग रहे हैं ।

जिन अनगिनत छात्र हिरावलो ने 90 और उसके पूर्व AISA के पूर्ववर्ती संगठनों PSO, ABSU, ABSA, DSF, उत्तराखंड छात्र संगठन के दौर से लेकर आजतक अपने खून पसीने से सींचकर AISA को इस मुकाम तक पहुंचाया है, इस मौके पर में उन सब को सम्मान के साथ याद करता हूँ। वे जीवन के विविध छेत्रों में गए। उनमें से अनेक लोग आज भी फासीवाद विरोधी वैचारिक राजनैतिक लड़ाई की अगली कतार में हैं।

AISA के स्थापना काल, 90 के आसपास का वह दौर एक unique conjuncture है, देश और दुनिया के इतिहास में जिसने पूरी दुनिया को बदल कर रख दिया।

वह वैश्विक पैमाने पर समाजवादी संकट, सोवियत विध्वंस, गल्फ वॉर का दौर था। देश के अंदर यह अभूतपूर्व आर्थिक सामाजिक राजनैतिक उथलपुथल का दौर था। देश का सोना गिरवी रखा जा रहा था, नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का आगमन, मंडल कमंडल का दौर-एक ओर सामाजिक न्याय के लिए जद्दोजहद थी तो दूसरी ओर प्रतिक्रियावादी ताकतों का जबरदस्त backlash था, साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतों का उभार हो रहा था, एक नई शिक्षानीति आ गयी थी, रोजगार का संकट गहरा रहा था।

छात्र राजनीति के नाम पर या तो राजनैतिक दलों के जेबी संगठन थे या लम्पटों के जातिवादी, साम्प्रदायिक गिरोह जो उनसे प्रत्यक्ष/परोक्ष जुड़े रहते थे।

ऐसे ही तूफानी दौर में इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ भवन में, शहीद लाल पद्मधर भवन में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट नेता नागभूषण पटनायक ने 8 अगस्त को AISA के स्थापना सम्मेलन का उद्घाटन किया। मंडल-विरोधी तथा साम्प्रदायिक ताकतों के विरोध और हमलों का सफलता पूर्वक प्रतिकार करते हुए सम्मेलन सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।

उसी के कुछ दिनों बाद IPF की दाम बांधो काम दो रैली के बाद JNU में श्री गोपाल प्रधान के नेतृत्व में AISA की स्थापना हुई और राजधानी दिल्ली में हमारे राष्ट्रीय कार्यालय की शुरुआत तत्कालीन महासचिव धीरेन्द्र झा ने कामरेड शशि यादव औऱ हिम्मत सिंह के साथ मिलकर की।

And, the rest is history !

“दंगा नहीं रोजगार दो जीने का अधिकार दो”

“आरक्षण विरोध नहीं रोजगार के अधिकार के लिए लड़ो।”

के उद्घोष के साथ हमने साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतों का मुकाबला किया।

इस युद्ध में हम सच्चे उपनिवेशवादविरोधी प्रगतिशील राष्ट्रवाद का, देशप्रेम, सुसंगत लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, रोजगार, शिक्षा की छात्रसमुदाय की लोकप्रिय आकांक्षा का झंडा मजबूती से थामे रहे।

AISA के नेतृत्व में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के सरगना अशोक सिंघल  को छात्रसंघ भवन पर ऐतिहासिक प्रतिरोध द्वारा तिरंगा फहराने से रोक दिया और साम्प्रदयिक फासीवादी ताकतों को शिकस्त देते हुए BHU से लेकर JNU तक AISA ने छात्रसंघों में जीत का परचम लहराया।

उसी दौर में कामरेड चन्द्रशेखर की शहादत हुई, जो संगठन और पूरे छात्रान्दोलन के लिए किसी वज्रपात से कम न थी। इसके खिलाफ उनकी जन्मभूमि सिवान, बिहार से लेकर दिल्ली तक युवाओं का गुस्सा फूट पड़ा। प्रधानमंत्री को आंदोलन के दबाव में CBI जांच की घोषणा करनी पड़ी।

आज की चुनौती बेहद गंभीर है।

आज एक ऐसी शिक्षानीति थोपी जा रही है जो अकैडमिक स्वायत्तता और कैम्पस लोकतंत्र का खात्मा,कर शिक्षा को देशी विदेशी कारपोरेट घरानों के हवाले कर देगी, Liberal education को खत्मकर उसका साम्प्रदायिकरण करेगी त्तथा छात्रों की सोच को कूपमंडूक व अवैज्ञानिक बनाएगी, irrationality को बढ़ावा देगी।

देश में बेरोजगारी दर 20% के आसपास है, 10 करोड़ लोग इस दौरान बेरोजगार हो गए हैं जिसमें 2 करोड़ white कालर श्रमिक हैं।

देश में संसदीय लोकतंत्र की जगह कारपोरेट फ़ासिस्ट टेकओवर का खतरा मंडरा रहा है।

आज छात्र आंदोलन पूरे देश की उम्मीदों का केंद्र है,

Aisa तूफानों के बीच ही पैदा हुआ और  थपेड़ों के बीच सुर्खरू हुआ है।

मुझे पूरा विश्वास है कारपोरेट- साम्प्रदायिक फासीवाद को निर्णायक शिकस्त देने तथा शिक्षा समाज राजनीति के क्रांतिकारी बदलाव की इस लड़ाई में AISA देश के सारे प्रगतिशील छात्रों-युवाओं को एकताबद्ध कर हिरावल भूमिका निभाएगा!

मेरी शुभकामना !

 

धीरेंद्र झा, संस्थापक महासचिव, आइसा

इस ऐतिहासिक मौके पर  आइसा  की नई पीढ़ी को सलाम! शिक्षा के क्षेत्र में Graded Inequality और शिक्षा को बाजार में बिकने वाली चीज बनाने की जन विरोधी नीति NEP2020 के खिलाफ देशव्यापी जनांदोलन खड़ा करने की चुनौतियों को आइसा एकबार फिर मज़बूती से लेगा। यह मेरी ही नही, देश के करोड़ों करोड़ दलित-वंचितों की आकांक्षा है। भारत के छात्र आंदोलन में आइसा उम्मीद की वह किरण है जो न केवल शिक्षा अधिकार और परिसरों की स्वतंत्रता के लिये लड़ रहा है बल्कि देश के फासीवादी निज़ाम से टकरा रहा है। संविधान और वंचितों के अधिकार पर हो रहे हर हमले का मुंहतोड़ जवाब दे रहा है। साथी चंद्रशेखर ‘चंदू’ की शहादत मशाल बनकर अगुवाई कर रही है !

अपने स्थापना सम्मेलन में ही हमने आइसा को देशव्यापी रैडिकल संगठन के बतौर खड़ा करने का संकल्प लिया था और ऐलान किया था कि महज संगठन नहीं, इसे आंदोलन बनाना है। आज aisa देश का महज़ एक वामपंथी संगठन नही, आंदोलन है। छात्र-नौजवानों के भीतर विकसित हो रहे समस्त प्रगतिशील धाराओं की सामूहिक अभिव्यक्ति! इस उपलब्धि को सलाम, और इस ताकत एकबार फिर विराट आंदोलन का स्वरूप दें! परिस्थिति जटिल है, फासीवादी निज़ाम है; बावजूद आपमें बाजी पलटने की ताकत है!

आइसा के निर्माण के साथ ही हमें प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करना पड़ा। आइसा  का स्थापना सम्मेलन चल ही रहा था और मंडल कमीशन की घोषणा हुई! इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ भवन, जहां सम्मेलन चल रहा था, को सवर्ण प्रतिक्रियावादी छात्रों ने घेर लिया। उनकी मांग थी कि आप मंडल कमीशन का विरोध करो, और पीएसओ से जुड़े छात्रसंघ अध्यक्ष केके राय और उपाध्यक्ष कुमुदिनी पति हमारे आंदोलन की अगुवाई करें। नवगठित आइसा ने इन छात्र समूहों से साफ लहज़े में कहा कि मंडल कमीशन का विरोध नही, रोज़गार के अधिकार के लिए संघर्ष तेज़ करें! उन्हें मंजूर नहीं हुआ और उन्होंने हमारे सम्मेलन का बायकाट किया।

छात्रावासों में जाना हमलोगों के लिये मुश्किल हो गया। खुद की सुरक्षा घेरेबंदी के बीच हमारा सम्मेलन जारी रहा और सम्पन्न हुआ। सम्मेलन से पूरे देश में रोज़गार को लेकर अभियान तेज़ किया गया। सभी छोटे बड़े शहरों में सम्मेलनों- रैलियों का दौर शुरू हुआ। आज जो देश की गद्दी पर बैठे हुए हैं, इनलोगों ने छात्रों को जलने-जलाने के लिये प्रेरित किया। हमलोगों ने साफ तौर पर कहा कि भगत सिंह- अम्बेडकर के सपनों का समतामूलक आधुनिक समाज बनाने के लिए जरूरी है कि मुट्ठीभर लोगों के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक वर्चस्व टूटे। वहीं हमलोगों ने रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने की जबर्दस्त मुहिम चलाई। इसने छात्रों के बीच आइसा को विशिष्ट पहचान दी।

मंडल को काटने को लेकर भाजपा ने कमंडल कार्ड खेला। देश में नफरत और विभाजन का विष घोला गया। इस उन्माद पर चढ़कर आरएसएस/भाजपा ने दिन के उजाले में बाबरी मस्जिद को विध्वंस किया। पूरे देश को दंगे के हवाले कर दिया गया। पूरा तंत्र तमाशबीन बना रहा। इस स्थिति में आइसा ने उल्लेखनीय भूमिका अदा की। जेएनयू में हमारी छोटी और कमजोर टीम थी, लेकिन साथी चंदू के नेतृत्व में साथियों ने कैंपस से लेकर बाहर की बस्तियों में जबर्दस्त काम किया। साथियों ने दिन रात एक कर दिया। भाजपा नेताओं का जहां भी दौरा हुआ, साथियों ने लाठियां खाकर- मुकदमे झेलकर प्रतिवाद किया।

लालबहादुर जी के नेतृत्व में अशोक सिंघल को विश्वविद्यालय में झंडा नहीं फहराने दिया गया। जेएनयू कैंपस में दंगाईयों को बुलाने के खिलाफ बार बार जबर्दस्त बैरिकेड खड़ा किया गया। हमारी बढ़ती पहलकदमियों ने आइसा को हिंदी पट्टी में लोकप्रिय संगठन बना दिया। इसी प्रक्रिया में आइसा ने नैनीताल यूनिवर्सिटी में जीत दर्ज की, जेएनयू जीते और फिर इलाहाबाद ! इस सबका असर हुआ कि दूसरा नागपुर बीएचयू हिल गया। आनंद प्रधान वहां तमाम तिकड़मों को ध्वस्त करते हुए चुनाव जीत गए। आइसा की जीत और बढ़ते आंदोलन हिंदी पट्टी के विमर्श का बड़ा मुद्दा बना।

इसी दौर में आइसा नेताओं के साथ कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में एक प्रेस मीट को भाकपा माले महासचिव कामरेड विनोद मिश्र ने सम्बोधित किया। पत्रकारों ने उनसे पूछा कि हिंदी पट्टी में आइसा की जीत और पहलकदमी का क्या राजनीतिक क्षेत्र में भी विस्तार होगा? उन्होंने कहा कि होगा तो जरूर लेकिन सामाजिक-राजनीतिक स्थितियां इसके लिये परिपक्व नहीं हुई हैं। फिलहाल यह यूथ का मिज़ाज़ है और इस क्रांतिकारी तेवर का स्वागत होना चाहिये !


 

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