अभिषेक श्रीवास्तव
पिछले दो दिनों के दौरान दो अलग-अलग घटनाओं में झारखण्ड और छथ्त्तीसगढ़ में दो पत्रकारों की मौत हुई है। झारखण्ड में कथित क्राइम रिपोर्टर चंदन तिवारी को सोमवार की रात चतरा से अगवा कर लिया गया था। उनकी लाश कल बरामद हुई है। दूसरी तरफ चुनाव की कवरेज करने छत्तीसगढ़ गए सरकारी चैनल दूरदर्शन न्यूज़ के कैमरामैन अच्युतानंदन साहू की माओवादियों के साथ पुलिस की मुठभेड़ में हत्या हो गई। झारखण्ड की घटना में माओवादियों के एक धड़े तृतीय प्रस्तुति कमेटी (टीपीसी) का नाम खुलेआम लिया जा रहा है जबकि छत्तीसगढ़ में तो चूंकि माओवादियों की ही गोली साहू को लगी है तो वहां साहू को ‘शहीद’ करार दिया गया है।
सोशल मीडिया पर चल रहे ट्रेंड को देखें तो दोनों ही घटनाओं के बहाने एक बार फिर से अरबन नक्सल की थियरी को पुष्ट करने और नक्सलियों व उनसे सहानुभूति रखने वालों को समाप्त करने के साहसिक आह्वान किए जा रहे हैं। ध्यान रहे कि पिछले दिनों अरबन नक्सल कह कर पुणे पुलिस द्वारा पकड़े गए कुछ बुद्धिजीवियों को बाकायदे हिरासत में लेने के लिए सरकार को जो मशक्कत करनी पड़ी और न्यायपालिका के साथ उसका जो टकराव हुआ और पुलिस की भद्द पिटी, उसके बाद अपना मुंह छुपाने के लिए सरकार और पुलिस को किसी ऐसी घटना की बहुत शिद्दत से तलाश थी जिसके सहारे वह अपना पक्ष पुष्ट कर पाती।
झारखण्ड और छत्तीसगढ़ की दोनों घटनाओं ने अरबन नक्सल की थियरी गढ़ने वाली सरकारों को बहुत राहत दी है और एक बार फिर बेबस पत्रकारों की लाशों के कंधे पर बंदूक रखकर उनकी संगीनें नक्सलियों की ओर घुमाने की कवायद शुरू कर दी गई है।
दोनों घटनाओं को समझने के लिए कुछ तथ्यों पर गौर करना ज़रूरी है। पहला मामला छत्तीसगढ़ का लेते हैं जहां दो सिपाहियों के साथ दूरदर्शन के कैमरामैन अच्युतानंदन साहू मारे गए हैं। बताया गया है कि डीडी की टीम राज्य में चुनावी कवरेज के लिए गई हुई थी। इसका मतलब यह हुआ कि साहू की मौत ‘’लाइन ऑफ ड्यूटी’’ में हुई है। इसमें हालांकि एक पेंच है। डीआइजी सुदर राज पी. का बयान देखिए: ‘’यह हमला सुरक्षा बलों पर था और यह बदकिस्मती है कि डीडी न्यूज़ का कैमरामैन क्रॉसफायर की चपेट में आ गया। मीडियाकर्मी हमले का निशाना नहीं थे और इस हमले का चुनाव से कोई लेना देना नहीं है।‘’
छत्तीसगढ़ पुलिस घटनास्थल से छह या सात किलोमीटर दूर स्थित समेली सीआरपीएफ शिविर से गश्त पर निकली थी। सवाल उठता है कि गश्त पर निकली पुलिस टीम के साथ पत्रकार क्या कर रहे थे? पत्रकार यदि चुनाव कवर करने गए थे तो उन्हें पुलिस या सुरक्षाबलों के साथ क्यों होना चाहिए था? क्या वे पुलिस या सुरक्षाबलों की आड़ में या कहें उनके संरक्षण में रिपोर्टिंग कर रहे थे? अगर यह ‘एम्बेडेड’ यानी नत्थी रिपोर्टिंग का मामला है, तो फिर इसे ज्यादा से ज्यादा ‘’कोलेटरल डैमेज’’ कहा जा सकता है जबकि सूचना और प्रसारण मंत्री राज्यवर्द्धन सिंह राठौड़ सहित तमाम नेताओं आदि ने इसे ‘’माओवादियों का पत्रकारों पर सीधा हमला’’ करार दिया है और साहू को ‘’शहीद’’ बना दिया है।
Strongly condemn the Naxal attack on @DDNewsLive crew in Dantewada. Deeply saddened by the demise of our cameraman Achyuta Nanda Sahu and two jawans of @crpfindia.
These insurgents will NOT weaken our resolve. We WILL prevail.
— Col Rajyavardhan Rathore (Modi Ka Parivar) (@Ra_THORe) October 30, 2018
अब झारखण्ड का मामला लीजिए जहां स्थानीय अपराध संवाददाता चंदन तिवारी की लाश बरामद हुई है। तिवारी ने 6 अप्रैल 2018 को चतरा जिले के पत्थलगड़ा थाना के थाना प्रभारी को एक पत्र लिखकर अपनी जान को खतरा बताया था। जान को खतरा बरवाडीह के मुखियापति महेश डांगी से बताया गया था, जिसके खिलाफ तिवारी ने सोशल मीडिया पर (अपने अखबार नहीं) प्रधानमंत्री आवास और बकरी शेड में किए गए गबन के बारे में लिखा था। इसकी प्रतिक्रिया में मुखियापति ने फोन कर के उन्हें मारने पीटने की धमकी दी थी।
सवाल उठता है कि फिर इस मामले की रिपोर्टिंग में माओवादी कहां से आ गए, जैसा कि अखबार लिख रहे हैं? इंडियन एक्सप्रेस लिखता है कि चंदन के पिता और मजदूर नेता रघुबर तिवारी की शिकायत पर पुलिस ने टीपीसी के नेता प्रशांत के खिलाफ एफआइआर दर्ज की है जबकि चंदन की अप्रैल में थना प्रभारी को दी गई चिट्ठी में कहीं भी टीपीसी का जिक्र नहीं है।
चंदन ने जिस खबर के चलते अपने ऊपर हमले का अंदेशा जताया था वह उन्होंने फेसबुक पोस्ट के माध्यम से लिखी थी न कि किसी अखबार में। वह फेसबुक पोस्ट आज भी मौजूद है।
अभी यह साफ़ नहीं है कि चंदन तिवारी किस अखबार के कर्मचारी थे क्योंकि उनकी टाइमलाइन के मुताबिक वे ‘’दैनिक जागरण में आज दैनिक क्राइम रिपोर्टर’’ हैं जिसका अपने आप में कोई मतलब नहीं निकलता।
बहरहाल, यह मानते हुए कि फेसबुक पोस्ट से भ्रष्टाचार का उद्घाटन करने के बावजूद चंदन तिवारी किसी अखबार में कार्यरत एक श्रमजीवी पत्रकार थे और अच्युतानंदन साहू भी सरकारी प्रसारक के कर्मचारी व पूर्व सैनिक होने के बावजूद एक श्रमजीवी पत्रकार थे, इन दोनों की मौत की जिम्मेदारी सीधे-सीधे सरकार पर ही आती है चूंकि चंदन ने तो पहले ही ऐसा लिखकर धोषित कर दिया था और साहू को सुरक्षाबलों के साथ नत्थी करने में उनके नियोक्ता का ही हाथ माना जाएगा, जो कि राजकीय है।
इस तरह दोनों पत्रकारों की हत्या का सीधा दोष सरकारों और स्थानीय प्रशासन पर है न कि किसी तीसरे पर। बावजूद इसके ये दोनों मौतें नक्सल केंद्रित सरकारी नैरेटिव को ही मज़बूत करने का काम कर रही हैं, तो इसकी वजह यह है कि पत्रकारों की हत्या या उनके उत्पीड़न पर आवाज़ उठाने वाली एजेंसियों ने जमीनी हकीकत से आख मूंद रखी है और केवल औपचारिकता निभा रही हैं।
Editors Guild of India has issued a statement on the Dantewada Naxal attack that killed a Doordarshan camera person. You may also read the full statement here – https://t.co/xrPM0vb2jK pic.twitter.com/hXokcir85j
— Editors Guild of India (@IndEditorsGuild) October 30, 2018
मसलन, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने छत्तीसगढ़ में मारे गए दूरदर्शन के कैमरामैन पर बयान जारी करते हुए कानून अनुपालनक एजेंसियों से अनुरोध किया है कि वे चुनावी कवरेज की ड्यूटी पर गए मीडियाकर्मियों को समुचित सुरक्षा मुहैया करवाएं। ऐसा अनुरोध करने में वे एक बुनियादी बात से चूक गए हैं कि सरकारी संरक्षण में सुरक्षाबलों के साथ नत्थी होकर निष्पक्ष कवरेज करना कितना मुश्किल हो सकता है और इससे जान का खतरा कम नहीं बल्कि ज्यादा हो जाता है।
ज़रूरत इस बात की है कि स्वतंत्र चुनावी कवरेज को सुरक्षाबलों के पहरे से मुक्त किया जाए। एडिटर्स गिल्ड जैसी संस्था इसके ठीक उलटी गंगा बहा रही है।