हाथरस पीड़िता के मृत्युपूर्व बयान को झुठलाने के बीच बलात्कार क़ानून की याद

और यही राजनीति है। क्योंकि, प्रेस कांफ्रेंस नहीं करने वाली सरकार और सूत्रों की खबर छापने वाले मीडिया के बीच, कोरोना के संकट में शनिवार को जारी हुई इस खबर का शीर्षक टेलीग्राफ में इस प्रकार है, केंद्र का याद दिलाना और उत्तर प्रदेश सरकार का स्टैंड मेल नहीं खाता है। टेलीग्राफ की खबर की शुरुआत ही इस प्रकार है, केंद्रीय गृहमंत्रालय ने शनिवार को राज्य सरकारों को याद दिलाया है कि मृत्युपूर्ण बयान को जांच के दौरान प्रासंगिक तथ्य माना जाना है। यह बयान ऐसे समय में आया है जब उत्तर प्रदेश पुलिस पर यह आरोप है कि हाथरस की पीड़िता के मृत्युपूर्व बयान को झुठला रही है। यह मामला आधिकारिक तौर पर सीबीआई को शनिवार को सौंपा गया।

हाथरस मामले को लीपने-पोतने के लिए शनिवार को जब मीडिया और आईटी सेल ने नक्सली भाभी का नया बवाल खड़ा किया तो केंद्र सरकार ने राज्यों को एक महत्वपूर्ण सलाह दी है। सलाह तो सलाह है पर उसे देने का अंदाज और समय सब दिलचस्प है। और ऐसे में अखबारों में उसकी प्रस्तुति को समझना भी भाजपा की राजनीति को समझने का एंटायर पॉलिटकल साइंस है।

शिकायतकर्ता का नार्को टेस्ट कराने जैसी अमानवीय जरूरत एक निर्वाचित प्रतिनिधि बताए तो उसका राजनीतिक नफा-नुकसान उसका होता है लेकिन मामला बहुसंख्यकों से संबंधित हो तो बहुसंख्यकों की राजनीति करने वालों को कितने लोगों का नुकसान होगा उसे धर्म की राजनीति करने वाले अच्छी तरह समझते हैं। इसलिए, केंद्रीय गृहमंत्रालय ने सभी राज्यों से आग्रह किया है कि सभी संबंधित को सख्त अनुपालन का निर्देश दिया जाए।

हिन्दुस्तान टाइम्स में आज यह खबर लीड है। बलात्कार के कानून पर कार्रवाई के लिए केंद्र द्वारा राज्यों को कहने का मतलब आप समझ सकते हैं कि राज्य उत्तर प्रदेश है और अभी कहने का मतलब हाथरस है। लेकिन केंद्र अगर कुछ कहेगा तो सभी राज्यों से और यह खबर ऐसी ही है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने इसीलिए इसे इतनी प्रमुखता दी है। इसे ऐसे समझिए कि जो कहा गया उसका लाभ उत्तर प्रदेश में मिल गया और नुकसान की भरपाई के लिए आज की खबर है।

आईटी सेल के नेतृत्व में सरकार समर्थक पूछ रहे हैं कि राहुल गांधी राजस्थान क्यों नहीं जा रहे हैं। कल्पना कीजिए कि इस कानून की याद अगर किसी रैली में (टेलीविजन वाली भी) प्रधानमंत्री या गृहमंत्री ने दिलाई होती तो राज्य सरकार (रों) की कितनी किरकिरी होती। पर चूंकि राजस्थान में चुनाव नहीं है इसलिए रैली भी नहीं हो रही है और इस तरह आदेश निकाल कर काम चलाना पड़ रहा है। टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर पहले पन्ने पर है। शीर्षक है, गृहमंत्रालय ने कहा, मृत्युपूर्व बयान को खारिज नहीं किया जा सकता है। इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है।

और यही राजनीति है। क्योंकि, प्रेस कांफ्रेंस नहीं करने वाली सरकार और सूत्रों की खबर छापने वाले मीडिया के बीच, कोरोना के संकट में शनिवार को जारी हुई इस खबर का शीर्षक टेलीग्राफ में इस प्रकार है, केंद्र का याद दिलाना और उत्तर प्रदेश सरकार का स्टैंड मेल नहीं खाता है। टेलीग्राफ की खबर की शुरुआत ही इस प्रकार है, केंद्रीय गृहमंत्रालय ने शनिवार को राज्य सरकारों को याद दिलाया है कि मृत्युपूर्ण बयान को जांच के दौरान प्रासंगिक तथ्य माना जाना है। यह बयान ऐसे समय में आया है जब उत्तर प्रदेश पुलिस पर यह आरोप है कि हाथरस की पीड़िता के मृत्युपूर्व बयान को झुठला रही है। यह मामला आधिकारिक तौर पर सीबीआई को शनिवार को सौंपा गया।

पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री, पी चिदंबरम ने अपने साप्ताहिक कॉलम में आज इस मामले का जिक्र किया है और माफी : जिसका नाम उत्तर प्रदेश है, शीर्षक के तहत इस मामले से संबंधित मुख्य अधिकारियों के बयानों का उल्लेख किया है। ये बयान इस प्रकार हैं, (जनसत्ता में प्रकाशित कॉलम से कॉपी पेस्ट) :

इसमें, राज्य के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (कानून और व्यवस्था) के लिए यह सलाह भी है कि उन्हें आइपीसी की धारा 375 और इस विषय पर कानून पढ़ना चाहिए। इस साल मई में इस पद पर तैनात किए जाने से पहले मेरठ जोन के अपर पुलिस महानिदेशक (कानून और व्यवस्था) प्रशांत कुमार कांवड़ियों पर हेलीकॉप्टर से फूल बरसाने के महत्वपूर्ण काम में लगाए जा चुके थे।

भले ही यह सब अखबारों में वैसे नहीं छपा जैसे छपना चाहिए था, लेकिन हाथरस जाने से रोकने के नाम पर सांसदों को धक्का देने, गिरा देने और मारने तथा उसे एक वर्ग द्वारा नाटक कहे जाने के बावजूद जानने समझने वाले समझ रहे थे कि उत्तर प्रदेश में क्या हो रहा है। और कल का आदेश उसी नुकसान की भरपाई है और इसीलिए इसे इतनी प्रमुखता दी गई है। बाकी तो जो हाल है सो हईये है।

इस बारे में द हिन्दू में आज पहले पन्ने पर खबर है। केंद्र की सलाह पहले पन्ने पर नहीं है। पहले पन्ने पर टॉप में सात कॉलम का एक बॉक्स है। इसका शीर्षक बताता है कि हाथरस के गांव में जो सब हुआ उसके बाद पुलिस और मीडिया ने पीड़ित परिवार का जो हाल बनाया है उसपर यह खबर है। इसमें बताया गया है कि मुंह में माइक घुसा देने वाला मीडिया, बदलते नैरेटिव और सुरक्षा बलों की भारी मौजूदगी से जूझने के तरीके तलाश रहा है पीड़ित परिवार। इसमें बताया गया है कि परिवार के हर सदस्य के साथ दो लोग लगा दिए गए हैं। नतीजतन वे कहीं आ-जा नहीं सकते।

मीडिया के हर सवाल और जवाब का रिकार्ड रखा जा रहा है। एक सवाल का जवाब (स्पष्टीकरण) देने के लिए दो महिला पुलिस अधिकारियों ने पीड़िता के पिता से कहा। उनका कहना था, वे सुरक्षा से संतुष्ट हैं तथा कहीं और जाने की योजना नहीं है। बाकी लोगों के अलग होने पर वे बुदबुदाते हैं, क्या कहूं, हर शब्द का हिसाब रखा जा रहा है और उसका उपयोग हमारे खिलाफ हो सकता है। इस माहौल में सुरक्षा तो चाहिए, पर…


संजय कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार हैं और अनुवाद के क्षेत्र के कुछ सबसे अहम नामों में से हैं।

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