हत्यारे सिपाही ने मोदी-योगी का नाम लिया पर अखबारों ने नहीं बताया!

ऐसी रिपोर्टिंग संघ परिवार का भला भले करती हो देश का भला कैसे होगा?

 

द टेलीग्राफ की लीड का आज का शीर्षक तथ्य है। फिर भी किसी और अखबार के शीर्षक में है? क्यों? सरकार समर्थक अखबारों को तो बताना चाहिए कि उनके नेता की लोकप्रियता बढ़ रही है। पर किसी और ने नहीं बताया है। पता नहीं, आज ही योगी आदित्यनाथ का इंटरव्यू हेडलाइन मैनेजमेंट का हिस्सा है या कुछ और पर जब उनकी बातें प्रचारित की जा रही हैं तो इस ‘कामयाबी’ का प्रचार क्यों नहीं? शुरू में सोशल मीडिया पर हत्यारे को मानसिक रोगी कहा गया था। पर तब सवाल है कि मानसिक रोगी को आम जनता के बीच हथियार के साथ तैनात ही क्यों किया गया था। आज खबरों में नहीं है। लगता है बाकी लोगों को बचाने के लिए वो आईडिया वापस ले लिया गया और अब यह बलि का बकरा बनेगा। पर जब बलात्कारी बचाए जा सकते हैं तो जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। देखते रहिये। 

देश में भारतीय जनता पार्टी या संघ परिवार का शासन होने का असर और उससे संबंधित खबरें आज पहले पन्ने पर हैं और उसमें संभवतः हेडलाइन मैनेजमेंट के लिये योगी आदित्यनाथ का इंटरव्यू भी है। सबसे पहले इंडियन एक्सप्रेस का आज का पहला पन्ना। इसपर @sjacobtalk की अंग्रेजी की टिप्पणी का हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह होगा, इसमें नहीं बताया गया है कि हत्यारे ने प्रधानमंत्री और यूपी के सीएम के बारे में क्या कहा? कहा ना? अगर हां तो खबर नहीं है? इस बारे में सोशल मीडिया से पता चला। नहीं बताया गया है कि पीड़ितों को चुनकर मारा गया। इंडियन एक्सप्रेस की आज की इस खबर को पढ़कर आप कुछ नहीं जानेंगे। (इसलिए मैंने रहने दिया)। इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर लीड के नीचे योगी आदित्यनाथ का इंटरव्यू है। 

मैंने उसे पढ़ा है। बेशक, मुख्यमंत्री ने कहा है तो खबर है पर यह खबर उसने छापी है जो पत्रकारिता के लिए रामनाथ गोयनका के नाम पर पुरस्कार देता है। कहने की जरूरत नहीं है कि आज ज्यादातर अखबारों ने आरपीएफ के एक सिपाही चेतन सिंह द्वारा अपने अफसर टीकाराम मीणा और तीन अन्य रेल यात्रियों को मार दिये जाने की घटना की खास बातों को नहीं छापा गया है। भले हिन्दुस्तान टाइम्स ने शीर्षक में इसे हेट क्राइम कहा है। द हिन्दू ने मणिपुर मामले में सुप्रीम कोर्ट की खबर को लीड बनाया है और इस खबर को भले पहले पन्ने पर छापा है लेकिन शीर्षक बहुत सामान्य है और उससे नहीं लगता है कि यह हेट क्राइम है। शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होता, आरपीएफ के जवान ने सीनियर, तीन यात्रियों को ट्रेन में गोली मारी। इसमें महत्वपूर्ण बात है कि सीनियर का नाम टीकाराम था और मारे गए तीनों यात्री मुसलमान हैं। 

 

टाइम्स ऑफ इंडिया में भी यह खबर शीर्षक में नहीं बताती कि मामला हेट क्राइम का है और हत्यारे ने पाकिस्तान, मोदी और यूपी सीएम का नाम लिया। रिश्तेदार के हवाले से यह जरूर कहा गया है कि उसका मनोवैज्ञानिक इलाज चल रहा था। इस बिना पर उसे अदालती कार्रवाई से बचाने की कोशिश हो सकती है पर तब यह मुद्दा बनना चाहिए कि आम जनता के बीच उसकी तैनाती हथियार के साथ क्यों हुई। परिवार वालों ने अफसरों को बताया था या नहीं और बताया था तो अफसरों ने उसकी ड्यूटी ट्रेन में हथियार के साथ लगाई क्यों। टीओआई ने इस खबर को पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर लीड बनाया है और इसके पीछे परिवार वालों का बचाव भी है। मुझे लगता है कि इस खबर के साथ अफसरों की प्रतिक्रिया भी ली जानी चाहिए थी या इस दलील का कोई मतलब नहीं है। हालांकि बलात्कारी बचाये जा सकते हैं, मुंह पर पेशाब करने वाले का समर्थन हो सकता है तो कुछ भी हो सकता है।  

आज के अखबारों में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का इंटरव्यू प्रमुखता से छपा है। अमर उजाला में यह टॉप पर है। शीर्षक है, ज्ञानवापी को मस्जिद कहेंगे तो होगा विवाद, यह मुस्लिम समाज की ऐतिहासिक गलती …. वहां त्रिशूल हमने तो रखा नहीं : योगी। इसे पढ़कर मुझे याद आया कि बाबरी मस्जिद में राम लला की मूर्ति रख दी गई थी और यह कोई छिपा हुआ मामला नहीं है। सबको पता है। अभी आजतक की 2019 की खबर दिखी। इसमें भी पूरा विवरण है। पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने अपनी किताब ‘अयोध्याः 6 दिसंबर 1992’ में उस एफआईआर का ब्यौरा दिया है, जो 23 दिसंबर 1949 की सुबह लिखी गई थी। एसएचओ रामदेव दुबे ने भारतीय दंड संहिता की धारा 147/448/295 के तहत एफआईआर दर्ज की थी। उसमें घटना का जिक्र करते हुए लिखा गया था, “रात में 50-60 लोग ताला तोड़कर और दीवार फांदकर मस्जिद में घुस गए और वहां उन्होंने श्री रामचंद्रजी की मूर्ति की स्थापना की। उन्होंने दीवार पर अंदर और बाहर गेरू और पीले रंग से ‘सीताराम’ आदि भी लिखा। उस समय ड्यूटी पर तैनात कांस्टेबल ने उन्हें ऐसा करने से मना किया लेकिन उन्होंने उसकी बात नहीं सुनी। वहां तैनात पीएसी को भी बुलाया गया, लेकिन उस समय तक वे मंदिर में प्रवेश कर चुके थे।”

इसके बाद जो कुछ हुआ वह भी हम जानते हैं। ऐसे में मुझे लगता है कि यह इंटरव्यू अभी के समय में इतनी प्रमुखता पाने लायक नहीं है। यह अलग बात है कि मुख्यमंत्री का इंटरव्यू होगा ही और वे अपनी बात रखेंगे ही। इंटरव्यू करने वाले को देखना है कि वे राजनीतिज्ञ भी हैं और उन्हें चुनाव भी लड़ना है (और चुनाव करीब हैं)। अखबार (और संपादक) अगर उनका प्रचार नहीं कर रहा है तो उसे सोचना चाहिए कि इसमें जनहित क्या है और कितना है। प्लेसमेंट उसी हिसाब से तय किया जा सकता है। या फिर इंटरव्यू में से ऐसा शीर्षक ढूंढ़ा जा सकता है जो प्लेसमेंट भी तय कर दे। पत्रकारिता करते हुए हमलोग यह सब सीखते-करते रहे हैं। पर जो दावा किया जाए और जिसे हम प्रमुखता दें उसका आधार भी तो होना चाहिए। मुझे त्रिशूल के मामले में वास्तविकता नहीं मालूम है लेकिन आगे चलकर यह सवाल सूचना के रूप में कैसे बदलेगा इसका अंदाजा है। और बाबरी मस्जिद मामले में हमने देखा है। भाजपा को इससे लाभ है तो वह ऐसे मुद्दे उठाएगी ही। पर मीडिया? बाबरी मस्जिद की कहानी मालूम होने के बावजूद ना तो इस दावे का मतलब है ना जवाब जरूरी। 

यह उल्लेखनीय है कि बाबरी मस्जिद विवाद के दिनों में तब की सरकार (पीवी नरसिंहराव की) ने प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट 1991 बनाया था। इस कानून के तहत 15 अगस्‍त 1947 से पहले मौजूद किसी भी धर्म की उपासना स्‍थल को किसी दूसरे धर्म के उपासना स्‍थल में नहीं बदला जा सकता। इस कानून में कहा गया कि अगर कोई ऐसा करता है तो उसे जेल भेजा जा सकता है। इसके बावजूद ज्ञानव्यापी का विवाद चल रहा है तो कानूनन भले सही हो पत्रकार को राजनीतिक दलों की कोशिश भी समझनी चाहिये। मुख्यमंत्री को अपनी बात कहने देने के लिए एएनआई उनका इंटरव्यू कर रहा जिसे पीटीआई और यूएनआई की कीमत पर महत्व दिया जा रहा है और पत्रकारिता का पुरस्कार देने वाले इंडियन एक्सप्रेस ने भी इसे पहले पन्ने पर छापा है। वहां शीर्षक है, मुसलमानों को इतिहास की गलती स्वीकार करनी चाहिए, समाधान की पेशकश करनी चाहिए। आप समझ सकते हैं कि अपेक्षा क्या है। खास कर बाबरी मस्जिद मामले के सुलझने औॅर प्लेसेज ऑफ वर्शिप ऐक्ट 1991के बावजूद। जब यह मामला अदालत में है और सरकार भी अपनी बात अदालत में रख सकती है।  

दूसरी ओर आप देख रहे हैं कि नेताओं के कारण व्यक्ति धर्म विशेष के लोगों से दुश्मनी करने लगा है। तीन लोगों को सरकारी हथियार से मार दिया। परिवार वाले तो उसका बचाव कर ही रहे हैं, अखबार पूरी बात नहीं बता रहे हैं और मामले को छिपाने में लगे हैं जबकि तथ्य सोशल मीडिया के कारण जगजाहिर है। सोशल मीडिया से सरकार की परेशानी और उसे कसने की कोशिशें छिपी हुई नहीं हैं। सरकार और सरकार समर्थकों द्वारा उसके दुरुपयोग के भी उदाहरण हैं। ऐसे में मीडिया अगर सरकार के गलत कामों का साथ देगा तो खूब विज्ञापन पायेगा और बदले में काम करेगा। देश में यही हो रहा है और सरकारी प्रचार से लोगों का दिमाग तो खराब हो ही रहा है (कई उदाहरण हैं) और सरकार है कि उसे लोगों की मौत से कोई लेना-देना नहीं है और यह सुप्रीम कोर्ट के उदाहरण से साफ है। 

हिन्दी अखबारों, अमर उजाला में यह पहले पन्ने पर दो कॉलम की सामान्य सी खबर है। मुख्य शीर्षक है, ट्रेन में सिपाही ने एएसआई समेरत 4 को गोली मारी, मौत। उपशीर्षक में बताया गया है कि ट्रेन जयपुर से मुंबई जा रही थी और आरोपी चेतन गिरफ्तार कर लिया गया है। आज कोर्ट में पेशी है। नवोदय टाइम्स में भी यह सामान्य खबर की तरह है। दो कॉलम में छपी इस खबर का शीर्षक है, जवान ने चलती ट्रेन में 4 लोगों की हत्या की। जिन अखबारों ने यह नहीं बताया है कि सरकारी ड्यूटी पर सरकारी हथियार से हत्या करने वाले ने मोदी, योगी का नाम लिया उनने योगी का यह कहा प्रमुखता से छापा है कि ज्ञानव्यापी को मस्जिद कहने पर विवाद होगा और यह भी कि त्रिशूल हमने तो रखा नहीं जबकि 1949 में राम लल्ला की मूर्ति रखने से शुरू हुआ विवाद अब खत्म हुआ है और वह भी कैसे सो सब को पता है। 

नामुमकिन मुमकिन होने की खबर आज सुप्रीम कोर्ट से है। हालांकि, यह सभी अखबारों में प्रमुखता से छपी है। सुषमा स्वराज की बेटी की दलील (अगर वह भाजपाई नहीं है) और मुख्य न्यायाधीश का जवाब बताता है कि भाजपाई परिवारों में बच्चों का मानसिक विकास कैसे होता है। निश्चित रूप से यह एक उदाहरण है जो अच्छे शिक्षा संस्था में पढ़ने के बाद भी रह गया है। मैंने कल ही पढ़ लिया था। इसलिए अखबारों में नहीं देख पाया लेकिन मुझे लगता है कि उसे प्रमुखता से होना चाहिए था। कम से कम टाइम्स ऑफ इंडिया में तो है। हरियाणा में सांप्रदायिक तनाव की खबर भी आज महत्वपूर्ण है। भाजपा का दावा रहता है कि वह सत्ता में होती है तो दंगे नहीं होते हैं। पर बरेली में दंगा टल गया तो अफसर का तबादला हो गया और नूंह में दंगा हो ही गया। डबल इंजन सरकार के बाद भी। नवोदय टाइम्स में यह खबर लीड है और अमर उजाला में टॉप पर। अमर उजाला का शीर्षक है, शोभायात्रा पर पथराव के बाद बवाल, दो होमगार्डों की मौत। नवोदय टाइम्स में शीर्षक है, नूंह में धार्मिक यात्रा पर पथराव।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।  

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