आज राजेन्द्र माथुर और रघुवीर सहाय ज़िंदा होते तो भूखे मरते!

कुछ साल पहले एक बड़े पत्रकार साहब ने एक बार करीब चार सौ पेज की डिमाई आकार की अपनी एक किताब हमें सहर्ष भेंट की। हमने भी खुशी-खुशी स्वीकार कर ली। उसे घर लाए। कुछ दिनों में उसमें से जो-जो हमारे लिए जानकारीपरक हो सकता था-पढ़ा। अगली मुलाकात में हमने उनसे कहा कि अच्छी परिचयात्मक पुस्तक है मगर इसमें फलां अंतर्विरोध बहुत स्पष्ट हैंं। वह भौंचक हमारा मुँह देखने लगे, इसलिए नहीं कि हमने क्यों उनकी आलोचना करने की जुर्रत की। वह हमारी तरफ भौंचक होकर शायद देख इसलिए रहे थे कि उन्होंने खुद अपनी किताब पढ़ी नहीं थी, इसलिए उनके पास इसका कोई जवाब नहीं था। हमने टापिक बदला और बात दूसरी शुरू की। उनका खोया हुआ आत्मविश्वास लौटा।

अब इसका अर्थ आप जो भी लगाना चाहें, लगाएँँ मगर आप मुझसे यह न कहलवाएँ कि वह किताब हालांकि उनके नाम से छपी थी मगर उन्होंने लिखी नहीं थी और पढ़ी भी नहीं थी। सच मुझे वाकई नहीं मालूम। मैं भी अनुमान लगा सकता हूँ आपकी तरह। इतना अवश्य है कि दो लेख जो उन्होंने हमसे कभी लिखवाए थे, उन्हें अपना समझकर-मानकर अपनी किताब में शामिल कर लिया था। उनकी उदारता देखिए कि हमें वह किताब उन्होंने भेंट में भी की।

इस मामले पर हम चुप रहे मगर हमारे एक पुराने साथी पत्रकार ने वह पुस्तक पढ़ी थी। उनकी स्मृति अच्छी है। उन्हें याद था कि ये लेख हमारे हैं। उन्होंने हमें फोन किया और बताया कि ऐसा है तो हमने कहा कि हमें यह बात शुरू से मालूम है पर चुप रहना हमने श्रेष्ठ समझा। उन्होंने लिखवाए तो ही तो ये लेख लिखे गए, न लिखवाते तो भी तो उन्हें कुछ जुगाड़ करना पड़ता! वैसे हमारे उन मित्र ने उन बड़े पत्रकार साहब के मुँह पर यह बात कह भी दी कि ये लेख तो आपके लिखे हैं नहीं। बड़े पत्रकार साहब ने कुछ गोलमोल सा जवाब दिया। मैंने ये लेख अब उनके नाम कर दिए हैं। वैसे भी इतना अधिक हमने लिख मारा है कि वे दो लेख, दो मुट्ठी आटे के बराबर दिया दान है। उस दान से वाकई हिंदी पत्रकारिता का विकास होता हो तो हो जाए और न होता हो तो हमारी बला से!

दो स्वर्गीय पत्रकार ऐसे हैं, जो बड़े संस्थान में बड़े पदों पर रहे।एक को लगा कि अब राजनीतिक माहौल बदल चुका है, उनके पक्ष में नहीं है और अब उनकी कुर्सी की रक्षा राजनीति के एक बड़ी हस्ती पर किताब लिखकर ही हो सकेगी, जिनका बड़ा योगदान इस सत्ता परिवर्तन में है। तो वे अपने एक मातहत के पीछे पड़ गए, जिसके लिए इस तरह की किताब लिखना प्रायः असंभव था। वह योग्य हैं मगर व्यावसायिक लेखन के लिए परम अयोग्य हैं। संयोग था कि उनके ये मातहत अपने बास के घर से कुछ किलोमीटर दूर ही रहते थे। वह रोज सुबह- सुबह उनके घर पहुंच जाएँ। उन बड़े पत्रकार के इस दृढ़ संकल्प का ऐसा असर हुआ कि वह जो शख्स ऐसी किताब लिखकर दे ही नहीं सकता था, उसने लिखकर दी। एक और बड़े पत्रकार ने अपने एक मातहत से एक बड़े कलाकार के बारे में किताब लिखवा ली और अपने नाम से छपवा ली।

तो हिंदी पत्रकारिता हमेशा से पत्रकारिता के पथ पर अग्रसर ही रही है और अब तो खैर इतनी अधिक अग्रसर हो चुकी है कि 95 प्रतिशत संपादक या तो लिखना जानते नहीं या उनका लिखा पढ़ने के काबिल न आज है, न कल रहेगा। हमारे एक संपादक हुआ करते थे। बातों के धनी। इंजीनियरिंग के स्नातक। दुनिया की हर बात को मोड़कर इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग पर ले आएँ और दनादन ज्ञान पिलाएँ। पता नहीं क्या सोचकर इस पेशे में आ गए थे। होते- होते संपादक बन गए थे। एक विद्वान संपादक ने हम विशेष संवाददाताओं की बैठक बुलाई। संयोग से शिवरात्रि से एक दिन पहले यह बैठक बुलाई गई थी। उनके दिमाग में शिवरात्रि घूम रही थी। उन्होंने हमसे कहा कि शिवरात्रि की कवरेज अच्छी होनी चाहिए। उन्हें यह बुनियादी अंतर मालूम नहीं था कि यह काम स्थानीय संवाददाताओं का होता है। विशेष संवाददाता राष्ट्रीय राजनीतिक दलों, केंद्रीय मंत्रालयों, संसद की कवरेज आदि का काम किया करते हैं। जब मैंने कहा कि महोदय यह हमारा काम नहीं, रिपोर्टर का है तो खिसियाकर उन्होंने कहा- ‘मैं तो यूँ ही कह रहा था’।

बजट का दिन था। हमारे एक साथी बजट का मुख्य समाचार लिख रहे थे, बाकी हम छोटे समाचार। वह नये-नये ही संपादक बने थे। आए न्यूज ब्यूरो की ओर। मुख्य खबर लिखनेवाले साथी के पास गये। पूछा पहला पैरा(इंट्रो) क्या लिख रहे हैं? वह जो लिख रहे थे बता दिया। कहने लगे यह ठीक नहीं है। तब हमारे साथी ने कहा कि तब आप ही लिखवा दीजिए। उन्होंने बोलकर लिखवाना शुरू किया। वाक्य रचना का ठिकाना नहीं। इंट्रो लिखवा चुके तो हमसे रहा नहीं गया। कहा कि संपादक जी आपका तो पहले पैरेग्राफ में ही अंतर्विरोध है। तब वह बोले हमारे साथी से- ‘अच्छा-अच्छा आप ही लिखिए’। वह स्वयं भी कभी संवाददाता रह चुके थे मगर बतौर संपादक विदेश गए तो वहाँ से खबर लिखकर नहीं, कुछ मुख्य बिंदु लिखकर भेज देते थे और बाकी काम हिंदी न्यूज एजेंसी की कापी से संपन्न होता था और वह खबर उनके नाम से छपती थी।

किस्से और भी हैं। चावल पका या नहीं, उसके दो दानों से सुघड़ गृहणियाँ जान लेती हैं। आप भी उस भूमिका को अपनाकर हिंदी पत्रकारिता की दशा और दिशा जान सकते हैं, जो इस तरह के शीर्षक की कोई पुस्तक छपी हो तो उससे कतई नहीं जान पाएँगे।

और अच्छा ही हुआ कि आज राजेन्द्र माथुर और रघुवीर सहाय जैसे संपादक नहीं हैं, होते तो भूखे मरते। मालिकों को आज चाहिए भी ऐसे संपादक जिनके मौजूदा सत्ता के साथ अच्छे समीकरण हों या जो बना सकने की क्षमता रखते हों, जो विज्ञापन दिलाएं, बिजनेस दिलाएँ। मालिकों को माथुर साहब या रघुवीर जी चाहिए भी नहीं। हाँ इन जैसे तो नहीं मगर तमीजदार, पढ़े-लिखे और अभ्रष्ट एक-दो अपवाद मेरी नजर में आज भी हैं और एक-दो ही शायद आपकी नजर में भी हों, जो आज कार्यरत हैं मगर अभी शीर्ष से दूर हैं और इसमें ही उनका भला है। वे अपनी बात अखबार में तो शायद कह भी न पाते हों मगर सोशल मीडिया पर कहते हैं और जमकर कहते हैं।


मीडिया विजिल पर प्रसिद्ध कवि और पत्रकार विष्णु नागर की यह टिप्पणी 5 जुलाई 2019 को छपी थी। हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई, 2021) पर हम इसे आभार सहित पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं।

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