प्रधानमंत्री ने कहा, “हर कदम जीवन बेहतर करने की चाहत से निर्देशित है” तो नोटबंदी क्या थी?

मनीष सिसोदिया को जमानत नहीं मिली, दलील को मान लिया जाए तो

कल को पूरी सरकार और पार्टी संगठन को बंद किया जा सकता है

 

आज के अखबारों में दो खबरें प्रमुखता से हैं। पहले उनकी बात कर लूं। सबसे पहले मणिपुर का मामला। इंडियन एक्सप्रेस और द टेलीग्राफ को छोड़कर मेरे पांच अखबारों में आज मणिपुर की खबर लीड है। इन दोनों अखबारों ने पहलवानों की खबर को लीड बनाया है। मणिपुर की खबर सेकेंड लीड है इंडियन एक्सप्रेस ने सरकारी पक्ष छापा है तो द टेलीग्राफ ने बताया है कि मुख्यमंत्री ने क्या कहा था और सेना प्रमुख ने जो कहा वह परस्पर विरोधी है और लोग कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री को ऐसा नहीं कहना चाहिए था। सबसे पहले शीर्षक देख लीजिये आधी बात तो इसी से समझ में आ जाएगी। 

  1. गृहमंत्री बोले, “मणिपुर में शांति सर्वोच्च प्राथमिकता”। दो बुलेट प्वाइंट इंट्रो हैं। इनमें पहला, मेइती व कुकी समूहों से की बात, स्थिति सामान्य करने के लिए करेंगे काम और दूसरा है, दंगा पीड़ितों के लिए मुआवजे का एलान। (नवोदय टाइम्स)    
  2. मणिपुर हिंसा के बीच (अमित) शाह कुकी, मेइती समूहों से मिले (हिन्दुस्तान टाइम्स) 
  3. अमित शाह ने मणिपुर में 15 दिन की शांति की अपील की। उपशीर्षक है, चुरचंदपुर जिले में गृहमंत्री ने कुकी नागरिक समाज समूह से मुलाकात की; राज्य में हिंसा की जांच के लिए केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज के नेतृत्व में एक न्यायिक आयोग बना सकती है। (द हिन्दू) 
  4. मणिपुर में हिन्सा कम हुई तो अमित शाह ने 9 शांति बैठकें कीं, मेइती और कुकी समूहों से संबंध साधा। अपनी इस खबर के साथ अखबार ने सेना प्रमुख (सीडीएस) की टिप्पणी को भी स्थान दिया है। इसकी चर्चा द टेलीग्राफ के शीर्षक में है। एक और खबर में बताया गया है कि 13 मेइती खेल दिग्गजों ने कहा है कि केंद्र अगर मणिपुर की एकता और अखंडता को सुरक्षित रखने में नाकाम रहा तो वे सरकारी (अर्जुन और पद्म) पुरस्कारों को वापस कर देंगे। (टाइम्स ऑफ इंडिया) 
  5. अमित शाह ने मणिपुर के समूहों से 15 दिन शांति रखने, वार्ता करने की अपील की। इस खबर का इंट्रो है, आदिवासी नेता राष्ट्रपति शासन, अलग प्रशासन चाहते हैं। (इंडियन एक्सप्रेस) 
  6. सेना प्रमुख ने हिंसा पर मुख्यमंत्री की दलीलों का खंडन किया (द टेलीग्राफ) 

इंडियन एक्सप्रेस और द टेलीग्राफ ने पहलवानों के मामले को लीड बनाया है। इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होता, ओलंपिक की अंतरराष्ट्रीय संस्था ने कदम रखा: बेहद परेशान करने वाला, खिलाड़ियों की रक्षा कीजिये। लगभग यही बात द टेलीग्राफ ने अपने शीर्षक में कही है। हालांकि यहां मुख्य शीर्षक है, “सम्मान के लिए मेडल संघर्ष में”। फ्लैग शीर्षक है, पहलवानों को मेडल प्रवाहित करना टालने के लिए मनाया गया, सरकार से कार्रवाई करने की अपील। टेलीग्राफ ने आज प्रदर्शनकारी पहलवानों के संयुक्त बयान को अपना कोट बनाया है, अब हमें ये पदक नहीं चाहिए क्योंकि क्योंकि इन्हें पहनाकर हमें मुखौटा बनाकर यह तंत्र सिर्फ अपना प्रचार करता है और फिर हमारा शोषण करता है। अगर हम इस शोषण के खिलाफ बोलें तो हमें जेल  भेजने की तैयारी कर लेता है।’’

इससे पहले, हरिद्वार के एसएसपी ने कहा था, “हम उन्हें नहीं रोकेंगे”। अजय सिंह ने कहा कि लोग गंगा में सोना, “चांदी और अस्थियां विसर्जित करते हैं और पहलवान चाहें तो अपने पदक विसर्जित कर सकते हैं”। उन्होंने कहा था, “गंगा दशहरा के अवसर पर मंगलवार को गंगा में डुबकी लगाने के लिए 15 लाख तीर्थयात्री हरिद्वार आ रहे हैं और पहलवान भी आने के लिए स्वतंत्र हैं”। एक खबर के अनुसार, हरिद्वार के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक अजय सिंह ने कहा, “पहलवान कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं। अगर वे अपने पदक पवित्र गंगा में विसर्जित करने आ रहे हैं तो हम उन्हें नहीं रोकेंगे। न ही मुझे अपने वरिष्ठ अधिकारियों से ऐसा कोई निर्देश मिला है।”

द टेलीग्राफ ने आज लिखा है, सेना प्रमुख जनरल अनिल चौहान ने मंगलवार को कहा कि मणिपुर का स्थिति का ‘उग्रवाद से संबंध नहीं’ है और यह मुख्यरूप से दो जातियों के बीच टकराव है। यह भाजपाई मुख्यमंत्री एन बिरेन सिंह की बातों का खंडन करता लगता है। मुख्यमंत्री ने ने रविवार को कहा था कि ताजा संघर्ष प्रतिद्वंद्वी समुदायों के बीच नहीं, बल्कि कुकी उग्रवादियों और सुरक्षा बलों के बीच है, जिन्होंने घरों में आग लगाने और नागरिकों पर गोलीबारी करने वाले करीब 40 सशस्त्र विद्रोहियों को मार गिराया था। दूसरी और चौहान ने पुणे में संवाददाताओं से कहा, “दुर्भाग्य से, मणिपुर में इस विशेष स्थिति का उग्रवाद से कोई लेना-देना नहीं है और यह मुख्य रूप से दो जातियों के बीच संघर्ष है।”

“यह एक कानून-व्यवस्था की स्थिति है और हम राज्य सरकार की मदद कर रहे हैं। हमने बेहतरीन काम किया है और बड़ी संख्या में लोगों की जान बचाई है। मणिपुर में चुनौतियां खत्म नहीं हुई हैं और इसमें कुछ समय लगेगा लेकिन उम्मीद है कि उन्हें व्यवस्थित होना चाहिए। सैन्य दिग्गज सुशांत सिंह ने एक ट्वीट में कहा: “मणिपुर के मुख्यमंत्री ने उन्हें आतंकवादी कहा है। सीडीएस के अनुसार, मणिपुर के मुख्यमंत्री गलत हैं। तो क्या केंद्र सरकार में कोई निरंतरता है या हमारे शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व में  किसी भी तरह की समझ पूरी तरह खत्म हो गई है? इंटेलिजेंस ब्यूरो के एक पूर्व संयुक्त निदेशक ने द टेलीग्राफ को बताया कि मुख्यमंत्री की टिप्पणी अनावश्यक थी और ऐसा लगता है कि सभी कुकी को आतंकवादी के रूप में बदनाम किया गया है।

“यह और कुछ नहीं बल्कि एक समुदाय को बदनाम करना है और मैतेई लोगों की कहानी को बल देना है जो कुकियों को अवैध अप्रवासी कहते रहे हैं। जातीय हिंसा के बीच जल रहे राज्य के मुख्यमंत्री से इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती।” इसे कर्नाटक चुनाव प्रचार के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के इस दावे से जोड़कर देखिये कि, “कांग्रेस सत्ता में आई तो कर्नाटक में दंगे होंगे”। देखिये, किसी अखबार या चैनल ने पूछा है कि मणिपुर में क्या हो रहा है और क्यों हो रहा। यही नहीं, पहलवानों का मामला आप जानते हैं। उन्होंने भाजपा सांसद पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं हो रही है और पहलवानों को धरना स्थल से जबरन उठा दिया गया। सरकार ने इसपर अभी तक आधिकारिक तौर पर कुछ नहीं कहा है। ऐसे में दिल्ली का एक मंत्री मनीष सिसोदिया भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में है। वैसे तो किसी मंत्री के जेल में होने का आम आदमी पार्टी का अनूठा मामला है और उन्हें जमानत नहीं मिलना आश्चर्यजनक। आज हिन्दुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर छपी एक खबर के अनुसार, हाईकोर्ट ने सिसोदिया की जमानत की अर्जी खारिज कर दी : सीबीआई के इस डर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि वे गवाहों को प्रभावित कर सकते हैं। मैं पूरे मामले को नहीं जानता, कानून मेरा विषय नहीं है और मैंने फैसले या आदेश को पढ़ा भी नहीं है। लेकिन शीर्षक से यह स्पष्ट है कि एक मंत्री को जमानत पर इसलिए नहीं छोड़ा गया है कि वह बाहर रहकर गवाहों को प्रभावित कर सकता है। 

मैं कानून का जानकार नहीं हूं पर यह नहीं समझ पा रहा हूं कि मनीष सिसोदिया को सरकारी काम में रिश्वत लेने के लिए गिरफ्तार किया गया है और वह निश्चित रूप से उनकी सरकार या पार्टी के लिए लिया गया होगा (अगर वाकई लिया गया है)। 100 करोड़ रुपए की राशि रिश्वत के रूप में कोई मंत्री अकेले नहीं लेगा और जाहिर है उसका बंटवारा होना होगा। इतनी बड़ी राशि यूं ही ली गई होती तो इसका कुछ अंश बरामद हो गया होता। इसलिए अगर रिश्वत ली गई है और कुछ बरामद नहीं हुआ है तो निश्चित रूप से खेल बड़ा है और अकेले मनीष सिसोदिया का नहीं हो सकता है। ऐसे में उनकी पूरी पार्टी, उनके मेनटॉर, उनके मुख्यमंत्री सब बाहर हैं, क्या वे गवाहों को प्रभावित नहीं कर सकते हैं। क्या उनके खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए या उन्हें भी बंद कर दिया जाना चाहिए। मोटे तौर पर मुझे लगता है कि अगर मनीष सिसोदिया के मामले में इस दलील को मान लिया जाए तो कल को पूरी सरकार और पार्टी संगठन को बंद किया जा सकता है या उसका आधार बनाया जा सकता है और मांग की जा सकती है। यह इसलिए भी संभव है कि पिछले नौ साल में सीबीआई के काम की कोई सरकारी समीक्षा हुई हो – ऐसा सुनने में नहीं आया। वह विपक्षी दलों के नेताओं से निपटने के ही काम आती है। 

आज यह सवाल इसलिए कि सामान्य रिवाज रहा है कि प्रभावशाली व्यक्ति पद पर हो तो उसके खिलाफ निष्पक्ष जांच मुश्किल होगी। इसलिए वह स्वयं इस्तीफा दे देता था या ले लिया जाता था। भारतीय जनता पार्टी की सरकार में ऐसा नहीं होता है पर कानूनी स्थिति क्या है? मुझे केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे का मामला याद आता है जब बार-बार मांग करने के बावजूद अभियुक्त के पिता को पद से नहीं हटाया गया और गवाहों को प्रभावित करने का आरोप लगता रहा। अलग पार्टी के लोगों के लिए अलग नियम तो नहीं होना चाहिए। अगर आम आदमी पार्टी का मंत्री अपने लिए गवाहों को प्रभावित कर सकता है तो क्या भारतीय जनता पार्टी का मंत्री बेटे के लिए नहीं करेगा? कानून क्या है मैं नहीं जानता। सरकारी वकील की दलील और उसका स्टैंड भी मुझे पता नहीं है पर वहां पद से नहीं हटाना या मंत्री को जमानत भी नहीं मिलना जबकि आरोपों में दम नहीं होने की बात कही जाती है। दूसरी ओर, केंद्रीय मंत्री के बेटे के मामले में आरोप गंभीर थे, गवाह भी थे जो मामूली लोग थे। दिल्ली के मंत्री के मामले में गवाह आम लोग नहीं होंगे। 

यहां अदालत से राहत का एक और मामला उल्लेखनीय है जो सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के कृपापात्र को ही मिला है। मामला यह है कि दिल्ली के उपराज्यपाल, वीके सक्सेना के खिलाफ मारपीट का एक मामला 2002 से लंबित है। इस मामले में वीके सक्सेना के साथ तीन और लोग आरोपी हैं। गुजरात हाईकोर्ट ने वीके सक्सेना के खिलाफ क्रिमिनल ट्रायल पर रोक लगा दी है। ऐसे में अन्य तीन आरोपियों के खिलाफ क्रिमिनल ट्रायल जारी रहेगा। गुजरात हाईकोर्ट ने वीके सक्सेना के दिल्ली का उपराज्यपाल पद पर रहने तक उनके खिलाफ क्रिमिनल ट्रायल पर रोक का आदेश दिया है। वीके सक्सेना ने अहमदाबाद की अदालत में अपील कर दिल्ली के एलजी पद पर रहने तक क्रिमिनल ट्रायल से छूट की मांग की थी। तब उन्हें राहत नहीं मिली थी। बाद में वीके सक्सेना ने गुजरात हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया जहां उन्हें दिल्ली के उपराज्यपाल के पद पर रहने तक के लिए क्रिमिनल ट्रायल से राहत मिल गई है। यहां मुद्दा यह भी है कि मारपीट के एक अभियुक्त को एलजी के संवैधानिक पद पर बैठाना कहां तक उचित है और सरकार तथा देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल के पास कोई दूसरा उपयुक्त पात्र नहीं था तो मामले की सुनवाई जल्दी हो जाए, बरी हो जाएं या सजा हो जाए तो अपात्र को संवैधानिक पद पर बैठाने की गलती से बचने की व्यवस्था क्यों नहीं की जानी चाहिए थी? 

वैसे भी, यह सब भले ही व्यक्ति विशेष के लिए होता लेकिन व्यवस्था सुधरती तो आम लोगों को भी फायदा होता। पर वह सब नहीं करके जब मामला 20 साल से लटका हुआ है तो उसे निपटाने की बजाय राज्यपाल रहने तक राहत से फैसला होने में और देरी होगी। और पुरानी कहावत है देर से न्याय मिलना नहीं मिलना है। लेकिन दिल्ली में मंत्री दूसरी पार्टी का है तो उसके पद पर रहने की चिन्ता नहीं की गई। जनहित के उसके काम का मतलब नहीं रहा (भले अदालत के ध्यान में नहीं लाए गए हों सलिए) लेकिन एक अभियुक्त को अदालत से राहत मिल गई क्योंकि वह संवैधानिक पद पर है और हम जानते हैं कि वह निर्वाचित सरकार या मुख्यमंत्री को काम नहीं करने दे रहा है। निश्चित रूप से यह सब हाईकोर्ट के फैसले से संबंधित नहीं है लेकिन सत्तारूढ़ दल की राजनीति और कार्यशैली तो बता ही रही है और जनसेवा करने वाले को मंत्री को जेल और मारपीट करने के आरोपी अपने कार्यकर्ता को एलजी का पद। कुल मिलाकर, आरोपी को संवैधानिक पद देना वैसे ही अनुचित है और उसे अदालत से ऐसी छूट मिल गई जो आम आदमी मांग भी नहीं सकता है। 

ऐसी सरकार के मुखिया का यह बयान भी आज फोटो के साथ टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर है, “सरकार की नौवीं सालगिरह पर प्रधानमंत्री ने कहा, हरेक कदम जीवन बेहतर करने की चाहत से निर्देशित है”। मेरी चिन्ता का विषय प्रधानमंत्री का यह बयान नहीं है। मेरी चिन्ता इसका पहले पन्ने पर छपना है। किसी और सवाल के बिना, किसी और टिप्पणी के बिना। अगर आपको लगता है कि सरकार के इस दावे पर कोई सवाल है ही नहीं तो एक मैं ही बता देता हूं जो इस मौके पर पूछा जाना चाहिए था। और वह है 2000 रुपए के नोट को भारतीय रिजर्व बैंक की तथाकथित क्लीन नोट पॉलिसी के तहत वापस लिए जाने का दावा। आप जानते हैं कि 2000 के 2016 में नोटबंदी के बाद आए थे तथा रिजर्व बैंक ने कहा है कि साफ नोट ही प्रचलन में रखने के अपने नियम के कारण उन्हें वापस लिया जा रहा है क्योंकि उनकी मियाद निकल चुकी है। आप जानते हैं कि नोट चलते रहेंगे और बदलने की अंतिम तारीख के बाद क्या होगा यह अभी पता नहीं है और बताया नही गया है। क्या आपको इससे जनहित या जीवन बेहतर करने का कोई तरीका समझ में आता है? जाहिर है, प्रधानमंत्री ने जो कहा या दावा किया उसका कोई मतलब नहीं है और उनके तमाम झूठे दावों की गिनती बढ़ाता है। फिर ऐसी खबर को पहले पन्ने पर छापने का मतलब? अखबार ने इसके साथ भाजपा की चुनावी तैयारियों का विवरण भी दिया है जो सच भी हो तो सरकार के काम से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

 

First Published on:
Exit mobile version