आज पहले तेज बहादुर। हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर सिंगल कॉलम की छोटी सी खबर है, सुप्रीम कोर्ट ने तेज बहादुर की याचिका खारिज की। खबर अंदर पेज 10 पर है उसे बाद में देखूंगा पहले देखता हूं कि इतनी सी यह खबर भी किस अखबार में पहले पन्ने पर है। छोटी सी होगी तो छूट भी सकती है पर मुद्दा वह नहीं है। मुद्दा तेज बहादुर का पूरा मामला है जिसे मेरे हिसाब से वह महत्व नहीं मिला जो मिलना चाहिए था और आज की खबरों से भले लग रहा है कि इसमें अब कुछ नहीं बचा और तेज बहादुर के दावे (या आरोप में) दम नहीं है पर असल में ऐसा नहीं है। मेरा मानना है कि नरेन्द्र मोदी अगर फिर से प्रधानमंत्री बन गए तो तेज बहादुर नए जमाने का राजनारायण बन सकता है और यह देश की राजनीति बदलने वाला मामला होगा। आइए देखें कैसे?
अमर उजाला में यह खबर पहले पन्ने पर तेज बहादुर की तस्वीर के साथ सिंगल कॉलम में है। शीर्षक है, तेज बहादुर नहीं लड़ सकेंगे चुनाव याचिका खारिज। खबर कहती है, सुप्रीम कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा है कि यह सुनने योग्य नहीं है। आगे खबर है, तेज बहादुर ने वाराणसी सीट से नामांकन खारिज करने के चुनाव आयोग के फैसले को चुनौती दी थी। तेज बहादुर ने नामांकन खारिज रद्द किए जाने के फैसले को भेदभावपूर्ण और अतार्किक बताया था। खबर इतनी ही है। अंदर के पेज पर होने की कोई सूचना नहीं है। इससे लगता है कि तेज बहादुर के पास कोई विकल्प नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने उसका नामांकन खारिज किए जाने को सुनवाई लायक नहीं माना।
देखता हूं, ऐसी कोई और खबर हो तो उसकी भी चर्चा कर लूं फिर बताता हूं कि अखबार आपको क्या नहीं बता रहे हैं। उसके बाद आप तय कीजिएगा कि क्यों नहीं बताया। लगभग ऐसी ही खबर राजस्थान पत्रिका में पहले पन्ने पर है, “सुप्रीम कोर्ट से झटका” और फिर, “पीएम के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ पाएंगे तेज बहादुर”। खबर में जो अलग जानकारी है वह इस प्रकार है, “हमें इसमें जनहित याचिका के तौर पर दखल देने का कोई आधार नहीं मिला।” इसके बाद अखबार ने लिखा है, “…. वाराणसी सीट से उनकी दावेदारी तकरीबन समाप्त हो गई।” यह भी सही है लेकिन इसमें जो खबर है वह अब भी बाकी है। मैं उसपर आता हूं।
इस बीच गौर करने वाली बात यह भी है कि राहुल गांधी को ब्रिटिश नागरिक करार दिए जाने से संबंधित याचिका भी कल ही खारिज हुई है। आज के अखबारों में देखिए उसे कितना महत्व मिला है जबकि हम सब जानते हैं कि राहुल गांधी यहीं पैदा हुए यहीं रहते हैं और उनके विदेशी नागरिक होने की संभावना नहीं के बराबर है। पर फौज में खराब खाना देने की शिकायत करने वाले फौजी को नौकरी से निकाल दिया जाना भले सामान्य हो और आप (अखबार वाले भी) उसपर ध्यान न दें यह तो समझ में आता है। आप मान सकते हैं कि यह अनुशासनहीनता का मामला है।
जब आप देख रहे हैं कि उसे साथी फौजियों का समर्थन मिल रहा है और वह सीधे प्रधानमंत्री को चुनौती देने के लिए तैयार है तो क्या आपको उसका नामांकन खारिज कर दिया जाना सामान्य लगता है। इसके जो कारण बताये गए वे आपको संतोषजनक लगते हैं। मुझे तो नहीं लगते हैं। और मेरा मानना है कि अन्याय के खिलाफ हमारे देश में कानून की हालत इतनी बुरी नहीं हो सकती है। यह संभव नहीं है कि कहीं कोई सुनवाई न हो। यह अलग बात है कि उसके लिए पैसे चाहिए पर जनसमर्थन हो तो यह मुश्किल नहीं है।
ऐसे में क्या तेज बहादुर वाकई चुनाव नहीं लड़ सकता है। अगर हां तो क्या इस स्थिति में सुधार की जरूरत नहीं है? एक राजनीतिक दल ने सेना को मजबूत करने का खुद ही ठेका ले लिया है। क्या उसका काम नहीं है कि इसपर अपना पक्ष स्पष्ट करे। क्या अखबारों का काम नहीं है कि प्रधानमंत्री से इसपर टिप्पणी मांगते? क्या आपको नहीं जानना चाहिए कि तेज बहादुर अगर दोषी न हो और उसे फंसाया ही गया हो तो वह कहां जाए, कैसे न्याय मांगे और सेना में अब भी अगर जवानों को खराब खाना मिल रहा है, भ्रष्टाचार है तो सरकार में, संसद में उनके बीच का एक प्रतिनिधि होना चाहिए। मुझे लगता है कि यह मामला साधारण नहीं है और अखबारों को पूरे तथ्य बताने चाहिए। ऐसा नहीं है कि तेज बहादुर के पास विकल्प नहीं है जैसा ऊपर की खबरों से पहली नजर में लग रहा है।
एक खबर में कहा गया है कि अदालत ने कहा, “हमें इसमें जनहित याचिका के तौर पर दखल देने का कोई आधार नहीं मिला।” जाहिर है, अदालत में यह मामला जनहित याचिका के रूप में दायर किया गया हो और अदालत इससे सहमत नहीं हो। इससे तेज बहादुर प्रधानमंत्री के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ पाएगा – यह तो संभव है पर आगे की संभावना भी खत्म हो गई ऐसा नहीं है। मैंने इस मामले में अलग से कोई जानकारी नहीं ली है बल्कि मानता हूं कि सामान्य अखबारों को ही इस विषय पर पूरी जानकारी देनी चाहिए और मैंने हिन्दुस्तान टाइम्स में ही इस संबंध में पूरी सूचना पाई है।
अंदर के पन्ने पर आज दो कॉलम में ठीक-ठाक विस्तार से छपी खबर का शीर्षक हिन्दी में होता तो कुछ इस प्रकार होता, “चुनाव आयोग के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने तेज बहादुर की याचिका खारिज की”। अखबार की आज की खबर के मुताबिक, यादव ने नामांकन पत्र रद्द करने के रिटर्निंग अफसर के निर्णय को चुनौती दी थी और आरोप लगाया था कि इसका मकसद (चुनाव में) प्रधान मंत्री को वॉक ओवर देना है। इस पर चुनाव आयोग के वकील ने कहा कि इस तरह की अपील चुनाव पूर्ण होने के बाद ही दाखिल की जा सकती है और (इस समय) इसपर सुनवाई नहीं हो सकती है। मुझे लगता है कि इस पूरे मामले में यह सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है पर अभी तक जो छपा है या नहीं छपा है उससे यही लग रहा है कि रिटर्निंग अफसर के फैसले को चुनौती दी ही नहीं जा सकती है।
अखबार में इस मामले में आगे लिखा है, यादव की ओर से पेश हुए अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने इस तर्क का प्रतिवाद किया पर बाद में मतदान खत्म होने पर याचिका दायर करने की स्वतंत्रता मांगी। इससे लगता है कि चुनाव होने तक रिटर्निंग अफसर के फैसले को चुनौती नहीं देने का नियम है पर बाद में इसे चुनौती दी जा सकती है। पर यह बात आज की खबरों से निकलकर नहीं आ रही है। और मेरा मानना है कि बनारस से प्रधानमंत्री जीत कर फिर प्रधानमंत्री बन गए तब इस मामले पर ठीक से सुनवाई होगी और तेज बहादुर एक प्रधानमंत्री के चुनाव को अदालत में सफल चुनौती देने वाला बन सकता है।
नौसेना के उस समय के वरिष्ठ अधिकारियों ने प्रधानमंत्री के दावे को खारिज कर दिया है। कम से कम तीन अखबारों – अमर उजाला, दैनिक जागरण और नवोदय टाइम्स में आज यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। दैनिक भास्कर, नवभारत टाइम्स और राजस्थान पत्रिका ने प्रधानमंत्री के दावे को खारिज करने की खबर को लगभग समान महत्व से छापा है। हिन्दुस्तान ने कल इस खबर को पहले पन्ने पर नहीं छापा था पर आज पहले पन्ने पर छोटी सी खबर है, “राजीव गांधी पर सियासी संग्राम”। अखबार में इसका विवरण अंदर के पेज पर होने की सूचना है। और अंदर यह खबर विस्तार से है। कल मैंने नहीं देखा था कि यह खबर अंदर है कि नहीं और कितनी। इस संबंध में द टेलीग्राफ ने आज पहले पन्ने पर फोटो के साथ खबर छापकर पूछा है, सर, आईएनएस सुमित्रा पर कनाडा का नागरिक याद हैं? देखिए आपके अखबार में यह खबर है कि नहीं। मुझे पहले पन्ने पर तो नहीं दिखी।